आयुर्वेद-5 - प्रदर रोग निवारण हेतु यज्ञोपचार प्रक्रिया

July 2003

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

स्त्री रोगों में सर्वाधिक कष्टप्रद प्रदर रोग को माना गया है। अधिसंख्य महिलाएँ इस महाव्याधि से पीड़ित पाई जाती है, जिसके कारण उनका स्वास्थ्य और सौंदर्य, दोनों ही दिन-प्रतिदिन गिरते जाते हैं। समय पर चिकित्सा न होने और रोग पुराना होने पर अनेकानेक व्याधियाँ घेर लेती है और अंततः जानलेवा साबित होती है।

मिथ्या आहार-विहार, अस्वच्छता एवं असंयम के कारण प्रदर रोग उत्पन्न होता है। प्रदर रोग उत्पन्न होने के कारणों का उल्लेख करते हुए आयुर्वेद के चिकित्सा ग्रंथ ‘भावप्रकाश’ के अड़सठवें अध्याय ’स्त्रीरोगाधिकारः’ में कहा गया है-

विरुद्धमद्याध्यशनाद जीर्णाद् गर्भप्रषातादतिमैथुनाच्च। यानाध्वशोकादतिकर्षणाच्च भाराभिघाताच्छयनाद्दिवा॥

विरुद्ध आहार करने से, शराब पीने से, भोजन पर भोजन करने से, अजीर्ण होने से गर्भपात को जाने से अत्यधिक कामसेवन से, घोड़ागाड़ी आदि की अधिक सवारी करने से या इन पर चढ़कर अधिक तेज दौड़ने से, बहुत शोक करने से, अधिक मार्ग चलने से, अधिक उपवास करने से, अधिक भार ढोने से, चोट लगने से तथा दिन में अधिक सोने से महिलाओं को यह कष्टप्रद प्रदर नामक रोग होता है।

चरक संहिता के अनुसार प्रायः उन महिलाओं को प्रदर रोग होता है, जो अत्यधिक उत्तेजक आहार, नमकीन, चरपरे, खट्टे, प्रदाही, चिकने पदार्थ, माँस, मदिरा, खिचड़ी, खीर, दही, सिरका जैसे पदार्थों का सदा या ज्यादा सेवन करती है। वैद्य विनोद में उल्लेख है- मद्यातिपानम् अतिमैथुनगर्भपाताज्जीर्णध्वशोकग योग दिवाति निद्रा। स्त्रीणामसृग्दरो भवतीति..‐। अर्थात् अत्यधिक मद्यपान करने, अत्यंत कामसेवन करने, गर्भपात होने या बार-बार गर्भपात कराने, अजीर्ण-अपच होने, अधिक राह चलने, शोक करने, कृत्रिम विष का योग होने और दिन में अधिक सोने आदि कारणों से महिलाओं को असृग्दर अर्थात् प्रदर रोग होता है।

अन्यान्य आयुर्वेद ग्रंथों में भी प्रदर रोग की उत्पत्ति के संबंध में इसी प्रकार का उल्लेख मिलता है। उनके अनुसार विरुद्ध आहार-विहार, उपवास, दाह उत्पन्न करने वाले एवं उत्तेजक पदार्थ, भारी, कड़वे, अधिक खट्टे, नमकीन पदार्थ, माँसाहार, मद्यपान, बिजौरा आदि प्रदर रोग को बढ़ाते है। अश्लील साहित्य, अश्लील वार्तालाप, उत्तेजक दृश्यावलोकन, अत्यधिक रति, अंगों की अस्वच्छता आदि कितने ही कारण ऐसे हैं, जो इस रोग की अभिवृद्धि करते है।

प्रदर रोग के स्वरूप का निर्धारण करते हुए शास्त्र कहते हैं-रजः प्रदीयते यस्मात्प्रदरस्तेन स्मृतः अर्थात् रज को प्रक्षुब्ध करके दाह उत्पन्न करने वाले रोग को प्रदर कहते हैं। वस्तुतः यह गर्भाशय का रोग है, जिसमें उपयुक्त कारणों से दूषित रज आर्तवकाल या उसके बाद भी अनियमित रूप से अल्प या अत्यधिक मात्रा में स्रवित होता रहता है। इसकी चपेट में प्रायः हर आयु-वर्ग की स्त्रियाँ आ जाती हैं। बारह से बीस तक एवं पच्चीस से तीस वर्ष की अवस्था में यह रोग अधिक होता है। उपचार न होने पर बढ़ती आयु के साथ-साथ यह गंभीर रूप धारण कर लेता है। ऐसी स्थिति में जो शारीरिक कमजोरी, थकान, बेहोशी, रक्ताल्पता, हाथ-पैरों में जलन, दर्द, तंद्रा, भ्रम, व्यथा, संताप, बकवाद, तृष्णा, प्यास, मोह एवं बहुविधि वातव्याधि। कमर दर्द, अंगों का टूटना, शूल जैसी पीड़ा तो इस रोग में आम बात है।

