बुद्धि नहीं, सद्बुद्धि को महत्व मिले

July 2003

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बुद्धि में निर्णायक क्षमता होती है। वह निर्णय करती है कि किस ओर जाना है। परन्तु सत्पथ पर ही बढ़ना है, सत्यानुसंधान करना है इसका निर्णय सद्बुद्धि करती है। केवल बुद्धि भौतिक सफलताओं के अर्जन की कामना करती है। इसकी वैचारिक सीमाएँ पदार्थ जगत् तक ही सीमित होती हैं। आधुनिक विज्ञान के अद्भुत आविष्कार इसी बुद्धि की देन है। बुद्धि के कारण ही विश्व में इतनी साधन-सुविधाएँ संभव हो सकी हैं। इसने समस्त विश्व को घर के एक आँगन में समेट देने का असंभव कार्य कर दिखाया है। सुदूर अंतरिक्ष में टिमटिमाते तारों को तोड़ लाने की कहावत भी कुछ सीमा तक इसने साकार कर दिखायी है। परन्तु बुद्धि ने मानव समाज एवं विश्व का जितना उपकार किया है, उतना ही इसे विनाश के मुँह की ओर भी धकेल दिया है। बुद्धि ने अमृत भी बाँटा है तो हलाहल पिलाने में कोताही नहीं बरती है।

आज का आधुनिक समाज सफलता के लिए बुद्धि को ही एक मात्र साधन ठहराता है और इसका मानदण्ड और मापदण्ड बुद्धि परीक्षण (आई.क्यू.) मानता है। परन्तु अतिबुद्धिमानों के वर्तमान समाज में जितनी मनोवैज्ञानिक विकृतियाँ एवं समस्याएँ पैदा हुई हैं उसे देख मानव मन काँप उठा है, असुरक्षित एवं आतंकित हो गया है। आखिर कहाँ चूक हो गई है। समग्र सफलता पाने की दिशा में कहाँ भटकाव आया है। चुनौती पेश करती इस गंभीर समस्या के समाधान में आधुनिक मनोवैज्ञानिक डेनियल गोलमेन कहते हैं कि बुद्धि के के पथ पर अग्रसर करता है।

विश्लेषणात्मक बुद्धि समस्याओं का समाधान करती है। परन्तु अपने आप में यह अपूर्ण व एकाँगी है। सृजनात्मक बुद्धि में समस्याओं का प्रभावी निदान मिलता है परन्तु समस्या का निदान मिलना ही पर्याप्त नहीं है उसे जीवन में उतारने के लिए व्यावहारिक होना भी आवश्यक एवं अनिवार्य है। अतः उसे व्यवहार कुशल भी होना चाहिए। बुद्धि के इन तीनों अवयवों से ही जीवन विकसित एवं परिपक्व होता है तथा सफलता के शिखर को स्पर्श करता है। स्टर्नबर्ग के अनुसार सफल बुद्धि वाले व्यक्ति अपने अंदर विद्यमान अनन्त सामर्थ्य की संभावना को समझते हैं तथा साथ ही इसे क्रियान्वित करने के लिए अत्यन्त कठिनाइयों से भी परिचित होते हैं। अतः इन कठिनाइयों का निदान पहले से तय कर लेते हैं, जिससे कि हताशा-निराशा की नकारात्मक सोच न पनपने पाये। इनमें विधेयात्मक चिन्तन के साथ-साथ सृजनात्मक दृष्टिकोण भी होता है जो सफलता के लिए एक अपरिहार्य मानदण्ड है।

सफल बुद्धि वाले अपनी राह खुद तलाशते हैं। ये अवसर की प्रतीक्षा नहीं करते और न उस पर निर्भर करते हैं बल्कि स्वयं परिस्थिति को गढ़ते हैं। मानव परिस्थिति का कृतदास नहीं है वरन् अपनी संकल्पित मनःस्थिति से परिस्थिति का सृजनकर्त्ता है। सफल बुद्धि इस तथ्य को भली-भाँति जानती है। सामान्यतः बुद्धि परिस्थिति की विषमता के सामने घुटने टेक देती है और किंकर्त्तव्यविमूढ़ हो जाती है। उसे नहीं सूझता कि विषमता में समता का सौंदर्य कैसे निखारा जाय, कटुता को सौम्यता में तथा भयावह रिक्तता को सृजन की समृद्धि में कैसे बदला जाय। सफल बुद्धि इन कलाओं का उपयोग करने में दक्ष एवं प्रवीण होती है। यह समस्याओं को अनियंत्रित होने से पहले ही नियंत्रण में लाने के लिए सजग एवं सतर्क रहती है। ऐसे व्यक्ति रचनात्मकता के पक्षधर होते हैं। कुछ अच्छा करने में विश्वास रखते हैं साथ ही इसको करने के लिए आने वाले अवरोधों का सामना करने के लिए युक्ति एवं योजना बनाते हैं। अतः ऐसी बुद्धि अपने कर्मक्षेत्र में असफलता से निराश नहीं होती बल्कि उसका उचित कारण खोजती है। अपनी असफलता पर खुले मन से मूल्याँकन करती है, चिन्तन करती है। जहाँ भी त्रुटियाँ एवं गल्तियाँ दिखाई देती हैं उसे सदैव दूर करने का प्रयास करती है।

