अपनों से अपनी बात - कलातंत्र को परिष्कृत कर अब नई दिशा देनी है।

July 2003

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परमपूज्य गुरुदेव ने मई, 1970 की अखण्ड ज्योति में लिखा है कि अगले दिनों गायत्री परिवार महान प्रयोजनों के लिए भावना की शक्ति से एकत्र धन-संपदा का नियोजन करेगा। वे लिखते हैं, “(1) अगले दिनों हमें एक महान क्राँतिकारी शिक्षा योजना का शिलान्यास, संगठन और प्रसारण करना है, उसके लिए विश्वविद्यालय स्तर का एक समर्थ तंत्र खड़ा करना है। (2) कला की कामुक एवं विनाशोन्मुख प्रवृत्तियों को मोड़कर उसे एक नई दिशा देनी है। साहित्य, संगीत, काव्य, चित्र, अभिनय आदि कला के सभी पक्षों का परिष्कार कर उसे विनाश के चंगुल से विमुक्त कर विकास में नियोजित करना है। फिल्म उद्योग को भी नई दिशा दी जानी है। (3) हिन्दु समाज में जिस प्रकार धर्ममंच के माध्यम से हम क्राँतिकारी परिवर्तन कर रहे हैं, उसी प्रकार अन्य धर्मों के लिए ‘उद्देश्य एक पर स्वरूप अनेक’ का प्रयोग करना है। (4) अनीति और अनाचार, मूढ़ता और मूर्खता तथा कुरीतियों के विरुद्ध व्यापक संघर्ष-मोरचे खोलने हैं, जिनमें विवाहोत्सव से लेकर अपराधी मनोवृत्ति तक हर मोरचे पर शाँति सैनिकों द्वारा जूझना है। इसलिए विरोध, सहयोग, सत्याग्रह से लेकर घेराव तक के हर अस्त्र को काम में लाया जाना है।”

चार मोरचों पर लड़ने वाली इस चतुरंगिणी सेना की चर्चा करते हुए पूज्यवर आगे लिखते हैं, “एक नया युद्ध हम लड़ेंगे। परशुराम की तरह लोक-मानस में जमी हुई अवाँछनीयता को विचार अस्त्रों से काटेंगे। सिर काटने का मतलब विचार बदलना भी है। परशुराम की पुनरावृत्ति हम करेंगे। इस युग का सबसे बड़ा और अंतिम युद्ध हमारा ही होगा, जिसमें भारत एक देश न होगा, महाभारत बनेगा और उसका दार्शनिक साम्राज्य विश्व के कोने-कोने में पहुँचेगा। निष्कलंक अवतार यही है। सद्भावनाओं के चक्रवर्ती सार्वभौम साम्राज्य जिस युग अवतारी, निष्कलंक भगवान द्वारा होने वाला है, वह और कोई नहीं, विशुद्ध रूप में अपना युग निर्माण आँदोलन ही है।”

कलातंत्र का परिष्कार

परमपूज्य गुरुदेव की इस चतुरंगिणी सेना के चार मोरचों में से प्रथम की चर्चा विगत अंक में हो चुकी। इस अंक में हम दूसरे कलापक्ष को ले रहे हैं। पूज्यवर लिखते हैं कि हमें नए कलाकार उत्पन्न करने चाहिए। ऐसे चित्रकार, जो मनुष्य की कोमल भावनाओं को उभारने वाली सात्विकता एवं उदात्त अभिव्यंजना मूर्तिमान कर सकें, युग निर्माण की सेना में भरती होने चाहिए। ऐसे चित्र

विष परोसने वाला तंत्र अमृत संजीवनी भी देगा

प्रकाशक और फिल्म निर्माता चाहिए, जो नारी को कुत्सित, घृणित, विषाक्त, अश्लील रूप में प्रस्तुत न करने की शपथ लें और केवल सुरुचि जगाने वाली तस्वीरें ही प्रस्तुत करें। वे ही युग की आवश्यकता को पूर्ण कर सकेंगे।