आयुर्वेदशास्त्र के अनुसार प्रदर रोग चार प्रकार का होता है- तं श्लेष्मापित्तानिल सन्निपातैश्चतुष्प्रकारं प्रदरं वदन्ति। अर्थात् यह रोग कफज, पित्तज, वातज एवं सन्निपातज-त्रिदोषज- इस तरह चार प्रकार का होता है।

(1) कफज प्रदर

यह प्रायः भारी एवं गरिष्ठ पदार्थों का अत्यधिक सेवन करने, दूध, मैदा, ठंडा पानी, बासी भोजन, कुपोषण एवं तनाव आदि कारणों से कफ के कुपित होने पर उत्पन्न होता है। इसमें गाढ़ा, श्वेत, किंचित् पीले रंग का एवं चिपचिपा, भारी, चिकना, शीतल तथा श्लेष्ममिश्रित रक्तस्राव प्रायः हर समय होता रहता है, किंतु ऋतुकाल के पूर्व एवं बाद में अधिक मात्रा में होता है। इसे ही ‘श्वेत प्रदर’ कहते हैं। इसमें पीड़ा कम है। रोग पुराना होने पर वमन, अरुचि, श्वास - कास, तलपेद में भार, जंघाओं का भारीपन तथा खिंचाव, दुर्बलता, कब्ज सिरदर्द एवं शिरोभ्रम आदि उपद्रव उठ खड़े होते हैं।

पाश्चात्य चिकित्सा विज्ञान-एलोपैथी में कफज प्रदर को ‘ल्यूकोरिया’ कहते हैं। गर्भाशय की श्लेष्मिक झिल्ली में शोथ उत्पन्न होने या संक्रमण होने के कारण यह रोग उत्पन्न होता है। विवाहित-अविवाहित एवं सभी आयु वर्ग की महिलाओं में यह रोग पाया जाता है।

(2) पित्तज प्रदर

इसे रक्त प्रदर भी कहते हैं। यह रोग अधिकतर उन महिलाओं को होता है, जो नमकीन खट्टे, खारे और गरम पदार्थों का अत्यधिक सेवन करती हैं। इससे पित्त प्रकुपित होता है और गर्भाशय की सूक्ष्म नलिकाओं में रक्त की अधिकता पैदा कर पित्तज या रक्त प्रदर उत्पन्न करता है। इसमें पीला, नीला, काला, लाल, और गरम खून अनियमित रूप से पीड़ा के साथ निकलता रहता है। रक्त प्रदर के कारण रोगिणी की हथेलियों और पैर के तलुवों में जलन, आँखों में जलन, कब्ज, रक्ताल्पता शरीर में पीलापन, दुर्बलता, चक्कर आना, आँखों के आगे अँधेरा छा जाना, अधिक प्यास लगना, कमर दर्द, स्वभाव में चिड़चिड़ापन, बुखार आदि लक्षण प्रकट होते हैं।

पाश्चात्य चिकित्साविज्ञानी पित्तज प्रदर को ‘मेट्रोरेजिया’ और ‘मेनोरेजिया’ नाम से संबोधित करते हैं। ऋतुकाल के प्रथम चार-पाँच दिन में आर्तव स्राव के साथ अधिक रक्त निकलना ‘ मेनोरेजिया’ एवं आर्तवकाल के बाद भी निरंतर या रुक-रुक कर अधिक मात्रा में रक्त का निकलते रहना ‘मेट्रोरेजिया’ कहलाता हैं। वस्तुतः यही रक्त प्रदर है। इसके कई कारण माने जाते हैं, जैसे-गर्भाशय तंत्र का संक्रमण, ट्यूमर या शोथ, गर्भाशय स्थान भ्रंश, रक्तसंवहन तंत्र का दोष, हृदय या गुरदे की बीमारी, ब्रौंकाइटिस, तंत्रिका तंत्र के विकार, अंतःस्रावी ग्रंथियों का अधिक रसस्राव आदि। ‘मेनोरेजिया’ बहुधा अधिक विषय-सेवन से या अधिक गरम जल से स्नान करने से अथवा अधिक मानसिक श्रम करने आदि कारणों से उत्पन्न होता है, जबकि मेट्रोरेजिया गर्भाशय की आँतरिक गड़बड़ियों के कारण उत्पन्न होता है। यह रोग, अधिकतर तीस वर्ष की आयु के बाद होता है।