एस. ब्रायन के अनुसार सफल बुद्धि संवेदनात्मक भाव बोध को स्वीकार करती है क्योंकि बुद्धि से भाव शक्ति कहीं गहरी होती है तथा उसकी दक्षता एवं प्रेरणा भी अत्यधिक सशक्त होती है। मनुष्य विचारशील ही नहीं संवेदनशील भी है। बुद्धि सतह से एक ओर जहाँ चिन्तन चेतना फूटती है वहीं दूसरी ओर भावना के धरातल से उदारता, सज्जनता, संयमशीलता एवं शालीनता पनपती, विकसित होती है। अतः एस. ब्रायन की मान्यता है कि बुद्धि के साथ भावना का पुट व्यक्तित्व का गठन करता है। और व्यक्तित्व सर्वांग सुन्दर बनता है।

केवल बुद्धि से मनुष्य क्षुब्ध, चिन्तित, खिन्न, रुष्ट एवं असंतुष्ट रहता है। संवेदना की सरसता ही जिन्दगी को हँसाती, मुस्कुराती, हल्की-फुल्की, सुखी-संतुष्ट बना सकती है। बौद्धिक कुशलता व्यक्ति को कितना ही सफल क्यों न बना दे परन्तु अन्दर के गहरे अभाव एवं उद्विग्न अतृप्ति को मिटा नहीं पाती। इसी कारण भगवान् व्यास जी अनेक तर्कसंगत धार्मिक ग्रन्थों का लेखन करने के बावजूद आन्तरिक शाँति से वंचित थे। नारद जी के सद्परामर्श से भावपूर्ण भागवत पुराण की रचना के पश्चात् ही उन्हें उस भावनात्मक अभाव से महाभाव की प्राप्ति हुई। आज भी बौद्धिक कौशल से सम्पन्न मानवी जीवन इसी अतृप्ति की महाव्यथा से व्यथित है।

इसे केवल भावना की ठण्डी छाँव ही शीतलता प्रदान कर सकती है। इस संदर्भ में स्वामी विवेकानन्द के विचार बड़े ही हृदयस्पर्शी हैं। वे कहते हैं कि मानव जीवन की समस्त समस्याएँ बुद्धि से नहीं हल हो सकती, इसके लिए हृदय की आवश्यकता होगी। बुद्धि के साथ-साथ हृदय को भी पवित्र एवं पावन बनाओ, उसे अधिकाधिक संस्कारित बनाओ। क्योंकि वह हृदय ही है जिसके द्वारा भगवान् स्वयं कार्य करते हैं और बुद्धि द्वारा केवल मनुष्य। विचार शक्ति के साथ भाव शक्ति की भी उतनी ही आवश्यकता है। भाव एवं विचार के इस संयोग-सम्बन्ध को ही सद्बुद्धि कहते हैं, जिसे आधुनिक मनोवैज्ञानिक डेनियल गोलमेन एवं अन्य मनीषी ई. क्यू. के नाम से पुकारते हैं। हालाँकि ई. क्यू. सद्बुद्धि का पर्याय तो नहीं हो सकती परन्तु इसमें सद्बुद्धि की झलक-झाँकी मिलती है।

आज बुद्धि की नहीं सद्बुद्धि की महत्ता एवं विशेषता अधिक है। क्योंकि बुद्धि खण्डन करती है, विरोध एवं विवाद करती है। बुद्धि आलोचना करती है। सद्बुद्धि समालोचना एवं संवाद करती है। बुद्धि की दृष्टि भेद की दृष्टि है। वह सदा भेद व विभाजन को खोजती है जबकि सद्बुद्धि का दृष्टिकोण अभेद है। वह बुद्धि द्वारा विभाजित खाइयों को पाटती है और उसके परे एवं पार पहुँच जाती है। बुद्धि का आधार विश्लेषण है और सद्बुद्धि का आधार संश्लेषण है। बुद्धि सीमाएँ खींचती है, सद्बुद्धि सीमाएँ मिटाती हैं। और जब सभी सीमाएँ मिट जाती हैं तो उस असीम भाव बोध की उपलब्धि होती है। बुद्धि चालाकी करती है और सद्बुद्धि समझदारी करती है। बुद्धि संसार में कुशलता का नाम है तो सद्बुद्धि परमात्मा में कुशलता का पर्याय है। भगवान् बुद्ध का घर परित्याग सद्बुद्धि के अनावरण की महान् घटना है। परन्तु आज एक ऐसी बुद्धि की आवश्यकता है जिसकी गति संसार में उतनी ही हो जितनी की भगवान् में। स्वामी विवेकानन्द जी इसे विवेक बुद्धि कहते हैं जिसमें सर्वांगीण एवं परिपूर्ण व्यक्तित्व का सूत्र समाहित है।

मानव समाज को आज ऐसी सद्बुद्धि की आवश्यकता है जो वैयक्तिक जीवन को परिष्कृत करे एवं समाज को भी विकसित करे। जिससे आँतरिक एवं बाह्य दोनों जीवन पूर्णता प्राप्त करें। चाहे उसे सफल बुद्धि, संवेगात्मक बुद्धि या सद्बुद्धि के नाम से क्यों न जाने। जिसमें विकृति वहीं संस्कृति पनपे तथा विचार के साथ भावना का भी सम्मान हो। इसी सद्बुद्धि से ही मानव एवं विश्व का भाग्य-भविष्य उज्ज्वल हो सकता है। अतः इस सद्बुद्धि का अर्जन ही युग की सबसे बड़ी आवश्यकता है।


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