अंतर्जगत की यात्रा का ज्ञान विज्ञान- - अभ्यास की सफलता हेतु कुछ अनिवार्य शर्तें

July 2003

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अन्तर्यात्रा का विज्ञान महर्षि पतंजलि एवं परम पूज्य गुरुदेव का साधकों से सीधा संवाद है। इसमें महर्षि के सूत्र और युगऋषि के अनुभव का सार है। योग विज्ञान की इन दोनों महाविभूतियों ने इस योग कथा के माध्यम से अपने आध्यात्मिक खजाने को खोल दिया है। उन्होंने बड़ी उदारता बरती है- जो भी योग साधना के गूढ़ तत्त्वों, गहन सत्यों एवं अतिरहस्यमयी प्रक्रियाओं को ले जाना चाहे-ले जाये। जितना ले जाना चाहे उतना ले जाए। उसका मन चाहे तो सबका सब ले जाए। परन्तु ये महर्षिगण इन बेशकीमती खजाने के सदुपयोग के बारे में पूर्ण आश्वस्त हैं। उनका विश्वास है कि इस आध्यात्मिक खजाने की गति और रुचि उन्हीं की होगी- जो साधक हैं। जो साधक नहीं है केवल निरे पाठक हैं वे आकर भी वंचित रहेंगे। उन्हें पढ़कर भी कुछ समझ में नहीं आएगा। क्योंकि इस योग कथा को पढ़ने के लिए तीक्ष्ण बुद्धि और प्रखर मेधा की नहीं जाग्रत आत्मचेतना की जरूरत है।

जिनकी आत्मचेतना में योग साधना की तड़प है, त्वरा है, तृषा है यह योग कथा केवल उन्हीं के लिए है। महर्षि पतंजलि एवं परम पूज्य गुरुदेव का संवाद सिर्फ उन्हीं से है। जो इस संवाद में अपनी भागीदारी चाहते हैं। उन्हें साधक बनना ही होगा। अन्यथा गोस्वामी तुलसी बाबा के शब्दों में उनकी स्थिति कुछ ऐसी होगी-

करि न जाइ सर मज्जन पाना। फिर आवइ समेत अभिमाना। जो बहोरि कोउ पूछन आवा। सर निन्दा करि ताहि बुझावा॥

अर्थात्- इस योग कथा के सरोवर में उनसे स्नान और जलपान तो किया नहीं जाता। वह इसके पास जा करके भी खाली हाथ अभिमान सहित लौट जाते हैं। यदि उनसे कोई पूछता है कि यह योग कथा कैसी है, तो वे इसकी अनेक तरह से निन्दा करके उसे समझाते है।

गोस्वामी जी महाराज आगे कहते हैं-

सकल विघ्न व्यापहिं नहि तेही। राम सुकृपाँ बिलोकहि जेही॥

जो साधक हैं- जिन पर भगवान् की कृपा है, उन्हें कोई विघ्न नहीं सताते हैं। उन्हें इस योग कथा को समझने में किसी तरह की कोई परेशानी नहीं होगी। उनकी जाग्रत् आत्मचेतना योग के रहस्यों को बड़ी ही आसानी से ग्रहण कर लेगी। ऐसे साधकों को प्रतिमाह बड़ी ही बेसब्री-बेचैनी से अन्तर्यात्रा विज्ञान की पंक्तियों की प्रतीक्षा रहती है।

उन्होंने पिछली कड़ी में अभ्यास क्या है, इसके बारे में पढ़ा था। चित्त की स्थिरता के लिए प्रयास करना अभ्यास है। इस अभ्यास की बड़ी महिमा है। जीवन में सभी कुछ सीखना-जानना इसी के सहारे होता है। इसी के बल-बूते मूढ़, प्रवीण होते हैं। अनगढ़, सुगढ़ बन जाते हैं। विकृति-परिष्कृति व संस्कृति में बदलती है। अभ्यास से जिन्दगी में ऐसे-ऐसे चमत्कार होते हैं, जिन्हें देखकर लोग दाँतों तले अंगुली दबाने के लिए मजबूर होते हैं। इस सच्चाई के बावजूद अनेकों को अभ्यास से शिकायतें भी हैं। उनका कहना है कि इतने सालों से अभ्यास कर रहे हैं, पर मेरे जीवन में वैसा कुछ भी नहीं हुआ, जिसकी उम्मीद थी। सालों-साल साधना करने के बावजूद, सालों तक गायत्री जपने के बावजूद जिन्दगी में कोई चमत्कारी परिवर्तन नहीं हुए। तब क्या अभ्यास की महिमा गलत है अथवा फिर साधना की विधि में कोई दोष है।

इस जिज्ञासा के समाधान में महर्षि पतंजलि कहते हैं कि न तो अभ्यास की महत्ता में कोई सन्देह है और न ही गायत्री महामंत्र की साधना या कोई योग विधि में कोई दोष है। बात सिर्फ इतनी सी है कि अभ्यास ठीक तरह से किया नहीं गया। अभ्यास किस तरह से किया जाय इसकी चर्चा महर्षि अपने अगले सूत्र में करते हैं-

स तु दीर्घकालनैरर्न्तय सत्काराऽऽसेवितो दृढ़भूमिः॥ - 1/14

शब्दार्थ- तु= परन्तु, सः= वह (अभ्यास), दीर्घकालनैरर्न्तय सत्काराऽऽसेवितः= बहुत काल तक निरन्तर (निरन्तर) और आदरपूर्वक (श्रद्धा-निष्ठ के साथ) साँगोपाँग सेवन किया जाने पर, दृढ़भूमि= दृढ़ अवस्था वाला होता है। यानि कि- बिना किसी व्यवधान के श्रद्धा-भरी निष्ठा के साथ लगातार लम्बे समय तक इसे जारी रखने पर वह दृढ़ अवस्था वाला हो जाता है।