वे आगे यह भी कहते हैं कि हमें ऐसे साहित्यकार और कवि चाहिए, जिनकी लेखनी सृजनात्मक हो। कल्पना ने कसम खाई हो कि पशुता को उभारने और मनुष्यता को गिराने के लिए कलम से एक अक्षर भी न लिखने देगी। यदि सामाजिक और मानसिक गुलामी के बंधनों में बँधी अनैतिकता की अभ्यस्त आज की कुत्सित विचारणा के प्रति केवल विद्रोह के स्वर गाए जाएँ, लेखनी द्वारा आग उगली जा सकती है। नए युग का निर्माण ईंट-चूने से नहीं, लोकचिंतन की दिशा बदलने से ही होगा यह कार्य लेखक, कवि और प्रकाशक की त्रिमूर्ति ही करेगी। पुस्तक प्रकाशकों का संघ कसम खाए कि हम लोग जनमानस को विकृत करने वाला, अंधविश्वास, अनाचार एवं कुत्सा भड़काने वाला साहित्य नहीं छापेंगे। पुस्तक विक्रेताओं की पंचायत यह फैसला करे कि गोमाँस की तरह पतनोन्मुख साहित्य बेचकर भ्रष्ट कमाई करने की अपेक्षा भूखे सो जाना या घास बेचकर पेट भरना अच्छा समझेंगे। साहित्य सृजन, प्रकाशन और विक्रय की गंगा-यमुना सरस्वती यदि लोक-मंगल की दृष्टि अपना लें तो उस तीर्थराज में स्नान करके अपना कोढ़ी समाज कायाकल्प करने में समर्थ हो सकता है।

कितने ओजस्वी स्वर हैं। चित्रकारों, कलाकारों, लेखनी के धनी तथा प्रकाशकों के लिए चुनौती भरे हैं। यदि यह वर्ग सँभल जाए तो समाज में छाया सांस्कृतिक प्रदूषण दूर किया जा सकता है। नारी को भोग्य, रमणी का स्वरूप इनने ही तो दिया है। यदि इनकी दिशा सही हो जाए एवं सत्साहित्य, सही कला जन-जन तक पहुँचने लगे तो एक क्राँति ही हो जाए। परमपूज्य गुरुदेव उन्हीं हिला देने वाले स्वरों में गायन, वादन, अभिनय से जुड़ी संस्थाओं से भी कहते है।

गायन, वादन एवं अभिनय

तीनों ही शक्ति संस्थाएँ सरस्वती, लक्ष्मी और दुर्गा का रूप धारण करके जनमानस में नंदन वन का सृजन कर सकती हैं। आज गायन, वादन, अभिनय, तीनों ने कामुकता, अश्लीलता, शृंगार और वासना उभारने में अपने को केंद्रिय करके रखा है। यदि यह एक सीमा तक उचित भी हो, तो भी वह अनीति की सीमा में हजारों-लाखों किमी. आगे जा चुका है। (पाठक ध्यान दे, यह सब पूज्यवर ने जुलाई, 1970 में कहा है, जबकि टेलीविजन, सीरियल्स, चित्रहारों केवल टीवी आदि का जन-जन में प्रवेश नहीं हुआ था। उसके बाद तो तैंतीस वर्ष में हालत क्या-से-क्या हुई है, तभी जानते है।) जो सुनाई और दिखाई पड़ता है, उसमें कामुकता भड़काने वाले तत्वों के अतिरिक्त और कुछ शेष ही नहीं है-जो गाता है कामुक, जो बजाता है कामुक, जो लिखा है कामुक जनमानस की पशुता को उभारकर सस्ती वाहवाही और दौलत हड़प लेने की हवस इस क्षेत्र में आकाश-पाताल छूने की होड़ में लगी है। अब इस अंधी दौड़ पर प्रतिबंध लगना चाहिए। गाए जाने के लिए शृंगार के अतिरिक्त अन्य रस भी शेष है। वे एक कोने में पड़े सड़ रहे है। अब उन्हें भी सहारा मिलना चाहिए। शृंगार को कुछ समय पूर्ण विश्राम लेने दिया जाए।

आगे वे लिखते हैं कि अपना देश हजार वर्ष की गुलामी में एक-से-एक बड़े और गहरे घाव सहता चला आ रहा है। अब उसे ऐसे दीपक राग सुनाए जोन चाहिए। जिससे बुझे हुए अंतःकरण ज्योतिर्मय हो उठें अब ऐसे मेघ मल्हार गाए जाने चाहिए। जिससे मानवीय आदर्शों की मेघमालाएँ उभरें और अपनी घनघोर वर्षा से इस तप्त-तृषित भूमि भूमि पर सर्वत्र हरियाली उगा दें। अभिनय केवल दिशा दे। कर्त्तव्य-पथ से विमुख हो रहे चिंतन को सृजन का नया मार्ग मिले और बौद्धिक पराधीनता के बंधनों से जकड़ी हुई विचारणा को विवेक के उन्मुक्त आकाश में विचरण करने की संभावना बढ़ चले। फिल्म उद्योग में लगी पूँजी और प्रतिभाएँ यदि पशुता भड़काकर जेब भरने की दुरभिसंधि से बाज न आएँ तो उनकी प्रतिद्वंद्विता में नया मोरचा खड़ा किया जा सकता है। प्रगतिशील फिल्म उद्योग को जन्म दिया जाए, इसके लिए अब ठीक समय आ गया। नए कलाकार उत्पन्न किए जाएँ। सभी कुछ स्वयंसेवक स्तर पर हो। पूँजीपति आगे न आएँ तो सहकारिता के आधार पर उस उद्योग का सृजन किया जाए। चलते-फिरते सिनेमा खुलें और देहाती क्षेत्रों में लागत खर्च निकालकर मनोरंजन के साथ-साथ सृजन को दिशा प्रदान करें। नाटकों, रास मंडलियों को सामयिक स्तर पर नया रूप दिया जाए।

