आवश्यकता है प्रेम के परिष्कार एवं सुख के आध्यात्मीकरण की

July 2003

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हर व्यक्ति सुख की तलाश में है। शायद ही कोई ऐसा हो जो दुःख चाहता है। किन्तु फिर भी कोई विरला ही होता है, जो अपने सुख की चिर-पिपासा को तृप्त कर पाता हो। बाकियों के लिए तो अनश्वर सुख की चाह मात्र एक स्वप्न बन कर रह जाती है और मरुस्थल में पानी की तलाश में मारे-मारे फिरते मृग की तरह अन्तहीन भटकाव ही इनकी नियति बन जाती है। जबकि मानव जीवन के मर्मज्ञ ऋषियों के अनुसार यह स्थिति सुरदुर्लभ मानव जीवन की चरम नियति नहीं है। यह तो उसकी आत्म-पूर्णता की स्थिति से उपलब्ध होने वाली आनन्द, शाँति एवं चरम सुख की अवस्था है। जो न केवल उसका जीवन का चरम ध्येय है, बल्कि ‘अमृत पुत्र’ होने के नाते उसका जन्मसिद्ध अधिकार भी है। यदि मनुष्य अपने इस यथार्थ स्वरूप, लक्ष्य एवं आदर्श के प्रति जागरुक हो उठे तो उसके वर्तमान में बहके भटके कदम सहज ही उस मार्ग पर बढ़ चलें, जो कि उसे क्रमशः तृप्ति, तुष्टि एवं शाँति को देने वाले सच्चे सुख की मंजिल तक पहुँचा दें।

नीतिशास्त्र के अनुसार भी मनुष्य मूलरूप से सुख की ही खोज कर रहा है। इस सुख का अर्थ एवं स्वरूप क्या है और इसको उपलब्ध करने के माध्यम क्या हो सकते हैं, इस संदर्भ में नीति विशारदों के विविध मत हैं। कुछ सम्प्रदायों के अनुसार, हर व्यक्ति को अपने ढंग से खुशी की खोज करनी चाहिए। यह विशुद्धतः अहं केन्द्रित दृष्टिकोण है। अपने सबसे उथले रूप में यह ऐन्द्रिक सुखों पर केन्द्रित रहता है। इसका आदर्श होता है- खाओ, पीओ और मौज उड़ाओ। अपने कुछ अधिक परिष्कृत रूप में यह अहं केन्द्रित सुख, मन की खुशियों पर बल देता है। ज्ञान, कला और विज्ञान आदि की उपलब्धियाँ इसी खोज की परिणति हैं। अपने उच्चतम रूप में अहंवादी प्रसन्नता, व्यक्तित्व के नैतिक और आध्यात्मिक रूपांतरण का रूप लेती है। किन्तु दृष्टिकोण अहंवादी ही रहता है और व्यक्ति का अपना सुख ही लक्ष्य रहता है।

इसके विपरीत सर्वमुक्तिवाद के अनुसार, लक्ष्य मात्र व्यक्ति की प्रसन्नता भर नहीं हो सकता, समाज, समुदाय का हित भी साधित होना चाहिए। विशुद्ध अहंवादी दृष्टि से खुशी का अन्वेषक दूसरे व्यक्ति में वहीं तक मतलब रखता है, जहाँ तक कि वह किसी रूप में अपना उद्देश्य पूर्ण करता हो। जबकि सर्वमुक्तिवाद अधिकाँश लोगों के अधिकाँश सुख का प्रतिपादन करता है। स्वार्थहीन आत्मप्रसादवाद अपनी खुशी की कीमत पर भी दूसरे के सुख में विश्वास करता है। इसके अनुसार आत्म-त्याग उच्चतर स्तर पर आत्म-पूर्णता को सुनिश्चित करता है।

आत्म-त्याग के कृत्य द्वारा व्यक्ति आँतरिक प्रसन्नता को प्राप्त होता है। जब मन शुद्ध हो जाता है तो यह मन की आँतरिक शाँति और प्रकाश को प्रतिबिम्बित करता है। आनन्दमय कोश से उद्भूत यह सुख भी अहं केन्द्रित होता है। क्योंकि यहाँ व्यैक्तिक चेतना दूसरे से अलग अपना अस्तित्त्व अनुभव करती है। जबकि प्रसन्नता का सर्वोच्च स्वरूप, पूर्ण इच्छाहीनता एवं आध्यात्मिक अनुभव की स्थिति में निहित है।