(3) वातज प्रदर या कष्टार्तव

एलोपैथी चिकित्सा विज्ञान में इसे ‘डिसमेनोरिया’ कहते हैं। इसमें आर्तवकाल के समय रूखा, कालिमा लिए, हुए लाल, झागदार एवं माँस के धोवन के रंग का थोड़ी-थोड़ी मात्रा में रक्तस्राव होता है। उस समय वायु की प्रबलता के कारण कमर, हृदय, वक्ष, पसली, श्रोणिभाग आदि स्थानों में सुई चुभाने जैसी तीक्ष्ण पीड़ा होती है। दर्द के मारे रोगिणी का बहुत बेचैनी होती हैं और कई बार तो वह बेहोश तक हो जाती है। एनीमिया (रक्ताल्पता), क्लोरेसिस, रिह्यूमेटिक या गाँउटी आर्थ्राइटिस, न्यूरेलजिया, नासिका, विकार, न्यूरेस्थीनिया एवं जननेंद्रियात्मक आदि कई कारणों से डिसमेनोरिया अर्थात् कष्टार्तव उत्पन्न होता हैं गर्भाशय का विकृत विकास एवं रचनात्मक विकार इस रोगोत्पत्ति का प्रमुख कारण है।

(4) त्रिदोषज या सन्निपातज प्रदर

यह वात, पित्त, एवं कफ- तीनों दोषों के प्रकुपित होने से उत्पन्न होता है। इसमें शहद, घी, हरताल के समान रंग वाला, गरम, मज्जा के समान एवं सड़े हुए मुरदे के समान बदबूदार, लिबलिबा, पीला व जला हुआ-सा रक्त हमेशा निकलता है। इसके कारण रोगिणी के शरीर में रक्त की कमी हो जाती है। फलतः दुर्बलता, थकावट, चक्कर आना, मदात्यता, अत्यधिक प्यास, जलन, प्रलात, शरीर में पीलापन, तंद्रा बुखार एवं अनेकानेक वात व्याधियाँ घेर लेती हैं। प्रदर की यह स्थिति अत्यंत कष्टदायक एवं प्राणघातक होती है। अतः समय रहते इन सभी प्रकार के प्रदर रोगों की शीघ्र चिकित्सा की जानी चाहिए, अन्यथा बाद में पश्चात्ताप ही हाथ लगता है।

आयुर्वेद-ग्रंथों में प्रदर रोग के निवारणार्थ विभिन्न प्रकार के उपाय-उपचारों एवं योग-प्रयोगों का विस्तृत वर्णन किया गया है। ये सभी प्रयोग-उपचार अनुभवी एवं निष्णात चिकित्सकों के मार्गदर्शन में किए जाएँ तो अत्यंत लाभकारी सिद्ध होते हैं। यहाँ पर इस संदर्भ में दी जा रही यज्ञोपचार प्रक्रिया सर्वाधिक निरापद, सर्वसुलभ एवं सर्वोपयोगी हैं इसे हर कोई स्वयं एकाकी या सामूहिक रूप से संपन्न कर सकता हैं और स्थायी एवं शीघ्र स्वास्थ्य लाभ प्राप्त कर सकता है। यहाँ ल्यूकोरिया अर्थात् श्वेत प्रदर एवं मेट्रोरेजिया अर्थात् रक्त प्रदर की यज्ञ चिकित्सा का वर्णन किया जा रहा है।

