चेतना की शिखर यात्रा-17 - सिद्धि के मार्ग पर संकल्प-1

July 2003

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काशी का अधिवेशन

1924-26 और आस-पास के वे वर्ष भारतीय समाज में मंथन के वर्ष थे। विदेशी दासता से मुक्ति की आकाँक्षा तो समाज में जन्म ले ही रही थी, अपनी ओढ़ी हुई गुलामियों और विकृतियों से छुटकारे के लिए भी सामूहिक चेतना कसमसा रही थी। पिछड़ी और दलित जातियों को न मंदिर जाने का अधिकार था, न पढ़ने-लिखने का। वे सार्वजनिक कुओं से पानी नहीं भर सकते थे। अपने से ऊँची जाति वालों के साथ बैठ नहीं सकते थे, उनके सामने सिर उठाकर चलना दंडनीय अपराध था। भारतीय समाज की दुर्दशा के कारणों की मीमाँसा करते हुए महामना मदनमोहन मालवीय, स्वामी श्रद्धानंद, राजेन्द्र प्रसाद आदि कहने लगे थे कि अछूतों और दलितों को गले लगाएँगे, तभी हिंदू समाज मजबूत होगा। अलग-अलग खानों में बँटा समाज स्वतंत्र नहीं हो सकता। स्वतंत्र हो जाए तो देर तक उसकी रक्षा नहीं कर सकता। महात्मा गाँधी तो इस मुद्दे को व्यापक स्तर पर उठा ही रहे थे उनकी प्रतिष्ठा निर्विवाद जन नेता के रूप में बढ़ती जा रही थी। उनकी कही हुई बातों का महत्व था, लेकिन मालवीय जी कुछ अलग तरह से इस सवाल को उठा रहे थे। वे सुधार की आकाँक्षा जगाकर समाज में परिवर्तन लाने की पहल कर रहे थे। पंडितों, विद्वानों और आचार्यों में उन्हें आदर की दृष्टि से देखा जाता था। मालवीय जी स्वयं भी शास्त्र और विद्या की प्राचीन परंपरा से संबद्ध थे। गाँधी जी की बातों में सामाजिक नेता और व्यापक परिप्रेक्ष्य से देखने वाले महापुरुष की चिंता दिखाई देती थी। मालवीय जी की बातों में इन विशेषताओं के अलावा परंपरा का बल भी था।

सन् 1923 में काशी में हिंदू महासभा का अधिवेशन हुआ। तब यह संगठन भारतीय धर्म की सभी धाराओं और वर्गों का संयुक्त मंच था। मालवीय जी ने इस अधिवेशन की अध्यक्षता की।

मालवीय जी के प्रयत्नों से उसी अधिवेशन में निर्णय लिया गया कि सवर्ण हिंदुओं के समान दलित जातियों को सरकारी और गैरसरकारी स्कूलों में पढ़ने, कुओं से पानी खींचने, तालाबों में नहाने, सभा-सम्मेलनों में दूसरे लोगों के साथ बैठने, सड़कों पर चलने और देवदर्शन करने का अधिकार है। उनके अधिकार का सम्मान किया जाना चाहिए। प्रस्ताव तो पास हो गया, पर उसे लागू करना इतना आसान नहीं था। इसके लिए समाज में उपयुक्त वातावरण बनाना जरूरी था। वह एक अलग लड़ाई थी, लेकिन काशी में सैकड़ों पंडितों, पुरोहितों की उपस्थिति में उनकी सहमति से इस तरह का प्रस्ताव पास करा लेना बड़ी उपलब्धि थी।

