ध्यानं निर्विषयं मनः

July 2003

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ध्यान में किस तरह से सफलता मिले? इस सवाल ने उन्हें काफी उलझन में डाल रखा था। कई महीनों से वह अपनी इस उलझन को सुलझाने की कोशिश कर रहे थे। पर सार्थक समाधान का कोई छोर उन्हें नहीं मिल पा रहा था। अपने प्रश्न कंटक की टीस भरी चुभन उन्हें हर पल सताती रहती थी। हालाँकि इसके अलावा उन्हें अन्य कोई कष्ट न था। उत्तम स्वास्थ्य, उज्ज्वल कीर्ति, धन का अपरिमित भण्डार सभी कुछ उनके पास थे। दूर-दूर तक उनका अपना कारोबार फैला हुआ था। अनेकों निजी जलयान समुद्र पार जाकर उनके आर्थिक साम्राज्य का विस्तार करते रहते थे। उनकी हुण्डियों और हस्ताक्षरों का देश में नहीं विदेशों में भी सम्मान था।

स्वयं सम्राट हर्षवर्धन उन्हें अपने सगे सहोदर की भाँति सम्मान देते थे। जावा, सुमात्रा आदि देशों के राजन्य वर्ग में भी उन्हें प्रतिष्ठ प्राप्त थी। गरीबों व असहाय जनों के बीच उनका नाम किसी देवता के नाम की भाँति था। पर उनकी अपनी स्थिति चम्पक पुष्पों के वन विहार करने के लिए विवश किए गए चञ्चरीक की भाँति थी। श्रेष्ठी विशाखदत्ता, महाश्रेष्ठी विशाखदत्त, नगर श्रेष्ठी विशाखदत्त, ये सभी सम्बोधन उन्हें चुभते थे। उनकी अपनी चाह तो बस साधक विशाखदत्त होने की थी। पर ध्यान के पलों में भी न जाने क्यों उनके मन की चंचलता विराम न लेती थी।

उनकी इस उलझन से परिवार के सदस्य और कर्मचारी भी परिचित हो चुके थे। सभी चाहते थे कि श्रेष्ठी को उनके जीवन की राह मिले, पर कुछ कर पाने में असमर्थ थे। पर एक दिन एक कर्मचारी को सफलता की एक नन्हीं किरण चमकती दिखलाई दी। यह चमक उस समाचार की थी, जो वीतराग सन्त आशुतोष महाराज के कान्यकुत्त्ज (कन्नौज) आने की सूचना दे रही थी। आशुतोष महाराज श्रद्धा, तप, योग, भक्ति एवं निष्काम कर्म के मूर्तिमान रूप थे। जन श्रद्धा उनकी ओर उन्मुख होकर प्रवाहित होती थी। पर वह स्वयं जन-गण को सीय-राममय जानकर लोक कल्याण में निरत रहते थे। वर्षों बाद उनके आगमन के समाचार ने कान्यकुत्त्ज नगर में पवित्र भावनाओं का ज्वार ला दिया। श्रेष्ठी विशाखदत्त ने भी उनके पास जाकर प्रणिपात करते हुए अपने घर आने का निमन्त्रण दिया।

परम सरल आशुतोष महाराज नियत समय पर श्रेष्ठी के निवास पहुँच गए। भोजन आदि के बाद विशाखदत्त ने उनसे विनम्र स्वरों में अपनी उलझन कह सुनायी। अनेकों कोशिशों के बावजूद ध्यान नहीं लगता। चाहें कितनी ही देर आँखें बन्द किए बैठा रहूँ, पर कहीं भी प्रभु की झलक नहीं मिलती? मन में हमेशा उपद्रव मचा रहता है। समझ में नहीं आता कैसे निबटूँ इस उपद्रव से?

श्रेष्ठी की बातों को सुनकर आशुतोष महाराज बिना बोले उठे और श्रेष्ठी का हाथ थाम कर भवन की खिड़की के पास ले गए। इसमें स्वच्छ पारदर्शी काँच लगे हुए थे। इस खिड़की के पार वृक्ष, पक्षी, बादल, सूरज सभी कुछ साफ-साफ नजर आ रहे थे। इस सम्मोहक नजारे को देखने और दिखाने के बाद वह एक दूसरी खिड़की के पास आ खड़े हुए। इसमें बड़ी ही कलात्मकता को उकेरती चाँदी की चमकीली परत लगी थी। यहाँ खड़े होकर आशुतोष महाराज बोले, वत्स विशाखदत्त! चाँदी की चमकीली परत और काँच में कुछ अन्तर नजर आता है।

विशाखदत्त कहने लगे, महाराज! इस चमकीली परत पर सिवाय खुद की शक्ल के और कुछ भी नहीं दिखाई देता है। बाहर की दुनिया तो एकदम सिरे से गायब है। आशुतोष महाराज ने मुस्कराते हुए कहा-जिस चमकीली परत के कारण तुमको सिर्फ अपनी शक्ल दिखाई दे रही है, वही तुम्हारे मन के चारों तरफ भी है। इसलिए अपने ध्यान में तुम जिधर भी देखते हो, केवल अपने मन को ही देखते हो। जब तक तुम्हारे मन पर विषय-वासना की परत है, तब तक परमात्मा तुम्हारे लिए बेमानी है।

थोड़ा ठहर कर आशुतोष महाराज ने श्रेष्ठी की ओर गम्भीर दृष्टि से ताका और कहा, वत्स, महर्षि पतंजलि के आप्त वचन हैं- ‘ध्यानं निर्विषयं मनः’ ध्यान तो मन के विषय-वासना हटने पर ही होता है। पहले तुम विषय-वासना रूपी चाँदी की परत के सामने से हटो। और शीशे जैसे पारदर्शी व स्वच्छ मन से प्रभु का ध्यान करो। तुम्हें उसकी अनुभूति अवश्य मिलेगी।


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