पवित्र, उच्च विचारों से आप्लावित उपनिषदों का ज्ञान

July 2003

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

उपनिषद् भारतीय अध्यात्म चिंतन का चरम प्रकाश एवं मुख्य स्रोत हैं। वेद का ज्ञान पक्ष उपनिषद् कहलाता है। वेद के अंतिम भाग में एवं निष्कर्ष रूप से जो उच्च आध्यात्मिक चिंतन, उत्कृष्ट शिक्षा, उदात्त विद्या तथा गूढ़ साधना विद्यमान है, वही उपनिषद् का मुख्य विषय है।

वैदिक शिक्षा कर्मचारी की ओर प्रेरित करती है और वैदिक यज्ञ कर्मकाँड के प्रति प्रेरणा देते हैं दूसरी ओर उपनिषद् कर्मकाँड की उधेड़बुन से मुक्त शाश्वत सत्य का निरूपण एवं यथार्थ का परिचय कराते हैं, जिनके ज्ञान के आलोक से मनुष्य बंधनाक्त होकर मोक्ष की प्राप्ति करता है। अतः उपनिषद् जीव, जगत एवं जगदीश्वर के संबंधों, समन्वय और उनके चिंतन-मनन पर आधारित ग्रंथ है।

भारतीय आचार्यों ने उपनिषद् की निष्पत्ति ‘षद्लृ’ धातु से की है, जो गति, अवसादन और विशरण अर्थों में प्रयुक्त होती है। उपनि उपसर्गों के साथ ‘षद्लृ’ धातु में क्विप प्रत्यय का योग करने पर उपनिषद् शब्द का निर्माण होता है। अतः जिस विद्या की ज्योतिर्मय ज्योति के संपर्क से अविद्या, अज्ञान का नाश होता है, जो मुमुक्षुओं को ब्रह्म की उपलब्धि करा देती है और जिसके श्रवण मात्र से दुःख, कष्ट एवं समस्याओं की गहन द्वंद्व-दलदल से छुटकारा मिल जाता है, उस आध्यात्मिक विद्या को उपनिषद् कहा जाता है।

मैक्समूलर के अनुसार उपनिषद् का प्रारंभिक अर्थ गुरु के समीप दिव्य उपदेश सुनने के लिए श्रद्धा-आस्थापूर्वक बैठना है। उन्होंने ‘ट्राँसलेशन ऑफ दि उपनिषद्’ में उल्लेख किया है कि संस्कृत भाषा के इतिहास और संस्कृत के अनुसार उपनिषद् का प्रारंभिक तात्पर्य एक ऐसी गोष्ठी से था, जिसमें शिष्य गुरु के चारों ओर आदर और भक्तिपूर्वक एक साथ एकत्रित होते थे। उपनिषद् साहित्य के विद्वान मनीषी ड्यूसन अपने ग्रंथ ‘फिलॉसफी ऑफ दि उपनिषद्’ में स्पष्ट करते है, कि उपनिषद् शब्द का अर्थ रहस्य या रहस्यमय उपदेश है, जो अनेक संदर्भों में प्रयुक्त होता है। ‘सेक्रेड बुम ऑफ दि ईस्ट’ नामक ग्रंथमाला के प्रथम खंड में मैक्समूलर ड्यूसन के इन अर्थों की पुष्टि करते हुए समर्थन करते हैं।

उपनिषदों के महान ज्ञाता एवं भाष्यकार भगवान शंकराचार्य ने उपनिषद् शब्द को ‘सद्’ धातु से लिया है, जिसका अर्थ है, जो नष्ट करता हैं उनके अनुसार जो अज्ञानरूपी भ्रम को तिरोहित करती है, माया के आवरण को तार-तार का सत्यज्ञान के दर्शन से मोक्ष की प्राप्ति में सहायता करती है, वही विद्या उपनिषद् में है। उपनिषद् के आदेशानुसार इस सत्यज्ञान के रहस्य को उचित पात्र के सामने प्रकट करना चाहिए। ज्ञान के इस आलोक को उसे हस्ताँतरित करना चाहिए। ज्ञान के इस आलोक को उसे हस्ताँतरित करना चाहिए। जिसने यम-नियम, संयम-साधना के द्वारा स्वयं को उचित एवं उपयुक्त सत्पात्र के रूप में सिद्ध किया हो।