सन् 1925 में हुए हिंदू महासभा के अधिवेशन की अध्यक्षता लाला लाजपत राय ने की। यह अधिवेशन बुद्धिजीवियों और काशी की ही तरह कट्टरपंथियों की आधुनिक नगरी कलकत्ता (कोलकाता) में हुआ। लाला रामप्रसाद ने इस अवसर पर अछूतों और शूद्रों को वेदपाठ करने का अधिकार देने का प्रश्न उठाया। वहाँ बैठे लोगों में इस विषय के उठते ही खलबली मच गई। तनातनी की स्थिति आ गई। मालवीय जी भी वहीं उपस्थित थे। उन्होंने स्थिति को सँभाला और कहा कि ईश्वर का दिया हुआ प्रसाद सबके लिए सुलभ है। वेदों का अध्ययन किसी के लिए निषिद्ध नहीं हैं, पर उसके लिए कठोर तपस्या की आवश्यकता है। यह हर किसी के लिए प्रथम प्रयास में ही संभव नहीं है। गीता भूमंडल में सर्वश्रेष्ठ ग्रंथ है। उसका अध्ययन-मनन सबके लिए सुलभ है। उसके द्वारा अल्प प्रयास से ही वेदों का मुख्य तत्व प्राप्त किया जा सकता है।

मालवीय जी ने उस समय उत्पन्न हुई कटुता को किसी तरह शाँत किया। मन से वे भी अस्पृश्यों को दूसरे वर्णों के समाज के अधिकार देने के पक्ष में थे। उनके अनुसार साधना, स्वाध्याय के क्षेत्र में भी छा गए ऊँच-नीच ने हिंदू समाज को बुरी तरह खोखला किया था। कलकत्ता (कोलकाता) अधिवेशन में उपजी कटुता को शाँत करने के बाद वे राष्ट्रीय भावनाओं का प्रचार करते हुए जगह-जगह घूमे। राष्ट्रीय आँदोलन को गति देते हुए वे समाज-सुधार संबंधी कार्यक्रमों को भी गति देते रहे। व्याख्यानों में अछूतोद्धार, स्त्रियों की दशा सुधारने और सामाजिक कुरीतियों का उन्मूलन करने की प्रेरणा रहती। शूद्रों के शास्त्र-अधिकार का मुद्दा भी इन व्याख्यानों का विषय होता। सन् 1927 में उन्होंने एक साहसिक कदम उठाया और प्रयाग में जात-पाँत का विचार किए बिना सभी वर्ण के लोगों को मंत्रदीक्षा दी। उसकी आलोचना हुई, प्रबल विरोध भी हुआ, लेकिन मालवीय जी ने इसकी कोई चिंता नहीं की। वे शाँत, अविचल और दृढ़ता से अपने काम में जुटे रहे। कलकत्ता(कोलकाता), नासिक, पुणे, काशी आदि स्थानों पर भी सामूहिक मंत्रदीक्षा के कार्यक्रम हुए। विरोध और समर्थन-सराहना की मिली-जुली प्रतिक्रिया होती रहती थी।

समाज अनुष्ठान

प्रयाग में सामूहिक दीक्षा देने से कुछ माह पहले मालवीय जी आगरा आए थे। मार्गदर्शक सत्ता से साक्षात्कार और महापुरश्चरण-साधना आरंभ करने के बाद श्रीराम सामाजिक गतिविधियों में भी पहले की तरह ही रुचि लेते थे। मालवीय जी के बारे में उन्हें जब भी कोई सूचना मिलती तो ध्यान से सुनते। पूरी जानकारी जुटाते और सोचने लगते कि उनके समाज अनुष्ठान में किस तरह सहयोग किया जा सकता है। सन् 1926 के वसंत पर्व के बाद उन्होंने अपनी दीक्षा की पिछली गतिविधियों का अवलोकन किया। समाज संस्कार के क्षेत्र में पिछले तीन वर्ष में उनके आस-पास जो कुछ भी घटा था, उसके प्रकाश में अपने लिए कुछ दायित्व चुना।