महर्षि पतंजलि के अनुसार अभ्यास की सफलता के लिए चार चीजों का होना जरूरी है, इनमें पहली है- 1. लम्बा समय, दूसरी है 2. निरन्तरता, तीसरी है- 3.भाव भरी श्रद्धा और चौथी है 4. दृढ़ निष्ठ। साधना अभ्यास में यदि ये चार तत्त्व जुड़े हों तो अभ्यास चमत्कारी परिणाम उत्पन्न किए बिना नहीं रहता। जिन्हें अपने अभ्यास के परिणाम से शिकायत है, उन्हें महर्षि के इस कथन के प्रकाश में आत्मावलोकन व आत्मसमीक्षा करनी चाहिए। वे अवश्य ही यह पाएँगे कि उनके जीवन में कहीं न कहीं किसी तत्त्व की कमी है।

अक्सर देखा जाता है कि लोग शुरुआत तो बड़े उत्साह के साथ करते हैं। बड़ी उमंग-उल्लास से अपनी साधना का प्रारम्भ करते हैं। बाद में महीने-दो-महीने, साल दो साल या ज्यादा से ज्यादा पाँच-छः साल में इसे छोड़ बैठते हैं। जो लोग दीर्घकाल तक साधना जारी भी रखते हैं, उनमें प्रायः निरन्तरता का अभाव होता है। होता यह है कि एक महीने मन लगाकर साधना की, बाद में सब कुछ छूट गया। फिर एकाएक मन में उत्साह उमड़ा और दुबारा शुरू हो गए। पर इस बार दो-तीन महीने में थक कर रुक गए। यही सिलसिला जीवन पर्यन्त चलता रहता है। रुक-रुक कर चलना, थक-थक कर रुकना, इस तरह से साधना अभ्यास कभी भी सफल नहीं होता है। साधना की अविराम गति में लय का संगीत होना चाहिए।

जो साधक किसी तरह अपनी साधना में दीर्घकाल और निरन्तरता को बनाए रखते हैं, उनमें भावभरी श्रद्धा एवं अडिग निष्ठ की कमी रह जाती है। बार-बार मन में सन्देह एवं चित्त में व्यग्रता पनपती रहती है। पता नहीं यह साधना सही है भी या नहीं। पता नहीं साधना का पथ दिखाने वाले गुरु ठीक भी हैं या नहीं। पता नहीं मुझे मंजिल मिलेगी भी या नहीं। इस तरह से डगमगाती श्रद्धा और चंचल निष्ठ, साधक और उसकी साधना को कहीं भी नहीं पहुँचने देती। वह प्रत्यक्ष में क्रिया तो करता रहता है पर भाव और विचारों की कमजोरी के कारण उसकी साधना सदा प्राणहीन और बलहीन बनी रहती है।

साधना के अभ्यास में बल और प्राण कैसे आएँ? इसका उत्तर स्वयं परम पूज्य गुरुदेव का अपना जीवन है। चौबीस वर्षों का दीर्घकाल, उसमें सदा बनी रहने वाली तप की निरन्तरता, सद्गुरु और गायत्री मंत्र पर गहन भाव श्रद्धा एवं अविचल अडिग निष्ठ ने ही उन्हें महासाधक और महायोगी होने का गौरव दिलाया। गुरुदेव अपनी चर्चा में कहते थे कि मेरे लिए गायत्री महामंत्र, गायत्री माता और अपनी मार्गदर्शक सत्ता में कभी कोई अन्तर नहीं रहा। गायत्री महामंत्र के 24 अक्षर ही मेरे जीवन सर्वस्व थे और हैं। अपनी अविराम साधना में पल-पल इनमें मैंने अपने प्राण अर्पित किए हैं। यही है आदर्श मानदण्ड साधना के अभ्यास का। बिना थके, बिना रुके, समर्पित भावनाओं के साथ साधना का अभ्यास करते जाना चाहिए।

गायत्री महामंत्र की साधना के सम्बन्ध में गुरुदेव की एक बात और मनन योग्य है। वह कहते थे- गायत्री साधना के चमत्कार अनुभव करने हैं- तो मन को इधर-उधर मत भटकावों, अधिक नहीं तो अनुष्ठान के नियमों का पालन करते हुए 24-24 हजार के अनुष्ठान करते रहो। समर्पित भाव श्रद्धा के साथ की गई निरन्तर, निष्ठापूर्वक और लम्बे समय की साधना के परिणाम में गायत्री महामंत्र तुम्हें सब कुछ दे देगा। इस साधना में भाव श्रद्धा कैसी हो इस बारे में गोस्वामी जी महाराज के वचन है-

पुलक गात हिय सिय रघुबीरु। जीह नाम जप लोचन नीरु॥

भावना से पुलकित शरीर, हृदय में आराध्य की छवि, जिह्वा से मंत्र जप, और नयनों में भाव बिन्दु। महातपस्वी भरत की साधना के प्रसंग में कही गयी चौपाई गायत्री साधकों के लिए भी प्रासंगिक है। साधना के इस अभ्यास की पूर्णता के लिए वैराग्य की भी आवश्यकता है। इसकी व्याख्या महर्षि के अगले सूत्र में है, जिसे साधक अगले महीने पढ़ सकेंगे।


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