(1) ल्यूकोरिया अर्थात् श्वेत प्रदर की विशेष हवन सामग्री

इस विशिष्ट हवन सामग्री को निम्नांकित वनौषधियों को मिलाकर बनाया जाता है-

(1) धाय फूल, (2) मोथा, (3) शतावर, (4) अश्वगंधा, (5) गिलोय, (6) एरंडमूल, (7)चिकनी सुपारी, (8) चिरायता, (9) कुश (डाभ), (10) पाढ़ल, (11) अंजीर, (12) कठूमर, (13) गूलर कर छाल या फल, (14) शिवलिंगी के बीज (15)जटामाँसी,(16) अशोक की छाल,(17)उलट कंबल, (18) बिल्वगिरी, (19) श्वेत कमल, (20) कमल केशर,(21) लोध्र, (22) आँवला, (23) हरड़, (24) नाग केशर, (25)श्वेत चंदन, (26) करंज बीज की गिरी,(27) राल,(28) कुड़ा छाल, (29) शीतल चीनी, (30) साल की छाल, (31) कड़वी तूँबी (लौकी) के पत्ते, (32) कपास की जड़ व ग्रोद (कतीरा), (33) जिया पोता,(34) तालमखाना या तुकमलंगा, (35) बबूल की फली, (36) रक्त राहिड़ा, (37) पटसन के फूल,(38) सागवन की छाल,(39) देवदार, (40) पुनर्नवा, (41) सोंठ, (42) मुलहठी (मधुहठी), (43) दारुहलदी, (44) ढाक की छाल एवं गोंद (45) अपामार्ग, (46) काँटा चौलाई की जड़, (48)−किचनार, (50) भिंडी की जड़,(51) माजूफल, (52) सुगंधवाला,(53) पीपल की छाल,(54) काकजंघा एवं (55) अनार के सूखे फल।

उपर्युक्त चीजों को समभाग लेकर कूट-पीसकर जौकुट पाउडर बना लेते हैं। इस जौकुट पाउडर को एक बड़े डिब्बे में रखकर उस पर ‘क्रमाँक-2’ का लेबल लगा देते हैं। श्वेत प्रदर की विशेष हवन सामग्री तैयार होने के पश्चात् पहले से तैयार की गई ‘कॉमन हवन सामग्री क्रमाँक-1’ की बराबर मात्रा मिलाकर सूर्य गायत्री मंत्र से नित्यप्रति कम-से-कम चौबीस आहुतियाँ डालते हैं। ‘कॉमन हवन सामग्री क्रमाँक-1’ को अगर, तगर, चंदन, लाल चंदन, गूगल, जायफल, लौंग, चिरायता, अश्वगंधा, गिलोय एवं देवदार की बराबर मात्रा डालकर जौकुट करके बनाया जाता है। उपर्युक्त वर्णित 55 चीजों में से अधिक-से-अधिक जितनी औषधियाँ उपलब्ध हो सकें, उनसे प्रयोग-उपचार आरंभ कर देना चाहिए। सभी उपलब्ध हों तो अत्युत्तम है

हवन करने के साथ-ही-साथ उपर्युक्त 55 वनौषधियों से निर्मित ‘क्रमाँक-2’ के जौकुट पाउडर में से 50 ग्राम पाउडर लेकर उसका क्वाथ बनाकर नित्य सुबह, शाम रोगिणी को पिलाते रहना चाहिए। क्वाथ बनाते समय उसमें निम्न चीजें और मिला लेनी चाहिए-

(1) खून खराबा (एक तरह की गोंद)-2 रत्ती, (2) सोना गेरू-2 ग्राम, (3) भुनी हुई फूली फिटकरी-2 रत्ती, (4) रसोत-1 ग्राम, (5) मोच रस-1 ग्राम, (6) अतीस-1 रत्ती, (7) चोप-1 रत्ती।

उक्त सभी 55 औषधियों के 50 ग्राम मात्रा के सम्मिश्रित चूर्ण के साथ ही यह सातों चीजें निर्धारित मात्रा में मिलाकर सायंकाल स्टील के एक भगोने में एक लीटर पानी में भिगो देनी चाहिए। सुबह इसे मंद आँच पर चढ़ाकर क्वाथ बनाना चाहिए। चौथाई मात्रा में रहने पर उसे उतारकर ठंडा होने पर बारीक कपड़े से छान लेना चाहिए और आधी मात्रा सुबह एवं आधी मात्रा शाम को रोगी को पिलाते रहना चाहिए।

(2) मेट्रोरेजिया अर्थात् रक्त प्रदर की विशेष हवन सामग्री

रक्त प्रदर में अधिकाँश औषधियाँ श्वेत प्रदर में प्रयुक्त होने वाली ही डाली जाती हैं, किंतु पित्तज प्रकृति होने एवं रक्ताधिक्य की बहुलता के कारण कुछ अन्य महत्वपूर्ण वनौषधियाँ भी डाली जाती हैं। रक्त प्रदर में प्रयुक्त होने वाली विशेष हवन सामग्री में निम्नाँकित चीजें मिलाई जाती हैं-