पता चला कि मालवीय जी आगरा आए हैं तो श्रीराम ने तुरंत वहाँ जाने की ठान ली। दो-तीन दिन में लौट आने की कहकर वक चल दिए। मालवीय जी आगरा में हिंदू सभा के भवन में ठहरे थे। वस्तुतः वह सेठ गिरधर दास का मकान था, जो उन्होंने हिंदू सभा की गतिविधियों को चलाने के लिए दे दिया था। सामाजिक उपयोग में आने के कारण ही उसका नाम हिंदू सभा भवन हो गया था। मालवीय जी ने सभा भवन में ही कार्यकर्त्ताओं को संबोधित किया। कहा कि बौद्ध, जैन और सिख सभी बृहत् हिंदू जाति के अंग है। गाँव-गाँव में सभाएँ स्थापित की जाएँ। अपनी गिरी हुई दशा को उठाने का प्रयत्न करें। जिन्हें हम अछूत कहते है, वे हमारे ही भाई हैं। उनसे प्रेम का व्यवहार करे। उनकी अवस्था सुधारने पर ध्यान दें। उन्हें अपनाएँ। संबोधन में जहाँ-तहाँ पाठशालाएँ और अखाड़े खोलने की प्रेरणा भी दी गई थी। कहा था कि शरीर से भी हमें मजबूत बनना चाहिए। अपने भीतर शक्ति होगी तो बाहरी भीतरी दोनों ही तरह के शत्रुओं से लड़ सकेंगे। बलवान शरीर में ही बलवान आत्मा का निवास होता है। मन को बलवान बनाने के लिए पूजा-पाठ, ध्यान, जप और शास्त्रों का अध्ययन-मनन करें।

मालवीय जी के प्रवचनों में टूटे-फूटे, जीर्ण-शीर्ण हिंदू समाज को फिर से गठित करने पर जोर रहता था। निजी चर्चाओं में भी वे अछूतोद्धार की बात करते थे। सभा भवन में व्याख्यान पूरा होने के बाद वे कार्यकर्त्ताओं से बात करने लगे। किसी ने पूछा, “अछूतोद्धार का आपका विचार क्या राष्ट्रीय आँदोलन से लोगों का ध्यान बँटने लगेगा। फिर हम अपने मूल उद्देश्य को भूल जाएँगे।”

मालवीय जी ने कहा, “मूल उद्देश्य क्या है?” प्रश्नकर्त्ता ने उत्तर दिया, “ स्वतंत्रता।” उन्होंने फिर पूछा,”स्वतंत्रता किसलिए?” प्रश्नकर्त्ता भी जैसे पूरी तैयारी से आया था, ताकि हम दुनिया में सिर ऊँचा उठाकर चल सके। अपने सम्मान की गौरव की रक्षा करें। उसे बढ़ाएँ।” मालवीय जी ने इस उत्तर से प्रश्नकर्त्ता का मानस समझ लिया। उन्होंने बात वही से आगे बढ़ाई, “ सम्मान और गौरव किसी एक व्यक्ति का नहीं, पूरे देश और समाज का आत्मसम्मान है। हमें स्वतंत्रता इसीलिए चाहिए। हमें यह नहीं भूल जाना चाहिए। अपने ही लाखों-करोड़ों भाइयों की गरिमा रौंदते रहने से अपना आत्मसम्मान प्राप्त नहीं हो जाएगा। उनके सम्मान और गरिमा की प्रतिष्ठा करते हुए ही हम पूरे राष्ट्र का गौरव लौटा सकेंगे।”

समन्वय का सूत्र भी उन्होंने ही दिया। कहा, “रोग की अवस्था में सबका विचार रोग को दूर करने का होना चाहिए औषध भोजन नहीं है। स्थायी सुधार सामयिक नहीं है। उनका प्रभाव हमेशा दिखाई देना चाहिए। हम ऐसा कोई भी काम नहीं करें, जिससे राष्ट्रीय आँदोलन में विरोध पैदा होता हो। अछूतों की दशा सुधारने पर ध्यान नहीं देंगे तो उन्हें अपने साथ नहीं जोड़ सकेंगे।

