भारत का इतिहास, महाकाल का प्रसाद है - गंगा

July 2003

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भारतीय संस्कृति में गंगा को ममतामयी माँ का दिव्य स्वरूप माना जाता है। यह जल निकासी का माध्यम मात्र नहीं है वरन् संस्कृति का मुख्य आधार रही है। गंगा भारत भूमि की सर्वप्रधान रक्त धमनी है। यह भारत भूमि के कण-कण तथा जन-जन में दिव्यता एवं पवित्रता का अमृत घोलती है। पुण्य सलिला गंगा यहाँ अगाध श्रद्धा और अनन्त अनुराग का माँगलिक एवं आध्यात्मिक प्रतीक है। उसके धार्मिक एवं आध्यात्मिक महत्त्व पर कोटि-कोटि धर्मप्रिय जन आस्था-विश्वास करते हैं। उसके संपर्क-सान्निध्य में शाँति प्राप्त करते हैं और प्रेरणा ग्रहण करते हैं।

गंगा की आध्यात्मिक महत्ता और विशेषता भारतीय धर्मशास्त्रों एवं पुराणों के पन्नों-पन्नों में बिखरी हुई मिलती है। महाभारत में गंगा को पापनाशिनी तथा कलियुग का सबसे महनीय जलतीर्थ माना गया है।

यद्यकार्यशतम् कृत्वाकृतम् गंगाभिषेचनम्। सर्व ततृ तस्य गंगाभो दहत्यग्निरिवेन्धनम्॥

सर्व कृतयुगे पुण्यम् जेतायाँ पुष्करं स्मृतम्। द्वापरेऽपि कुरुक्षेत्रं गंगा कलियुगे स्मृता॥

अर्थात् जैसे अग्नि इंधन को जला देती है। उसी प्रकार सैकड़ों निषिद्ध कर्म करके भी यदि गंगास्नान किया जाय तो उसका जल उन सब पापों को भस्म कर देता है। सतयुग में सभी तीर्थ पुण्यदायक-फलदायक होते हैं। त्रेता में पुष्कर का महत्त्व है। द्वापर में कुरुक्षेत्र विशेष पुण्यदायक है और कलियुग में गंगा की विशेष महिमा है।

देवी भागवत् में भी गंगा को पापों को धोने वाली त्राणकर्त्ती के रूप में उल्लेख किया गया है-

प्रधानाँशस्वरूपा सा गंगा भुवनपावनौ। विष्णुविग्रहहंसभूता द्रवरूपा सनातनी॥ पापिपापेध्यदाहाय ज्वलग्नि स्वरूपिणी। सुखस्पर्शी स्नानपानै निर्वाण पद दायिनी॥ गोलोकस्थान प्रस्थान मुखासोपान रूपिणी।

अर्थात्- विष्णु भगवान् के चरणों से उत्पन्न हुई परम पावनी गंगा तुम्हारा ही द्रव स्वरूप है। वह पतित पावनी गंगा पापियों के पाप नाश करने में अग्नि ज्वाला के सदृश तथा निर्वाण व मोक्ष पद प्रदान करने में समर्थ वह तुम्हारे ही कारण है।

अग्नि पुराण में माता गंगा को सर्वोत्कृष्ट जलतीर्थ घोषित किया गया है-

नास्तिम विष्णु समं ध्येयं तपो नानशनात्परम्। नास्त्यारोग्यसमं धन्यं नास्ति गंगासम सरित्॥

अर्थात्- भगवान् के समान कोई आश्रय नहीं। उपवास के समान तप नहीं। आरोग्य के समान सुख नहीं और गंगा के समान कोई जलतीर्थ नहीं है।

कूर्मपुराण में गंगा की महत्ता को यह कहकर प्रतिपादित किया गया है कि उसकी उपस्थिति मात्र से तपोवन का आभास होता है-

यत्र गंगा महाभागा स देशस्तत्तपोवनम्। सिद्धक्षेत्रन्तु तञ्जेयं गंगातीरं समश्रितम्॥

जहाँ पर महाभागा गंगा है वह देश तपोवन के समान होता है। उसको सिद्ध क्षेत्र जानना चाहिए।

पद्मपुराण के सृष्टिखण्ड के अध्याय 60, 39 और 43 में पुण्योतया गंगा के सम्बन्ध में अनेकों भाव भरे स्तुतिपरक श्लोक मिलते हैं।