उपनिषद् की पावन भूमि भारत में औपनिषदिक ऋषियों ने उच्चस्तरीय कल्पनाएँ कीं तथा गहन-गूढ विचार किया। इसी कल्पना व विचार का इस दिव्य धरा पर उपनिषद् के रूप में सर्जन हुआ। अतः प्रारंभिक उपनिषदों की भाषा गद्यात्मक है, जो अत्यंत प्रभावशाली, प्रभावोत्पादक एवं रहस्यमयी है। यह भाषा मन-मस्तिष्क को झंकृत कर देने वाली है तथा इसमें हृदय को प्रफुल्लित करने की सामर्थ्य निहित है। उपनिषदों के हरेक मंत्र का सौंदर्य अनुभवगम्य है तथा अर्थ गरिमामय है। चूँकि उपनिषद् शब्द का प्रयोग साँकेतिक सिद्धांत एवं विशिष्ट उद्देश्य के अर्थों में प्रयुक्त होता था, अतः सत्पात्रों को महनीय गुरु द्वारा इस रहस्य एवं गूढार्थ की दीक्षा जाती थीं इससे धार्मिक एवं आध्यात्मिक जिज्ञासुओं को उपनिषदों के शब्दों और इसकी काव्यात्मक अभिव्यक्ति शैली में एक अद्भुत आश्चर्य एवं चमत्कार दृष्टिगोचर होने लगा था। परिणामस्वरूप उपनिषदों की रचना संस्कृत के गद्य और पद्य में नवीन प्रचलित स्वरूप में होने लगी और इसके सर्जन के ढंग में अवसान या परिवर्तन नहीं आया, वरन् यह नदी की सतत धारा के रूप में अक्षुण्ण-अक्षय प्रवाहित होती रही।

उपनिषदों का रचनाकाल कभी भी क्यों न हो, वे कालजयी हैं। उनके विचार वर्तमान में भी उतने ही सामयिक हैं और भविष्य के लिए भी उपयोगी हैं। प्रारंभिक उपनिषदों की रचना ईसा से 5डडडडड वर्ष पूर्व की गई थीं नवीन उपनिषदें मुसलिम काल के प्रादुर्भाव के पश्चात भी निर्बाध गति से लिखी जाती रहीं इन उपनिषदों में सबसे प्रमुख और पहली उपनिषदें वे हैं, जिनका भाष्य शंकराचार्य ने किया है ये हैं बृहदारण्यक, छाँदोग्य, ऐतरेय, ईश, केन, कठ प्रश्न, मुँडक एवं माँडूक्यं ड्यूसन का मत है कि कौषीतकि उपनिषद् भी मूल उपनिषदों में से एक है। मैक्समूलर एवं श्रोडर की मान्यतानुसार मैत्रायणी उपनिषद् भी इनमें सम्मिलित हैं, परंतु ड्यूसन इसे परवर्ती मानते हैं बिंटरनीत्ज उपनिषदों को चार कालों में विभाजित करते हैं वे प्रथम काल में बृहदारण्यक, छाँदोग्य तैत्तिरीय, ऐतरेय, कौषीतकि एवं केनोपनिषद् को रखते हैं उनके अनुसार द्वितीय काल में कठ, ईश, श्वेताश्वेतर, मुँडक और महानारायण आते हैं तीसरे काल में प्रश्न, मैत्रायणी एं मांडूक्य उपनिषदें शामिल की गई हैं। शेष उपनिषदें चतुर्थ काल की है। ये सारी उपनिषदें मिलाकर संख्या में लगभग 18 होती हैं।

