आत्मोत्कर्ष हेतु तपश्चर्या के दो पक्ष

July 2003

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प्रगति पथ पर अग्रसर होने के लिए दो कदम एक साथ बढ़ाने होते हैं। पिछला एक पैर जिस जगह पर था, उसे छोड़ना होता है और दूसरा जहाँ था, उसे छोड़कर आगे बढ़ना होता है। यही क्रम दूसरे को भी अपनाना पड़ता है। आगे बढ़ने के लिए पिछला छोड़ना पड़ता है। सामान्य यात्रा क्रम का भी यही नियम है। जीवन लक्ष्य की प्रगति यात्रा में भी यही करना होता है।

आत्मोन्नति की दिशा में अग्रसर होने वाले को भी दो कदम बढ़ाने पड़ते हैं। एक वह जिससे पूर्व संचित कुसंस्कारों का त्याग-परिमार्जन, जो उस समय की परिस्थितियों में भले ही उपयुक्त रहे हों, किन्तु आज मानवी कलेवर की गरिमा के दृष्टि से ओछे जान पड़ते हैं तथा अनावश्यक भी होते हैं। इनके अपनाए जाने पर हानि ही होती है। छोटे बालक के लिए सिलाई गई पोशाक, उसके बड़े होने पर बेकार हो जाती है। भले ही उस समय कितनी ही सुन्दर क्यों न दिखती हो। कोई उसी को पहने रहने का आग्रह करे तो न केवल उसे जग हँसाई का सामना करना पड़ेगा वरन् बुद्धिमान लोग उसे पागल की ही संज्ञा देंगे। इन सबके अतिरिक्त तालमेल बिठाने में भारी अड़चन पड़ेगी। जबरदस्ती करने पर मुसीबत में ही फँसेगा।

सामान्य जीव जन्तु नग्न रहकर निर्द्वन्द्व विचरते हैं। बिना किसी प्रतिबन्ध-अनुशासन के मल-मूत्र त्यागते हैं। किसी रोक-टोक की उन्हें कोई परवाह नहीं। पर यदि ऐसा ही मनुष्य करने लगे। तो न केवल लोग उसे अशोभनीय मानेंगे, अपितु दिमाग की खराबी जान किसी पागलखाने में भरती कराना ही उचित समझेंगे। वह पक्ष उन योनियों में रहा होगा, तब ये प्रवृत्तियाँ उसे सहज और स्वाभाविक लगती थी इसी का अभ्यास भी था। पर अब उसके लिए आग्रह करना, अबुद्धिमत्तापूर्ण ही कहा जाएगा। इसे छोड़े बगैर कोई चारा नहीं।

न केवल पशु और मनुष्य के बीच भारी अन्तर पड़ता है, अपितु मनुष्य की विकसित अविकसित स्थिति के बीच भी ऐसा ही अन्तर हो जाता है। बच्चे जैसा हुड़दंग, स्वेच्छाचार करते हैं वैसी अनुशासनहीनता बड़े होने पर किसी भी प्रकार नहीं चल सकती। बचपन और प्रौढ़ता न केवल आयु के हिसाब से आँकी जाती है, वरन् इसके लिए स्तर को भी एक कसौटी माना जाता है। अनगढ़, कुसंस्कारी, लालची, मोहग्रस्त, निष्ठुर, कृपण, स्वार्थी प्रकृति के व्यक्ति चाहे कितनी ही आयु के क्यों न हो, अविकसित ही माने जाएँगे। ऐसे लोग- ऐसी भूल करते हैं, ऐसी कुचेष्टाएं करते हैं, जिन्हें अनैतिक और अवाँछनीय ही माना जाएगा। ऐसी ही स्थिति में पाप कर्मों का उभार बाहुल्य रहता है। आत्मिक उत्कर्ष की दिशा में बढ़ने वालों का पिछला कदम उस स्थान से हटाना पड़ता है, जहाँ यह पहले जमा हुआ था। इसको परिशोधन या परिवर्तन की संज्ञा दी गई है।