सुख के त्रिविध भेदों का वर्णन करते हुए भगवान् श्रीकृष्ण इनके क्रमिक सोपानों का वर्णन करते हैं। तामसिक सुख सबसे निम्न श्रेणी का होता है। यह निद्रा, आलस्य और प्रमाद से उत्पन्न होता है। और भोगकाल तथा परिणाम; दोनों में आत्मा को मोहित करने वाला होता है। राजस सुख इससे उच्चतर श्रेणी का होता है। यह विषय और इन्द्रियों के संयोग से उत्पन्न होता है और भोगकाल में अमृत तुल्य प्रतीत होने पर भी परिणाम काल में विष के तुल्य होता है। सात्विक सुख उत्तम प्रकार का होता है। इसमें साधक भजन, ध्यान और सेवा आदि के अभ्यास में रमण करता है और दुःखों के अन्त को प्राप्त होता है। यह सुख प्रारम्भ में यद्यपि विष के तुल्य प्रतीत होता है, परन्तु परिणाम में अमृत तुल्य होता है। (गीता- 18/36-39)

अपने उच्चतम रूप में सुख-शाँति बाह्य वस्तुओं से उत्पन्न नहीं होती। यह आत्म-ज्ञान से प्रस्फुटित होती है। आध्यात्मिक अनुभूति को उपलब्ध व्यक्ति इसे परमात्मा से संवाद द्वारा प्राप्त करता है। गीताकार के शब्दों में इसे पाकर व्यक्ति को और कुछ पाने की इच्छा नहीं रहती और इसमें स्थित व्यक्ति महानतम दुःख से भी विचलित नहीं होता। (गीता- 6/22)। इस सुख शान्ति का स्रोत परमात्मा परमेश्वर स्वयं होते हैं जो कि सभी प्राणियों में निवास करते हैं। इसका साक्षात्कार जीवात्मा को प्रकाशित करता हुआ, सर्वोच्च आनन्द का भागीदार बनाता है।

वास्तव में सुख का स्वरूप हर जीवात्मा की विकास की अवस्था के अनुरूप निर्धारित होता है। स्वामी विवेकानन्द के अनुसार, पशुओं में और पशुतुल्य मनुष्यों में शारीरिक सुख ही सर्वोपरि होता है। शारीरिक धरातल से कुछ ऊपर उठे व्यक्तियों में सुख विचारों के इर्द-गिर्द केन्द्रित होता है। जबकि आत्मसाक्षात्कार को प्राप्त एवं परमात्म ज्ञान को उपलब्ध ज्ञानी का सुख सर्वोच्च होता है।

तैत्तिरीय उपनिषद् में सुख के विविध स्तरों का बहुत ही सूक्ष्म एवं वैज्ञानिक विवेचन हुआ है। इसके अनुसार एक युवक का सुख जो श्रेष्ठ शास्त्रों में पारंगत, आशा, संकल्प और शक्ति से भरा हुआ है तथा सारा संसार उसके चरणों में है; यह मानवीय सुख की एक ईकाई है। इससे सौ गुना अधिक सुख गन्धर्वों या अर्द्ध-दिव्य प्राणियों का होता है। इससे सैकड़ों गुणा सुख देवों या उच्चतर दिव्य प्राणियों का होता है। इससे भी सैकड़ों गुणा अधिक सुख देवों के गुरु बृहस्पति का होता है। इससे सौ गुणा अधिक सुख सृष्टि के रचयिता प्रजापति का होता है। परमात्मा ब्रह्म का सुख अनन्त गुना होता है। ब्रह्मज्ञानी इस आनन्द की अनुभूति करते हैं। (तैत्तिरीय उपनिषद्- 2/6)

साँसारिक और स्वर्गीय सभी तरह के सुखों की इच्छा को त्याग करने वाली पूर्णतः प्रकाशित आत्मा ही इस अनन्त आनन्द की भागीदार बनती है। अन्य तो इसका मात्र एक या कुछ अंश ही प्राप्त कर पाते हैं। इस तरह यथार्थ सुख का मर्म इच्छाओं के त्याग में निहित है। इच्छाओं के भोग से प्राप्त क्षणिक सुख में भी इसी सत्य का दर्शन कर सकते हैं। इच्छा की क्षणिक पूर्ति से हम कुछ समय तक इच्छारहित हो जाते हैं और उतनी देर आनन्द के एक अंश की अनुभूति करते हैं। इस तरह आनन्द की गुणवत्ता, मात्रा व अवधि हमारी इच्छाहीनता की गुणवत्ता, मात्रा व अवधि पर निर्भर करती है। रामकृष्ण परमहंस के शब्दों में- ‘यदि कोई व्यक्ति इच्छाओं से पूरी तरह मुक्त हो सकता हो तो

