देवता इस धर्मात्मा विरक्त गृहस्थ की योग साधना से बहुत प्रसन्न हुए। इंद्र उसके सम्मुख प्रकट हुए और वर माँगने के लिए कहा।
क्या माँगता, जब असंतोषी ही नहीं तो अभाव किस बात का! हाथ पसारने में हेठी भी तो होती है। स्वाभिमान गंवाकर ही किसी से कुछ पाया जा सकता है। सो उसने ऐसा उपाय खोजा, जिसमें ऋणभार भी न लदे और देवता बुरा भी न मानें।
उसने वर माँगा-उसकी छाया जहाँ भी पड़े, वहाँ कल्याण बरसने लगे। वरदान मिल गया, पर अचंभित देवता ने पूछा, “हाथ रखने पर कल्याण होने पर तो आनंद भी आता, प्रशंसा भी होती और प्रत्युपकार की संभावना रहती। छाया से कल्याण होने पर इन लाभों से वंचित रहना पड़ेगा। फिर ऐसा विचित्र वर क्यों माँगा?”
सद्गृहस्थ ने कहा, “देव! सामने वाले का कल्याण होने पर तो अपना अहंकार पनपेगा और साधना में विघ्न डालेगा। छाया किस पर पड़ी, कौन कितना लाभान्वित हुआ, इसका पता न चलना ही मेरे जैसे विनम्रों के लिए श्रेयस्कर है।”
साधना का यही स्वरूप वरेण्य है। यही क्रमिक प्रगति के पथ पर चलते चलते व्यक्ति को महामानव बना देता है।