गुरु पूर्णिमा (13 जुलाई, 2003)- - विशेष-जनम-जनम के साक्षी व साथी हैं हमारे गुरुदेव

July 2003

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आषाढ़ महीने की हल्की फुहारें अंतर्मन को अनायास ही भिगो रही हैं। नील-गगन पर छाए उमड़ते-घुमड़ते मेघों से झरती बूँदों की ही तरह अंतर्गगन में परम पूज्य गुरुदेव की यादों की मेघमालाएँ छायी हुई हैं। और उनसे अनगिन भाव भरी यादों की झड़ी लगी हुई है। जिस तरह से वृक्ष-वनस्पतियों सहित भीगती धरती की ही तरह अन्तर्चेतना का कोना-कोना भीग रहा है। आषाढ़ की पूर्णिमा यह मुखर सन्देशा लेकर आयी है, मनुष्य के अधूरेपन को, उसकी अतृप्ति को केवल गुरु ही पूर्णता का वरदान देता है। इसलिए आषाढ़ पूर्णिमा- गुरु पूर्णिमा है। गुरु जो करते हैं वह शिष्य की पूर्णता के लिए ही करते हैं। कभी तो वह ऐसा शिष्य की इच्छा को पूर्ण करके करते हैं, तो कभी वह ऐसा शिष्य की चाहत को ठुकरा कर करते हैं।

गुरु पूर्णिमा पर बरसती यादों की झड़ी में गुरुदेव की शिष्य वत्सलता के ऐसे रूप भी हैं। उस दिन भी वह नित्य की भाँति प्रसन्नचित्त लग रहे थे। पूर्णतया खिले हुए अरुण कमल की भाँति उनका मुख मण्डल तप की आभा से दमक रहा था। उनके तेजस्वी नेत्र समूचे वातावरण में आध्यात्मिक प्रकाश बिखेर रहे थे। उनकी ज्योतिर्मय उपस्थिति थी ही कुछ ऐसी जिससे न केवल शान्तिकुञ्ज का प्रत्येक अणु-परमाणु बल्कि उनसे जुड़े हुए प्रत्येक शिष्य व साधक की अन्तर्चेतना ज्योतिष्मान होती थी। उनके द्वारा कहा गया प्रत्येक शब्द शिष्यों के लिए अमृत-बिन्दु था। वे कृपामय अपने प्रत्येक हाव-भाव में, शिष्यों के लिए परम कृपालु थे। उनके सान्निध्य में शिष्यों एवं भक्तों को कल्पतरु के सान्निध्य का अहसास होता था। सभी को विश्वास था कि उनके आराध्य सभी कुछ पूरा करने में समर्थ हैं।

इस विश्वास का खाद-पानी पाकर कई चाहतें भी मन में बरबस अंकुरित हो जाती थी। उस दिन उनके सान्निध्य में एक शिष्य के मन में बरबस यह भाव जागा कि परम समर्थ गुरुदेव क्या कृपा करके उसे जीवन की पूर्णता का वरदान नहीं दे सकते? वही पूर्णता जिसे शास्त्रों ने कैवल्य, निर्वाण, ब्रह्मज्ञान आदि अनेकों नाम दिये हैं। परम पूज्य गुरुदेव अपने पलंग पर बैठे हुए थे। और वह उनके चरणों के पास जमीन पर बिछे एक टाट के टुकड़े पर बैठा हुआ था। इस विचार को कहा कैसे जाय, बड़ी हिचकिचाहट थी उसके मन में। सकुचाहट, संकोच और हिचक के बीच उसकी अभीप्सा छटपटा रही थी। सब कुछ समझने वाले अन्तर्यामी गुरुदेव उसके मन की भाव दशा को समझते हुए मुस्करा रहे थे। आखिर में उन्होंने ही हँसते हुए कहा- जो बोलना चाहता है, उसे बेझिझक बोल डाल।