इन विभिन्न उपनिषदों की विषयवस्तु एवं व्याख्या भिन्न-भिन्न दिखाई देती है। उनमें से कुछ जहाँ आत्मा के एकतत्ववाद के ऊपर विशेष महत्व देती हैं, वहीं दूसरी उपनिषदें योग, तप,शैव एवं वैष्णव दर्शन एवं शरीरशास्त्र के ऊपर महत्त्वपूर्ण प्रकाश डालती हैं इसी कारण इन उपनिषदों को योगोपनिषद् के नाम से विभूषित किया गया है। प्राचीन भारतीय विद्वानों ने उपनिषदों के विभिन्न अर्थ प्रस्तुत किए हैं और अनेक प्रकार से व्याख्या-विश्लेषण दिए हैं ये विवेचन-विश्लेषण एक दूसरे से इतने भिन्न हैं कि उपनिषदों के संबंध में मताँतर पैदा हो गए हैं। वस्तुतः बात ऐसी है नहीं, मूल में शाश्वत सत्य और यथार्थ एक की है, परन्तु इस सत्य की अपने-अपने ढंग से व्याख्या एवं तर्क करने पर ही यह मतभेद दृष्टिगोचर होता है, जो निताँत स्वाभाविक है। सत्य का स्रोत भले ही एक हो, परंतु इसका सुवास अनुभव का विषय है और अनुभव सबका अपना निजी होता है। अंतः इसकी व्याख्या भी उसी ढंग से होगी। इसी कारण तथा गह्वर समुद्र के सदृश गंभीर व समृद्धि है। यह महान एवं दिव्य दर्शन अनेक दर्शनों का उद्गम स्रोत रहा है, ज्ञान की अनंत धाराओं का मूल पावन गोमुख रहा है। ज्ञान की अनेक धाराएँ इनसे विभिन्न दिशाओं में प्रवाहित हुई हैं। इन धाराओं में सबसे उदात्त भावधारा शंकराचार्य के अद्वैतवाद की विचारधारा है, क्योंकि उन्होंने उपनिषदों की अत्यंत विद्वत्तपूर्ण और प्राचीन उपनिषदों के मंतव्य को सर्वांगपूर्ण एवं परिष्कृत रूप से प्रकट किया है। अतः शंकराचार्य के द्वारा की गई व्याख्या द्वारा प्रतिपादित दर्शन को ही मुख्य वेदाँत दर्शन कहकर पुकारा जाता है।

उपनिषद् मानव को मानवता के दिव्य पद से अलंकृत करते हैं, उसे देवत्व की ओर आरोहण करने तथा ब्रह्म के साथ तादात्म्य प्राप्त करने की कुँजी प्रदान करते हैं इसके साथ तादात्म्य प्राप्त करने की कुंजी प्रदान करते हैं। इसके साथ ही वे प्रकृति और जीवन के विभिन्न गूढ रहस्यों को समझाने, सुलझाने और उनमें पूर्णतः समन्वय-संबंध स्थापित करने में उदार सहयोग-सहायता प्रदान करते हैं। इनके अनुसार इस विश्व में ब्रह्म ही एकमात्र लौकिक और पारलौकिक सत्ता है। वही एकमात्र सत्ता है और उसके अलावा और कुछ भी नहीं है। परब्रह्म के रूप में वही असीम, अनंत, निर्गुण और निर्विशेष स्वरूप है, जबकि मनुष्य देह में विद्यमान चैतन्यस्वरूप आत्मा ही उपनिषद् ब्रह्म है। अतः इसके अनुसार आत्मा ही ब्रह्म

