इनसान बस अपने को जान ले

July 2003

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

बाबा फरीद यात्रा कर रहे थे। सवारी कोई थी नहीं, सो पैदल ही जाना हो रहा था। चलते-चलते दोपहर तप गयी। पलाश के वृक्षों पर फूल अंगारों की तरह चमकने लगे। उनके साथ एक व्यक्ति और था। उसकी जिज्ञासा ने ही उसे बाबा के साथ कर दिया था। बाबा के अनूठे व्यक्तित्व से प्रति पल-प्रति क्षण कुछ न कुछ अनूठा झरता था। इसकी छुअन से पास रहने वाले का अन्तःकरण अपने आप ही आध्यात्मिकता के स्पन्दनों से भर उठता था। बाबा फरीद की वाणी मुखर हो अथवा वे अपने नीरव मौन में डूबे हों, हमेशा ही उनके व्यक्तित्व से आध्यात्मिक फुहारें उठती रहती थीं।

अभी दोनों मौन चले जा रहे थे। रास्ता सुनसान था। बाँसों के घने झुरमुट की छाया बड़ी भली लग रही थी। वातावरण की नीरवता को बेधते हुए एक चिड़िया ने कोई मधुर गीत गाया। चिड़िया को गाते सुनकर बाबा के साथ चल रहे व्यक्ति को भी कुछ कहने की हिम्मत पड़ी। उसने बड़े धीमे स्वर में, थोड़ा सहमते, थोड़ा सकुचाते हुए पूछा, बाबा क्रोध को कैसे जीतें, काम को कैसे जीतें? बाबा के लिए ये सवाल नए नहीं थे। रोज ही लोग उनसे इस तरह की बातें पूछते रहते थे। इन पूछने वालों के मन में प्रायः एक कौतुक का भाव रहता था। पर इस व्यक्ति के चेहरे पर जिज्ञासा की स्पष्ट चमक थी। उसके अन्तःकरण की बेचैनी उसकी आँखों में साफ झलक रही थी।

उस व्यक्ति के अन्तःकरण की बेचैनी ने बाबा को द्रवित कर दिया। उन्होंने बड़े स्नेह से उस व्यक्ति का हाथ पकड़ा और बोले, तुम थक गए होगे। चलो बाँसों के झुरमुट की छाया में थोड़ा विश्राम कर लेते हैं। बाबा के वचनों से उस व्यक्ति के थके मन में किंचित विश्रान्ति मिली। दोनों छाया में बैठ गए। बैठने के बाद बाबा फरीद ने उससे कहा, बेटा! समस्या क्रोध और काम को जीतने की नहीं, उन्हें जानने की है। दरअसल न हम क्रोध को जानते हैं और न काम को जानते हैं। हमारा यह अज्ञान ही हमें बार-बार हराता है।

इन्हें जान लो तो फिर समझो की जीत पक्की है।जब हमारे अन्दर क्रोध प्रबल होता है, काम प्रबल होता है, तब हम नहीं होते हैं। हमें होश ही नहीं होता है। इस बेहोशी में जो कुछ होता है- वह तो एकदम मशीनी है। बिल्कुल यंत्र की भाँति हम किया करते हैं। बाद में जब होश आता है, तब केवल पछतावा बचता है। पर यह सब बेकार होता है। क्योंकि जो पछता रहा है, वह फिर से काम का तूफान, क्रोध की आँधी उठने पर दुबारा सो जाएगा।

बात तो तब बने जब वह फिर से सोये नहीं। होश-चैतन्यता बरकरार रहे। जागृति-सम्यक् स्मृति की भावदशा बनी रहे। ऐसा हो, तभी पता चलता है कि न तो क्रोध है और न काम है। याँत्रिकता टूट जाने पर जीतने-हारने का खेल ही खत्म हो जाता है। दुश्मन होते ही नहीं हैं।

बाबा की इन बातों को वह व्यक्ति धीरज से सुनता रहा और टुकुर-टुकुर बाबा के तेजस्वी मुख को देखता रहा। उसकी इस दृष्टि से बाबा फरीद को लगा, अभी बात ठीक तरह से उसे समझ में आयी नहीं।

बाबा मुस्कराए और बोले- बेटा, इसे तुम एक प्रतीक कथा के सहारे समझने की कोशिश करो। अँधेरे में पड़ी रस्सी साँप जैसी नजर आती है। इसे देखकर कुछ तो भागते हैं, कुछ उससे लड़ने की ठान लेते हैं लेकिन गलती दोनों ही करते हैं। अरे ठीक तरह से देखने पर पता चलता है कि वहाँ साँप तो है ही नहीं। बस जानने की बात है।

इसी तरह इन्सान को बस अपने को जानना ही होता है। अपने में जो भी है- उससे ठीक से परिचित भर होना है। बस फिर तो बिना लड़े ही जीत हासिल हो जाती है। स्व-चित्त के प्रति सम्यक् जागृति ही जीवन में विजय का मंत्र है।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118