गंगोति स्मरणादेव क्षयं याति च पातकम्। कीर्तन नादतिपापानि दर्शनाद्गुरु कल्पषम्॥

गंगाजी के नाम के स्मरण मात्र से पातक, कीर्तन से अतिपातक और दर्शन से महापातक भी नष्ट हो जाते हैं।

पुनाति कीर्तिता पापं द्रष्ट भद्रं प्रयच्छति। अवगाढ़ा च पीला च पुनात्यासप्तमं कुलम्॥

गंगाजी का नाम लेने मात्र से पाप धुल जाते हैं, और दर्शन करने पर सात पीढ़ियों तक को वह पवित्र कर देती है।

अग्निना दह्यते तूलं तृणं शुष्कं क्षणाद् यथा। तथा गंगाजलस्पर्शात् पुँसा पापं दहेत क्षणात्।

जैसे अग्नि का संसर्ग होने से रुई और सूखे तिनके क्षणभर में भस्म हो जाते हैं, व उसी प्रकार गंगा जी अपने जल का स्पर्श होने पर मनुष्यों के सारे पाप एक ही क्षण में दग्ध कर देती है।

तीर्थानाँ तु परं तीर्थ नदीनामुत्तता नदी। मोक्षदा सर्वमृतानाँ महापातकिनामपि॥

गंगा तीर्थों में श्रेष्ठ तीर्थ,नदियों में उत्तम नदी तथा सम्पूर्ण महापातकियों को भी मोक्ष देने वाली है।

न गंगा सदृशे तीर्थ न देवः केशवात्परः। ब्राह्मणेभ्यः परं नास्ति एवमाह पितामहः॥

ब्रह्म जी का कथन है कि गंगा के समान तीर्थ, श्री विष्णु से बढ़कर देवता तथा ब्राह्मणों से बढ़कर कोई पूज्य नहीं है।

आयुर्वेद में भी गंगा की महत्ता एवं गरिमा का गान गाया गया है। गंगाजल शारीरिक और मानसिक रोगों का निवारण करने वाला और आरोग्य व मनोबल में अभिवृद्धि करता है।

गंगावारि सुधा समं बहु गुण पुण्यं सदापुष्करं, सर्वव्याधि विनाशनं बलकरं वर्ण्य पवित्र परम्॥

हृद्यंदीपत पाचनं सुरुचिर स्मिषटं सु पश्यं लघु स्वान्तध्वान्त निवारि बुद्धि जननं दोष त्रघघ्नं वरम्॥

गंगा का जल अमृत के तुल्य बहुगुणयुक्त पवित्र, उत्तम, आयुवर्धक, सर्वरोगनाशक, बलवीर्यवर्धक, परम पवित्र, हृदय को हितकर, दीपन पाचन, रुचिकारक, मीठा, उत्तम पथ्य और लघु होम है तथा भीतरी दोषों का नाशक बुद्धिजनक, तीनों दोषों को नाश करने वाले सभी जलों में श्रेष्ठ है। मान्यता है कि औषधि जाह्नवी तोयं वेद्यौ नारायण हरिः। अर्थात् आध्यात्मिक रोगों की दवा गंगाजल है और उन रोगियों के चिकित्सक नारायण हरि परमात्मा हैं। पाप वृत्तियों, कषाय-कल्मषों को आध्यात्मिक विकृतियाँ माना जाता हैं, जिनका उपाय-उपचार गंगा तट पर निवास करते हुए परमात्मा की उपासना-साधना करने से होता है। गंगा तट पर तपस्या-साधना की गति तीव्रगामी हो जाती है।

इन्हीं कारणों से सप्तऋषियों ने अपनी तपस्थली प्रचण्ड तपस्या के लिए दिव्य हिमालय की छाँव तले गंगा की गोद को चुना। भगवान् राम, लक्ष्मण, भरत, शत्रुघ्न ने भी इसी दिव्य विशेषता से आकर्षित होकर गंगा किनारे तपस्या की थी। वस्तुतः हर दृष्टि से गंगा की महिमा एवं महत्ता अपरम्पार है। इसके स्नान-सान्निध्य से अन्तःकरण में पवित्रता का संचार होता है। मन को तुष्टि व शाँति मिलती है।