(1) शिवलिंगी के बीज, (2) उलट कंबल, (3) धाय फूल, (4) अर्जुन छाल, (5) लाल चंदन, (6) श्योनाक, (7) उषवा, (8) अडूसा (वासा), (9) चिरायता, (10) आम की गुठली, (11) जामुन की गिरी, (12) कमल केशर, (13) दूर्बा, (14) नाग केशर, (15) बहुफली, (16) खस, (17) मंजीष्ठ, (18) छोटी इलायची, (19) मीठा कूट, (20) शरपुखा, (21) सेमर के फूल व गोंद (मोचरस), (22) हल्दी, (23) दारुहलदी, (24) माजूफल, (25) लाख, (26) पऽख, (27) बलामूल, (28) कुश की जड़, (29) आँवला, (30) हरड़, (31) सुगंध वाला (32) देवदार, (33) सोंठ, (34) नीम छाल, (35) गुलाब के फूल, (36) लोध्र, (37) अतिबला, (38) शतावर, (39) अश्वगंधा, (40) गिलोय, (41) एरंड मूल, (42) चिकनी सुपारी, (43) अशोक छाल, (44) बिल्वगिरी, (45) मुलहठी, (46) ढाक की छाल व गोंद (कमरकस) (47) अपामार्ग, (48) काँटा चौलाई की जड़, (49) कठूमर, (50) जटामाँसी, (51) पाकर, (52) पुनर्नवा, (53) बादाम, (54) साल की छाल, (55) गुँजामूल एवं (56) छुआरे की गुठली।

उपर्युक्त सभी 56 चीजों में से अधिक-से-अधिक जितनी उपलब्ध हो सकें, उन्हें बराबर मात्रा में लेकर जौकुट पाउडर बना लेना चाहिए और उस पर ‘रक्त प्रदर की विशेष हवन सामग्री क्रमाँक-2’ का लेबल लगाकर अलग डिब्बे में रख लेना चाहिए। हवन करते समय श्वेत प्रदर में वर्णित ‘कॉमन हवन सामग्री क्रमाँक-1’ को भी बराबर मात्रा में मिलाकर तब हवन करना चाहिए। हवन करने का मंत्र सूर्य गायत्री मंत्र ही रहेगा अर्थात् ‘ ॐ भूर्भुवः स्वः भास्कराय विऽहे, दिवारकराय श्रीमहि। तन्नः सूर्यः प्रचोदयात्।’

हवन करने के साथ-ही-साथ उक्त 56 चीजों (हवन सामग्री क्रमाँक-2 में वर्णित) के सम्मिलित पाउडर में से 50 ग्राम पाउडर लेकर पूर्व वर्णित क्वाथ की तरह काढ़ा बनाकर नित्यप्रति सुबह-शाम व्याधि पीड़ित महिला को पिलाते रहना चाहिए। क्वाथ बनाते समय उसमें भी खूनखराबी, सोना गेरू, तवे पर फूली हुई फिटकरी, रसोत, मोचरस, अतीस और चोप चीनी का चूर्ण निर्धारित मात्रा में मिला लेना चाहिए। काढ़ा या क्वाथ पीते समय उसमें अगर समभाग में चावल का माँड़ (स्टार्च) मिला लिया जाए तो रोग निवारण के साथ ही शरीर को पोषण भी मिलता है और क्वाथ के औषधीय गुणों में गुणात्मक रूप से अभिवृद्धि होती है।

प्रदर रोग मुख्य रूप से आहार-विहार की गड़बड़ी, असंयम एवं अस्वच्छता के कारण उत्पन्न होता है। अतः उसका निदान भी तदनुरूप ही हो सकता है। आलू, चावल, मधुर द्रव्यों का सर्वथा परित्याग करना, खटाई, नींबू, दही, टमाटर, अचार, ठंडे पेय पदार्थों से बचना, संयमित एवं मर्यादित जीवनचर्या, आँतरिक स्वच्छता आदि का पालन करते हुए यज्ञोपचार प्रक्रिया अपनाई जाए तो आयुर्वेद की इस विधा के माध्यम से सुनिश्चित रूप से आशातीत सफलता मिलती है।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118