दीक्षागुरु से पुनर्मिलन

सभा में मालवीय जी का व्याख्यान सुनने के बाद श्रीराम इस चर्चा में भी आ गए थे। उन्होंने मालवीय जी को प्रणाम किया और एक तरफ बैठ गए। चर्चा में और लोग भी बैठे थे। ज्यादातर युवा कार्यकर्त्ता थे। हर किसी ने अपना परिचय देने लगे तो एकाध पंक्ति सुनने के बाद ही मालवीय जी को जैसे कुछ याद आया। पंडित रूपकिशोर के साथ वर्षों पहले काशी आए उस बालक और उससे संबंधित घटनाएँ स्मृति में उभर आईं। यह भी याद आ गया कि बालक के होनहार होने का आभास तभी हो गया था और भी बँधी थी कि यह आगे चलकर देश-समाज की कुछ विशिष्ट सेवा करेगा।

वहाँ मौजूद किसी कार्यकर्त्ता ने जिक्र छेड़ दिया कि गाँव की एक बीमार अछूत स्त्री की सेवा करने और इस कारण कुछ समय तक प्रताड़ित रहने का दंड भी यह बालक भुगत चुका है। मालवीय जी ने वह घटना स्वयं श्रीराम के मुँह से सुनी। सेवा के समय मन में क्या भाव उठते रहे, यह भी पूछा और सब कुछ सुनने के बाद श्रीराम की पीठ थपथपाई। कहा, “आगे तुम्हें और भी चुनौतियों का सामना करना है।” इस भेंट में मालवीय जी से सामान्य विषयों के अलावा कोई उल्लेखनीय चर्चा नहीं हुई। समाज-सुधार और राष्ट्रीय आँदोलनों पर चर्चा में ही समय बीत गया। प्रत्यक्ष रूप से कोई महत्त्वपूर्ण चर्चा नहीं हो सकी । वहाँ उपस्थित लोगों, स्वतंत्रता सेनानियों और सामाजिक कार्यकर्त्ताओं में जो बात-चीत हुई, उसे सुनने का मौका मिला। उस बात-चीत से श्रीमान को अपना पक्ष निर्धारित करने में सहायता मिली। उधर लोगों की बात-चीत चल रही थी, इधर वे निश्चित कर रहे थे कि आँवलखेड़ा पहुँचकर क्या करना है।

आँवलखेड़ा पहुँचे तो बालसेना की बैठक बुलाई। अपनी आगरा यात्रा के बारे में बताया। सभी साथियों को घटनाओं के हवाले से बताया कि आगरा में छावनी होते हुए भी लोग कैसी हिम्मत और निडरता से लड़ रहे हैं। छावनी में फौजी रहते हैं। सामान्य स्थिति के लोग फौज वालों से डरते तो हैं, लेकिन युवकों में जोश है। वे मुकाबला करने के लिए तत्पर रहते हैं। रामप्रसाद नामक किशोर ने उत्साह में भरकर कहा, “हम भी तैयार रहते हैं श्रीराम। हम ही किससे डरते हैं। देखा नहीं कि उस मोटे अफसर और काले फौजियों को कैसे खदेड़ा था।”

“वह गाँव की बात थी। छावनी में मुकाबला करना ज्यादा बड़ी बात है।” श्रीराम ने कहा, “हमें उन लोगों से सीखना चाहिए।” रामप्रसाद ने इस उलाहने का प्रतिवाद किया। उसे लगा कि आगरा के युवकों की तुलना में अपने आप को जैसे कम आँका जा रहा है। उसने कहा, “कैसे कहते हैं? आगरा में आपने ही एक मोटे अफसर का सिर नहीं फोड़ दिया था” और सभी रामप्रसाद की भावनाओं से सहमत हुए। घटना सन् 1923 की है। तब श्रीराम बारह वर्ष के थे। आगरा गए हुए थे। वहाँ एक अँगरेज फौजी अफसर को किसी युवती से छेड़-छाड़ करते देखा। उस अँगरेज ने युवती को रोब से अपने पास बुलाया। वह समझदार थी। उसे अंदाजा हो गया कि अँगरेज अफसर की मंशा क्या है। वह अफसर के पास जाने के बजाय तेजी से पग उठाते हुए आगे बढ़ने लगी।