भारत की वंशधारा गंगा की वंशधारा है। भारत की समस्त परम्परा भी गंगा से सिंचित और पालित-पोषित हैं। गंगा की यही सामर्थ्य और शक्ति राष्ट्रीय शक्ति है, जिसके सामने सभी आक्राँताओं को अवश और विवश होना पड़ा है। माँ गंगा की जीवनधारा में शौर्य, समृद्धि और सृजनकारी शक्तियाँ हैं। इसलिए तो मौलाना अल्ताफ हुसैन ‘हाली’ ने अपने प्रसिद्ध काव्य ‘मुसद्दए हाली’ में गंगा की तासीर का बयान करते हुए उल्लेख किया है कि अरब देश से चला वह इस्लाम का बेड़ा, जिसकी पताका समस्त विश्व में लहरा चुकी थी, जिसकी राह में कहीं कोई रोड़ा नहीं बन सका, जो अरब और बलूचिस्तान के बीच की ओमान की खाड़ी में भी नहीं रुका और लाल सागर में भी नहीं झिझका था, जिसने सातों समुद्रों को अपने ढाल के तले ढक लिया था; वह गंगा के घाट में आकर डूब गया। अर्थात् माँ गंगा की पवित्रता और सामर्थ्य के सामने उसकी एक न चली, उसका पतन हो गया। इस सामर्थ्य का उल्लेख विलियम हंटर के 1881 में प्रकाशित बहुचर्चित ग्रंथ ‘द इण्डियन इम्पायर’ में भी मिलता है। जिसमें स्पष्ट किया गया है कि सिकन्दर भी गंगा के किनारे बसे लोगों से टकराने के लिए भयभीत रहता था।

परन्तु इस युग में गंगा की इस दिव्य पावनता को, अन्तःकरण की शीतलता को तथा उसकी अपार सामर्थ्य को अपावन, मलीन तथा प्रदूषित करने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी गया है। मानव का स्वार्थ अपनी ही जननी की कोख मलीन करने, मिटाने को तुला हुआ है। यह स्वार्थ बदलते समय के साथ नये आक्राँता बनकर, नये-नये सर्वनाशी तरीकों से अपना कहर ढा रहा है। परिणामतः गंगोत्री ग्लेशियर से निकलकर गंगासागर में गिरने वाली 2500 किलोमीटर गंगा का लगभग 2300 किलोमीटर लम्बा भाग प्रदूषित है, जिसमें 600 किलोमीटर का निचला हिस्सा तो प्रदूषण के संगीन दौर से गुजर रहा है। स्थिति यह है कि मूर्छित और मृतप्राय जीवन को समय-समय पर जीवन दान देती आ रही माँ भागीरथी का प्रवाह भारतभूमि से विलुप्त होने को है। भागीरथी की प्रचण्ड तपस्या आज प्रदूषण की शैतानी सामर्थ्यों के आगे कुँद पड़ गयी जान पड़ती है। परन्तु तपस्या की यह परम्परा मंद न पड़े इसलिए हमें संकल्पित होना होगा। हमें मुक्त मन से गंगा की सनातन राष्ट्रीय शक्ति और दिव्य आध्यात्मिकता के आलोक में उन सभी कुचक्रों, कुटिलताओं से सामने करने के लिए तत्पर, तैयार एवं सजग रहना होगा।

गंगा को प्रदूषित करने का अर्थ और परिणाम विकास नहीं विकार, संस्कृति नहीं विकृति, प्रकाश नहीं अंधकार, जीवन नहीं मृत्यु, गर्वोज्ज्वल परम्पराओं का नहीं पाप को प्रतिष्ठित और आमंत्रित करना है। गंगा पुरुषार्थ चतुष्टय अर्थात् धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष और ज्ञान, कर्म, भक्ति, वैराग्य की प्रेरक विग्रह है। हमारे लिए यह मात्र नदी नहीं माँ का शीतल आँचल है, सदेह, सजीव वात्सल्य है, दैवी अस्तित्व है। हमारा लोक जीवन उसमें पलता, बढ़ता तथा विकसित होता है। और वह माँ की तरह हमारा आश्रय है। गंगा भारतमाता का परिचय है। भारत का इतिहास है, त्रिकाल का प्रतिनिधि है और महाकाल का प्रसाद है। इसकी जलधारा में अपनी संस्कृति अविराम प्रवाहित होती रहती है। माँ गंगा को प्रदूषण मुक्त रखना हमारे लिए परम पुण्य एवं महापुरुषार्थ के समान है। ताकि आध्यात्मिक और साँस्कृतिक प्रतीक माँ गंगा अपने चरम पावनता में गतिमान-वेगमान रहे। इसी में हमारे समस्त भ्रष्टता-कलुषता के पाप धुलेंगे और नूतन साँस्कृतिक मूल्यों का पुनर्जागरण होगा।


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