का अंशावतार है। उपनिषद् उद्घोष करते हैं कि मनुष्य देह, इंद्रिय एवं मन का संधान मात्र नहीं है, बल्कि वह सुख-दुःख, जन्म-मरण से परे दिव्यस्वरूप है, आत्मस्वरूप है। आत्मभाव से मनुष्य जगत का द्रष्टा भी और दृश्य भी। वह ईश्वर का राजकुमार है। जहाँ-जहाँ ईश्वर की सृष्टि का आलोक व विस्तार, वहीं-वहीं उसकी भी परमगति है, पहुँच है। वह परमात्मा का अंशीभूत आत्मा है। यही जीवन का चरम-परम पुरुषार्थ है। इस परम भावबोध का उद्घोष करने के लिए उपनिषद् के चार महामंत्र है-तत्वमसि(तुम वही हो), अंहं ब्रह्मास्मि(मैं ब्रह्म हूँ), प्रज्ञानं ब्रह्म(आत्मा ही ब्रह्म है), सर्वम् खिलविद्म ब्रह्म(सर्वत्र ब्रह्म ही है)। उपनिषद् के ये चार महावाक्य मानव जाति के लिए महाप्राण, महोयाधि एवं संजीवनी बूटी के समान है, जिन्हें हृदयंगम कर मनुष्य आत्मस्थ हो सकता है। देहभाव से परे सदा आत्मभाव में आनंदपूर्वक विचरण करता रह सकता है।

औपनिषदिक शिक्षा मनुष्य देह को मरणधर्मा मानकर सतत परिवर्तनशील बताती है। मनुष्य आत्मस्वरूप है। अतः संसार के समस्त आकर्षण, साधन, संबंध, बंधन, क्षणिक एवं भ्रम है। अज्ञान ही उसे मोहपाश के प्रबल बंधन में बाँधता है। जीवात्मा इन बंधनों से परे एवं पार है, उसमें अनंत ऊर्जा, असीम शक्ति व सामर्थ्य तथा विपुल शाँति, प्रेम, ज्ञान व आनंद का परम पुँज समाहित है। उपनिषदों में इस जीवात्मा की चार अवस्थाओं का वर्णन मिलता है। जाग्रत अवस्था में जीवात्मा ‘तेजस’ के रूप में जाना जाता है। उसमें यह आँतरिक सूक्ष्म वस्तुओं को समझता व बोध करता है। सुषुप्ति की अवस्था में शुद्ध चित्त के बाह्य एवं आँतरिक वस्तुओं से दूर पहुँच जाता है। तुरीयावस्था में जीवात्मा को ही ‘आत्मा’ कहा जाता है और यही ब्रह्म है। उपनिषदों में इसे उपलब्ध करने के विशद साधना-विधान का उल्लेख मिलता है।

उपनिषद् के अनुसार प्रत्येक आत्मा निर्विवाद रूप से ब्रह्म से सायुज्य संबंध स्थापित कर सकता है। इसके लिए उपनिषद् में श्रवण, मनन और निदिध्यासनरूपी तीन चरणों का उल्लेख मिलता है। मोक्ष की कामना करने वाला गुरु, ग्रंथों तथा महापुरुषों से सदा ब्रह्म के विषय में बारंबार श्रवण करे। इसके विषय में श्रद्धापूर्वक मनन-चिंतन करे, क्योंकि यही ब्रह्म ही एकमात्र मननीय व चिंतनीय है।निदिध्यासन ध्यान का पर्याय है। इस अवस्था में साधक गुरु द्वारा ज्ञान व साधना में लीन हो जाए। उसे संकल्पपूर्वक अपनी समस्त दुर्बलताओं को त्यागकर संयम द्वारा साधना के पथ पर आरुढ़ होना चाहिए। यही उपनिषद् की पावन व दिव्य शिक्षा है, जिसे अपनाकर हम अपने आँतरिक विकास के साथ-साथ नैतिकता तथा उच्च मानवीय मूल्यों का भी संवर्द्धन कर सकते है। इसी कारण शोपेनहॉर ने अपनी भावभरी अभिव्यक्ति में स्पष्ट किया है कि उपनिषद् पवित्र एवं उच्च विचारों से आप्लावित है, सत्य की जिज्ञासा से ओत-प्रोत हैं। सारे विश्व में उपनिषदों के समान कल्याणकारी एवं श्रेयस्कर कोई भी अन्य विद्या नहीं है। इसे अपनाकर मानव ब्रह्म से साक्षात्कार कर सकता है।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118