आततायी का सिर फोड़ा

अफसर उसकी तरफ झपटा तो युवती के साथ जा रहे युवक ने पूछा, “क्या बात है?” यह पूछना अफसर की निगाह में अपराध था, जिसका दंड दिया ही जाना चाहिए। युवक की पीठ पर उसने बंदूक का कुँदा मारा और नीचे गिरा दिया। उसे गिरा पड़ा छोड़कर अँगरेज युवती के पीछे दौड़ा। वह डरकर भागी। गोरा उसके पीछे लपका। श्रीराम किसी दुकान पर खड़े देख रहे थे। उनके मन में जबरदस्त आक्रोश उबल रहा था, गोरे अफसर के साथ उन लोगों के प्रति भी, जो यह सब चुपचाप देख रहे थे। देखते-देखते कुछ ही पलों में तय कर लिया कि क्या करना है। दुकान पर दरवाजा रोकने वाला पत्थर उठाया और युवती का पीछा कर रहे अँगरेज अफसर पर ऐसा निशाना साधकर मारा कि चोट से वह लड़खड़ाकर गिर गया। विलाप करता हुआ वह उठा, लेकिन उसके पाँवों में जान नहीं थी। वह लड़खड़ाता चल रहा था। चीखता-चिल्लाता रहा। लोग अब भी मूकदर्शक बने देखते रहे। किसी ने नहीं बताया कि पत्थर किसने फेंका था। वह लोगों को डराता-धमकाता रहा, लेकिन काई कुछ नहीं बोला। युवती इस बीच किसी सुरक्षित स्थान पर छिप चुकी थी। अँगरेज अधिकारी वापस लौट गया था। बालसेना के सदस्यों को यह घटना इसलिए भी याद थी कि इसके बाद ही उन्होंने किशोरों को संगठित करने का विचार किया था।

मालवीय जी से मिलकर लौटने के बाद श्रीराम और सक्रिय होने की योजना बनाने लगे। कुछ कार्यक्रम तय किए। साधना का क्रम अपने ढंग से चल रहा था। उसके लिए चार-पाँच घंटे का अतिरिक्त समय चाहिए था। नींद में कटौती कर समय की पूर्ति की। गोघृत, मठा और जौ की रोटी आदि का प्रबंध माँ कर देती थी। दीपक में घी भरा रहने के लिए भी वही ध्यान देती थी । श्रीराम का विवाह कर देने की उनकी रट जारी रही। वह रट जोर भी पकड़ती रही। गाँव के लड़कों को इकट्ठा कर गोष्ठियाँ करने लगे, घर से बाहर रहने और परचे-पोस्टर बाँटने-चिपकाने लगे तो माँ की लगन और तेज हुई। सगे-संबंधियों में जहाँ-जहाँ भी रिश्ता ढूँढ़ने के लिए कहा था, वहाँ कुछ जगहों से खबरें आने लगीं। माँ ने कहा कि कोई कि काई एक जगह चुनकर बता दो। श्रीराम कुछ देर विचार कर बोले, “अभी जल्दी क्या हैं ? इस उम्र में विवाह करना धर्म-विरुद्ध होगा। “

सहधर्मिणी की तलाश

“गाँव के सभी लड़के चौदह-पंद्रह साल की उम्र तक ब्याह जाते हैं।तुम्हारे संग-साथ के कई लड़कों की शादी हो गई है। तुम भी करो। “माँ ने समझाया। श्रीराम सुनकर चुप रहे। माँ ने फिर दोहराया और जोर देकर दोहराया। श्रीराम ने सोचकर उत्तर दिया, “अभी कुछ समय ठहर जाओ माँ।”

“कितने समय? “ माँ ने पूछा। पुत्र ने कहा, “यही कोई साल भर।”

माँ ने कारण पूछा तो कहने लगे, “मालवीय जी महाराज कहते है कि लड़को की शादी सोलह वर्ष की उम्र से पहले होनी चाहिए। अच्छा तो यही है कि बीस-बाईस साल की उम्र से पहले न हो, लेकिन सोलह की मर्यादा तो निभानी ही चाहिए।”