अपने प्रभु का सम्बल पाकर उसने थोड़ा अटकते हुए कह डाला- गुरुदेव! क्या मुझे आप ब्रह्मज्ञान करा सकते हैं? इस कथन पर गुरुदेव पहले तो जोर से हँसे फिर चुप हो गए। उनकी हँसी से ऐसा लग रहा था- जैसे किसी छोटे बच्चे ने अपने पिता से कोई खिलौना माँग लिया हो या फिर उसने किसी मिठाई की माँग की हो। पर उनकी चुप्पी रहस्यमय थी। इसका भेद पता नहीं चल रहा था। आखिर वह हँसते हुए चुप क्यों हो गए? इसी दशा में पल-क्षण गुजरे। फिर वह कमरे में छायी नीरवता को भंग करते हुए बोले- तू ब्रह्मज्ञान चाहता है। मैं अभी इसी क्षण तुझे ब्रह्मज्ञान करा सकता हूँ। ऐसा करने में मुझे कोई परेशानी नहीं है। मैं इसमें पूरी तरह से समर्थ हूँ।

इतना कहकर वह फिर से ठहर गए। और उनकी आँखों में करुणा छलक आयी। वह करुणा जो माँ की आँखों में अपने कमजोर-दुर्बल शिशु को देखकर उभरती है। इस छलकती करुणा के साथ वह बोले- यदि इसी समय तुझे ब्रह्मज्ञान करा दूँ, तो जानता है तेरा क्या होगा? बेटा! तू विक्षिप्त और पागल होकर नंगा घूमेगा। छोटे-छोटे लड़के तुझे पत्थर मारेंगे। सुनने वाले को यह बात बड़ी अटपटी सी लगी। इसका भेद उसे समझ में न आया। करुणा की घनीभूत मूर्ति गुरुदेव उसे समझाते हुए बोले- बेटा! तू इसे इस तरह से समझ। यदि 220 वोल्ट वाले पतले तार में 11,000 वोल्ट की बिजली गुजार दी जाय, तो जानता है क्या होगा? अपने ही इस सवाल का जवाब देते हुए वह बोले- न केवल वह पतला तार उड़ जाएगा, बल्कि दीवारें तक फट जायगी।

ब्रह्म चेतना 11,000 वोल्ट की प्रचण्ड विद्युत् धारा की तरह है। और सामान्य मनुष्य चेतना 220 वोल्ट की भाँति दुर्बल है। इसलिए ब्रह्मज्ञान पाने के लिए पहले तप करके अपने शरीर और मन को बहुत मजबूत बनाना पड़ता है। इन्हें ऐसा फौलादी बनाना होता है, ताकि ये ब्रह्म चेतना की अनुभूति का प्रबल वेग सहन कर सकें। इसके बिना भारी गड़बड़ हो जायगी। जबरदस्ती ब्रह्मज्ञान कराने के चक्कर में शरीर और मन बिखर जाएँगे। भक्त की चाहत को ठुकराते हुए भी भगवान् के मन में केवल निष्कलुष करुणा का निर्मल स्रोत ही बह रहा था। सदा वरदायी प्रभु वरदान न देकर अपनी कृपा ही बरसा रहे थे।

इस स्थिति को स्पष्ट करते हुए उन्होंने एक सत्य घटना का विवरण सुनाया। यह घटना महर्षि अरविन्द और उनके शिष्य दिलीप कुमार राय के बारे में थी। विश्व विख्यात संगीतकार दिलीप राय उन दिनों श्री अरविन्द से दीक्षा पाने के लिए जोर जबरदस्ती करते थे। वह ऐसी दीक्षा चाहते थे, जिसमें श्री अरविन्द दीक्षा के साथ ही उन पर शक्तिपात करें। उनके इस अनुरोध को महर्षि हर बार टाल देते थे। ऐसा कई बार हो गया। निराश दिलीप ने सोचा कि इनसे कुछ काम बनने वाला नहीं है। चलो किसी दूसरे गुरु की शरण में जाएँ। और उन्होंने एक महात्मा की खोज कर ली। ये सन्त पाण्डिचेरी से काफी दूर एक सुनसान स्थान में रहते थे।