आज की स्थिति और नूतन चिंतन

निश्चित ही लोक-मंगल हमारी गुरुसत्ता का लक्ष्य रहा व वे जीवनभर इसके लिए प्रयास करते रहे। 1970 में दिए गए उनके उपर्युक्त चिंतन के बाद कितना परिवर्तन आया, इससे सब वाकिफ है॥ विगत तैंतीस वर्ष में वह बदलाव आया है, जो विगत डेढ़ सौ वर्षों में भी नहीं आया था। वीडियो, डिजिटल टेक्नोलॉजी, उपग्रह-प्रसारण, ढेर सारे चैनल्स का प्राकट्य एवं घर-घर में उस प्रसारण का पहुँचना विज्ञान के आविष्कार ने सरल बना दिया है। जिस प्रसारण से सकारात्मक चिंतन मिलना था, उसने अब स्वयं को मात्र मनोरंजन तक, विषय सेवन, उपभोग में ढेर सारे चैनल्स उपलब्ध हैं। कारगिल युद्ध ऐसा था, जिसका एक प्रकार से युद्ध संवाददाताओं ने सजीव प्रसारण किया हो, ऐसा कहा जाए तो कोई अत्युक्ति न होगी। ईराक पर अमेरिका के आक्रमण को भी अभी चैनल्स ने सजीव दिखाया। कुछ भी गोपनीय नहीं रह गई है। इस खुले प्रजातंत्र में हर क्षण हर व्यक्ति तक वह पहुँच रहा है, जिसका संभवतः वह सुपात्र नहीं है। विभिन्न चैनल्स ने जिस हिंदी को जन्म दिया है, वह हिंदी व इंग्लिश का समन्वय हिंग्लिश कहा जाए तो अतिशयोक्ति न होगी।

समाचार, फिल्में चौबीस घंटे, अश्लीलता से भरे नाच-गाने चौबीस घंटे। यदि यही सब आम आदमी को मिलता रहा तो नई पीढ़ी का मानसिक, भावनात्मक विकास क्या होगा, सोचा जा सकता है। परमपूज्य गुरुदेव ने जिस चुनौती का वर्णन कलाक्षेत्र के विषय में किया है, वह अब दो सौ गुनी अधिक जिम्मेदारी के साथ आ खड़ी हुई है। चैनल्स ने धर्मक्षेत्र में भी प्रवेश कर लिया है। चार चैनल्स चौबीस घंटे धर्म के जिस स्वरूप को प्रदर्शित कर रहे हैं, उससे लगता है कि सभी को परिष्कृत धर्म का सही स्वरूप पढ़ाने हेतु जबरदस्ती प्रेरित करना होगा। हर कोई आकर हर किसी विषय पर अनगढ़ ढंग से प्रवचन-कथा कर रहे हैं या नाच-गाकर वह स्वरूप दिखा रहे हैं, जिसे देखने के बाद आज की युवा पीढ़ी धर्म का कभी नाम भी नहीं लेगी।