मालवीय जी महाराज का संदर्भ सुनकर ताई जी चुप हो गई।फिर पूछा, “और कन्या की उम्र कितनी हो? “श्रीराम ने उत्तर दिया, “कम-से-कम बारह वर्ष। हम जानते है कि अखण्ड दीपक की देख-भाल और गोसेवा के लिए आपको बहू की जरूरत है, पर शास्त्र मर्यादा का पालन भी तो होना चाहिए।”

ताईजी को इसके आगे कोई तर्क नहीं सूझा। कुछ सोचकर फिर पूछा, “लड़की तो देखी जा सकती हैं न।” श्रीराम ने कहा, “सो आप जानो। बहू आपको चाहिए।आप देखें और तय करें।” श्रीराम ने विवाह के लिए सोलह वर्ष की उम्र तक ठहरने की बात कही तो इसका कारण था। उन दिनों लड़की उम्र आठ-दस वर्ष की हो जाती तो मान लिया जाता था कि वह पर्याप्त सयानी हो गई है। कुछ घरों, जातियों या गांवों में तो इतनी उम्र तक लड़की की शादी नहीं होना चेता का विषय भी समझा जाता था। फिर जिस उम्र का लड़का भी मिल जाए उसके साथ विवाह कर दिया जाता।लड़के की उम्र दस-बारह साल से बीस-बाईस साल तक कुछ भी हो सकती थी। वैसे लड़को की उम्र भी दस-ग्यारह साल होना काफी था।

बाल विवाह के इस प्रचलन ने लड़के-लड़कियों को जवान होने से पहले ही बूढ़ा बना देने की स्थितियाँ बना रखी थीं। मालवीय जी ने हिंदू समाज के शक्तिशाली और संगठित बनाने का अभियान छेड़ा तो बालविवाहों पर भी ध्यान दिया। अछूतोद्धार, शुद्धि-प्रथा और स्त्रियों के सम्मान का तीन सूत्रीय कार्यक्रम चलाते हुए वे बालविवाह को हतोत्साहित करने के लिए भी कहने-सुनने लगे। अगस्त, सन् 1823 में काशी और जनवरी, 1823 में प्रयाग में अधिवेशनों के समय मालवीय जी ने विद्वत् परिषदें बुलाकर समाज-सुधार पर विद्वानों, आचार्यों की राय ली। इस बात पर आम सहमति बनी की लड़की का बारह वर्ष और लड़के का सोलह वर्ष की उम्र से पहले विवाह न किया जाए। यदि कन्या की आयु सोलह और लड़के की आयु बीस वर्ष हो तो और अच्छा।

उस समय के प्रचलन में वर-वधू के लिए न्यूनतम आयु का यह निर्धारण भी बड़ा कदम था।समाज में इससे बवाल मच सकता था। पंडितों ने विरोध किया भी सही।

यद्यपि न्यूनतम आयु का यह निर्धारण तुरंत अपना नहीं लिया गया। इक्का-दुक्का लोग ही मालवीय जी के निर्देशों का पालन करते। आंवलखेड़ा में इस मर्यादा का सबसे पहले निर्वाह करने वाले श्रीराम थे। उन्होंने माँ से साफ कह दिया कि कन्या जो भी चुनी जाए, उसकी आयु बारह वर्ष से कम नहीं होनी चाहिए। वे यद्यपि चार वर्ष और ठहरना चाहते थे, लेकिन पूजागृह में अखंड दीपक की देख-भाल माँ ही कर सकती थी या पत्नी। माँ को दिन में और भी काम होते थे। भरे-पूरे परिवार को सँभालने में ही सारा समय बीत जाता था। यह दायित्व पत्नी के जिम्मे सौंपना उचित लगा। गोसेवा करने और दूध से घी-मठा आदि तैयार कर पूजा-प्रयोजनों के लिए रखने का काम भी उन्हीं के हाथों अच्छी तरह संपन्न हो सकता था। श्रीराम ने विवाह की अनुमति इसलिए दी कि धर्मपत्नी साधना-सहचरी बने, इसलिए नहीं कि गृहस्थी बसाना या सामान्य लोगों की तरह वंश चलाना है। (क्रमशः)


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