दीक्षा की प्रार्थना लेकर जब दिलीप राय उन सन्त के पास पहुँचे। तो वह इस पर बहुत हँसे और कहने लगे- तो तुम हमें श्री अरविन्द से बड़ा योगी समझते हो। अरे वह तुम पर शक्तिपात नहीं कर रहे, यह भी उनकी कृपा है। दिलीप को आश्चर्य हुआ- ये सन्त इन सब बातों को किस तरह से जानते हैं। पर वे महापुरुष कहे जा रहे थे, तुम्हारे पेट में भयानक फोड़ा है। अचानक शक्तिपात से यह फट सकता है, और तुम्हारी मौत हो सकती है। इसलिए तुम्हारे गुरु पहले इस फोड़े को ठीक कर रहे हैं। इसके ठीक हो जाने पर वह तुम्हें शक्तिपात दीक्षा देंगे। अपने इस कथन को पूरा करते हुए उन योगी ने दिलीप से कहा- मालूम है, तुम्हारी ये बातें मुझे कैसे पता चली? अरे अभी तुम्हारे आने से थोड़ी देर पहले सूक्ष्म शरीर से महर्षि अरविन्द स्वयं आए थे। उन्होंने ही मुझे तुम्हारे बारे में सारी बातें बतायी।

उन सन्त की बातें सुनकर दिलीप तो अवाक् रह गये। अपने शिष्य वत्सल गुरु की करुणा को अनुभव कर उनका हृदय भर आया। पर ये बातें तो महर्षि उनसे भी कह सकते थे, फिर कहा क्यों नहीं? यह सवाल जब उन्होंने वापस पहुँच कर श्री अरविन्द से पूछा, तो वह हँसते हुए बोले, यह तू अपने आप से पूछ, क्या तू मेरी बातों पर आसानी से भरोसा कर लेता। दिलीप को लगा, हाँ यह बात भी सही है। निश्चित ही मुझे भरोसा नहीं होता। पर अब भरोसा हो गया। इस भरोसे का परिणाम भी उन्हें मिला निश्चित समय पर श्री अरविन्द ने उनकी इच्छा पूरी की।

यह सत्य कथा सुनाकर गुरुदेव बोले- बेटा! गुरु को अपने हर शिष्य के बारे में सब कुछ मालूम होता है। वह प्रत्येक शिष्य के जन्मों-जन्मों का साक्षी और साथी है। किसके लिए उसे क्या करना है, कब करना है वह बेहतर जानता है। सच्चे शिष्य को अपनी किसी बात के लिए परेशान होने की जरूरत नहीं है। उसका काम है सम्पूर्ण रूप से गुरु को समर्पण और उन पर भरोसा। इतना कहकर वह हँसने लगे, तू यही कर। मैं तेरे लिए उपयुक्त समय पर सब कर दूँगा। जितना तू अपने लिए सोचता है, उससे कहीं ज्यादा कर दूँगा। मुझे अपने हर बच्चे का ध्यान है। अपनी बात को बीच में रोककर अपनी देह की ओर इशारा करते हुए बोले- बेटा! मेरा यह शरीर रहे या न रहे, पर मैं अपने प्रत्येक शिष्य को पूर्णता तक पहुँचाऊँगा। समय के अनुरूप सबके लिए सब करूंगा। किसी को भी चिन्तित-परेशान होने की जरूरत नहीं है। गुरुदेव के यह वचन गुरु पूर्णिमा पर प्रत्येक शिष्य के लिए महामंत्र के समान हैं। अपने गुरु के आश्रय में बैठे किसी शिष्य के लिए कोई चिन्ता और भय नहीं है।


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