प्रतिभाएँ कला के साथ विज्ञान का रचनात्मक नियोजन करें

अब सारी जिम्मेदारी आज के उस प्रतिभाशाली वर्ग पर है, जो विज्ञान के इन आविष्कारों का रचनात्मक नियोजन कर सके। साथ ही कंप्यूटर्स (पावर पॉईंट), स्लाइड प्रोजेर्क्टस के द्वारा लोक-शिक्षण, मल्टीमीडिया से वह सब दिखाना जो पहले विभिन्न साधनों द्वारा दिखाया जाता था तथा श्रेष्ठ धारावाहिकों का प्रचलन जिनमें दाँपत्य जीवन के निर्माण की बात हो तथा युवाशक्ति का मार्गदर्शन हो। साक्षरता-विस्तार, पर्यावरण के प्रति जागरुकता, स्वास्थ्य-संवर्द्धन, योग-चिकित्सा, ध्यान का व्यावहारिक पक्ष, स्वच्छता, ग्रामों का आपदा प्रबंधन तथा स्वावलंबन की सफलता की कहानियाँ भी प्रचलित की जा सकती हैं। इन सबके लिए कम्प्यूटर, सस्ते स्लाइड प्रोजेक्टर, टेप रिकॉर्डर्स, ओवरहेड प्रोजेर्क्टस (व्भ्च् डडडडडड ), टीवी स्क्रीन, वीसीडी प्लेयर्स तथा केबल नेटवर्क का आश्रय लिया जाता है। लोक कलाओं को जिंदा करने तथा उनके आकर्षण को यथावत् बनाए रखने का भी प्रयास होना चाहिए। सारा विश्व बाजारवाद से हटकर हाट-गाँव की संस्कृति की ओर लौट रहा है। हम चाहें तो युगगायन, लोककला, लोकनृत्य व नुक्कड़ नाटकों , आँचलिक प्रहसनों के द्वारा पर्यटन को भी बढ़ावा दे सकते हैं तथा इनसे जुड़े कलाकारों को भरण-पोषण भी दिला सकते हैं। आज भी लोग सत्साहित्य की चाह रखते हैं। स्थान-स्थान पर उनकी साहित्य प्रदर्शनी लगें तो देखते-देखते लोगों की रुचि बदली जा सकती है। कवि सम्मेलन भी आयोजित हों, मुशायरे भी, परंतु उनका स्वरूप सौम्य, सात्विक हो। पुरातन गायन पद्धतियाँ, वाद्ययंत्र फिर नए रूप में प्रस्तुत किए जा सकते हैं। जिस रुचि के साथ आज की पीढ़ी पॉप या जॉज पर थिरकती है, पुनः इन धुनों को आत्मसात कर सकेगी, इस पर विश्वास किया जा सकता है।

एक छोटा प्रयास व भावी संभावनाएँ

शाँतिकुँज, हरिद्वार ने ‘युग प्रवाह’ पाक्षिक वीडियो पत्रिका (अब तक 34 संस्करण निकल चुके) द्वारा एक अभिनव शुरुआत की है। यह देशभर के अपने कार्यकर्ताओं द्वारा लगभग छह से आठ करोड़ लोगों को नियमित दिखाई जा रही है। इसमें आज की परिस्थितियों को जोड़कर जिज्ञासाओं के समाधान से लेकर सार्थक सफलता की कथाओं से भरे समाचार भी होते हैं, युगगायन भी तथा लोकरंजन का विधेयात्मक स्वरूप भी। इसकी लोकप्रियता भी तेजी से बढ़ी है। आध्यात्मिक स्तर पर नवजागरण आया है एवं शाँतिकुँज से अपेक्षाएँ भी बढ़ी हैं। देवसंस्कृति विश्वविद्यालय में भी इलेक्ट्रॉनिक मीडिया, मास कम्युनिकेशन, जर्नलिज्म की विधाएँ आरंभ की जा रही हैं।

आगे चलकर ‘गायत्री महाविद्या’ पर एक चलचित्र तथा ‘युग निर्माण’ पर एक धारावाहिक शृंखला बनाने का मन है। इससे जन-जन को सप्तसूत्री आँदोलनों में-युग के नवनिर्माण की प्रक्रिया में भागीदारी करने का अवसर मिलेगा। इसके साथ-साथ प्रदर्शनी के माध्यम से लोक-शिक्षण का माध्यम जो रहा है, उसे अपने चार हजार से अधिक केंद्रों के द्वारा और अधिक व्यापक बनाने का मन है। छपी हुई प्रदर्शनियों द्वारा बाजार-हाट, मेलों तथा सुदूर ग्रामों तक उनकी भाषा में संदेश पहुँचाया जा सकता है। चैनलों की भीड़ में खड़े होने की न हमें जरूरत है, न आर्थिक दृष्टि से इस योग्य हम हैं। जब उपभोक्तावादी विज्ञापन-प्रधान समाज के साथ नहीं चल रहे तो उनकी तरफ मुँह ताककर चैनल का तंत्र कैसे खड़ा किया जाए। अपना परिवार स्वयं में इतना बड़ा है कि वह जनचेतना जगाकर लोगों की, चलचित्र व धारावाहिक निर्माताओं की रुचि को बदल सकता है। आदर्शवादी निर्माण हेतु प्रेरित कर सकता है। हमें कलातंत्र को व्यवस्थित ढंग से आगामी दो वर्ष में एक नर्द दिशा देनी है। इस क्षेत्र से जुड़ी प्रतिभाओं को शाँतिकुँज के तंत्र से जोड़ना है। कोई कारण नहीं कि प्रयास किया जाए तो अधोगामी प्रवाह को ऊर्ध्वगामी न बनाया जा सके। पूज्यवर ने जो चुनौती दी है, वह हम सब के लिए है, हमीं को पूरी करनी है एवं इस सकारात्मक माध्यम से युग निर्माण योजना के लक्ष्य को निश्चित ही पूरा करना है।


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