एक वृद्ध तीर्थयात्रा पर तीन वर्ष के लिए निकला। चारों बेटों को बुलाकर अपनी जमा पूँजी उनके हाथों सौंप दी। कहा, "लौटने पर ले लूँगा। न लौटूँ तो तुम्हारी।" उन चारों को सौ-सौ रुपये सौंप गए।
एक ने उन्हें सुरक्षित रख लिया। दूसरे ने उन्हें ब्याज पर उठा दिया। तीसरे ने रुपयों को शौक-मौज में उड़ाया। चौथे ने उनसे व्यवसाय करना आरंभ कर दिया।
तीन साल बाद बूढ़ा लौटा और धरोहर वापस माँगी। एक ने ज्यों-की-ज्यों लौटा दी। दूसरे ने थोड़ी-सी ब्याज भी सम्मिलित कर दी। तीसरे ने खरच कर देने की कथा सुनाई और मजबूरी बताई। चौथे ने व्यवसाय किया, मूलधन चौगुना करके लौटाया।
उस वृद्ध ने चौथे की सबसे अधिक प्रशंसा की और उसे अपना उत्तराधिकारी बनाया। इसके बाद उसकी बुद्धिमानी सराही गई, जिसने कम-से-कम ब्याज तो कमाया।
वृद्ध ने सबको समझाते हुए कहा, "रुपये को ब्याज पर चलाने या व्यवसाय में लगाने से वह बढ़ सकता है, यह सबको पता है, परंतु उसके लिए प्रयास-पुरुषार्थ वही कर सकता है, जो अपने स्वार्थ से ऊपर उठकर पारिवारिक उत्तरदायित्वों का पालन करना सीखता है। परिवार में रहकर भी यह भाव विकसित न कर सकने से बुद्धि के उपयोग की उमंग भी नहीं उभरती। तुम्हारी यही परीक्षा लेने के लिए मेरी तीर्थयात्रा नियोजित थी।"