वह परमहंसत्व की पूर्णतया प्रकाशित एवं स्वतन्त्र अवस्था को प्राप्त हो जाता है, जो कि अनन्त सुख व दिव्य शाँति की दशा है।’

इस तरह मनुष्य जिस सुख-शाँति की तलाश चिरकाल से कर रहा है, वह उसके अन्तर में विद्यमान है। अपनी ही हृदय गुहा में आनन्द का अमृत घट छिपा पड़ा है। नश्वर मानवीय प्रेम में इसी आनन्द की आँशिक अभिव्यक्ति होती है। निस्संदेह रूप से साँसारिक सुख एवं प्रेम उस अनन्त की एक बूँद भर है किन्तु है अपनी विकृत अवस्था में। आवश्यकता इस प्रेम के परिष्कार की है एवं इस सुख के आध्यात्मीकरण की है।

इस तथ्य से अनभिज्ञ आधुनिक मनोविज्ञान के कुछ सम्प्रदाय काम को तथा कुछ अन्य शक्ति की इच्छा को जीवन की मूल प्रेरक शक्ति मानने की भूल कर बैठते हैं। जबकि भारतीय मनोविज्ञान के अनुसार, सभी में आनन्द या उच्चतम सुख की चेतन एवं अवचेतन इच्छा होती है। अज्ञान के कारण, अपने मूलस्वरूप को भूली जीवात्मा, सानन्त अस्तित्त्व में अनन्त सुख व शाँति को खोजने की भूल करती है, किन्तु बुरी तरह विफल होती है। जबकि अनन्त सुख तो अनन्त सत्ता से ही उपलब्ध हो सकता है। यही कुछ उपनिषद् के ऋषियों की घोषणा रही है, कि ‘मात्र अनन्त ही आनन्द है। किसी भी सानन्त में स्थायी सुख नहीं हो सकता। मात्र अनन्त ही सच्चा सुख है। मात्र अनन्त ही परम आनन्द है और इसी की अनुभूति होनी चाहिए।’ (छान्दोग्य उपनिषद्-6/23/1)

इस सर्वोच्च सुख का स्रोत हम सबमें, प्रत्येक में विद्यमान है, किन्तु स्थिति कुछ लालटेन लिए उस किसान जैसी है जो अपने चुल्हे में आग जलाने के लिए पड़ोसी के घर में आग की खोज कर रहा है। इसी तरह वह अग्नि, जिसकी उसे आवश्यकता है, उसके अन्दर विद्यमान है, किन्तु वह उसे भूला हुआ है तथा बाहर कहीं और खोजता फिर रहा है। स्थिति उस कस्तूरी मृग की है, जो कस्तूरी की तलाश में वन-वन मारे फिर रहा है। जबकि उसकी खोज की वस्तु उसकी नाभि में पड़ी है। जिस अनन्त सुख-शाँति की खोज हम यत्नपूर्वक कर रहे हैं, वह हमारे ही हृदय में छिपी पड़ी है। किन्तु हमारी इच्छाएँ और वासनाएँ; काम, क्रोध, लोभ, मोह और ईर्ष्या-द्वेष आदि विकार इसका मार्ग अवरुद्ध किए हुए हैं।

इस स्थिति में व्यक्ति किस मार्ग का अनुसरण करे। व्यावहारिक सुझाव देते हुए भगवान् श्रीकृष्ण का निर्देश है- मन को शुद्ध करो, वासनाओं को शान्त करो, परमात्मा से अपना सम्बन्ध जोड़ो। इस प्रयास में क्रमशः अपने दिव्य स्वरूप का उद्घाटन होगा और सभी में उस दिव्यता की झलक झाँकी मिलने लगेगी। सभी में उस एक परमसत्ता की ज्योति के दर्शन से, उसके पूजन से, उसके ध्यान से , उसकी भक्ति से, उससे संवाद से और उसकी सेवा से, उस परमसुख, शाँति एवं आनन्द की चिर भटकन दूर होगी, जिसकी जीवात्मा खोज कर रही है।


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