महल बनाने के पूर्व उसकी नींव खोदनी पड़ती है। नींव की गहराई और मजबूती पर ही महल की महत्ता टिकाऊ और मजबूत मानी जाती है। खेत बोने के पहले उसकी जुताई करनी पड़ती है। किसी भी उपकरण को ढालने से पूर्व धातु को गलाना आवश्यक माना जाता है। पकवान, मिष्ठान बनाने के पूर्व उसकी बनी सामग्री को कठिन अग्नि परीक्षा से गुजरना होता है। रोगग्रस्त को स्वस्थ होने के पूर्व कड़ुवी, बेकायदा औषधि पीने, सुई चुभोए जाने, आप्रेशन की टेबल पर लेटने, काँट-छाँट सहने जैसी आफतें सहनी पड़ती हैं। तभी उसका स्वस्थ हो पाना सम्भव बन पड़ता है। इस सबको पहला कदम या पिछला पैर उठाना कहा जा सकता है। विल्वमंगल को काम लोलुप से सन्त बनने के लिए कठोर तप करना पड़ा था। इतिहास के पन्ने ऐसे अनेकानेक व्यक्तियों के जीवन को स्पष्ट करते हैं, जो बहुत समय तक सामान्य से गई बीती स्थिति में रहे। अथवा यों कहें कि निन्दनीय और हेय जीवन जीते रहे। जधाई-मधाई जैसे डाकू, गिरीशचन्द्र घोष जैसे शराबी व्यसनी आदि की स्थिति भी ऐसी ही थी। इसके उपरान्त जब परिवर्तन हुआ तो कुछ से कुछ हो गए। इस विकास को नरपशु से देवमानव बनना भी कहा जा सकता है। ये परिवर्तन एकाएक नहीं हुए। इनके बीच एक मध्य बेला भी रही है। इसमें उन्हें अपने अभ्यस्त कुसंस्कारों से जूझना पड़ा है। साथ ही परिष्कृत जीवन जीने के लिए जिस नियमबद्धता और कठोर अनुशासन की आवश्यकता पड़ती है उसे भी जुटाना पड़ा है।

इन दो मोर्चों पर एक साथ युद्ध करने को ही तपश्चर्या कहते हैं। महान् परिवर्तनों के हर मध्यान्तर का यही स्वरूप रहा है। इसमें असुविधा भी होती है, कष्ट भी होता है। और एक अच्छे-खासे अन्तरंग-बहिरंग विग्रह का सामना करना पड़ता है। जमीन से उत्खनन किए गए धातु खनिजों का परिशोधन परिष्कार कर उनका उपयोगी उपकरणों में परिवर्तन भट्टी की प्रचण्ड ऊष्मा सहन करने तथा अनेकानेक रासायनिक विधियों से गुजरने के बाद ही बन पड़ता है। गर्भस्थ भ्रूण इसके पहले बन्धन से मुक्त हो, स्वच्छंद विचरण करे, उसे प्रसव पीड़ा से गुजरना ही पड़ता है। इसके बिना कोई चारा नहीं।

तपश्चर्या का दूसरा पहलू है, प्रभात के लिए अभ्यास। प्रत्येक दुर्बल यदि सबल बनना चाहे तो उसे व्यायाम शाला में निरन्तर निर्धारित कसरत-व्यायाम करने पड़ते हैं। सर्वविदित है कि अखाड़े की उठा-पटक, गुरु का कठोर अनुशासन कितना कष्टकारी होता है। पर इसके बिना कोई चारा नहीं। आग का ताप सहन कर सामान्य सा पानी ऐसे सशक्त भाप में परिवर्तित होता है जो भारी-भरकम दैत्याकार रेलगाड़ी को मिट्टी के खिलौनों के सदृश कान पकड़े तूफानी वेग से घुमाए फिरता है। मिट्टी की कच्ची ईंटें, भट्ट में लगने के बाद लोहे जैसी पुख्ता और सुन्दर दिखाई देती हैं। यह वह दुस्साहस है जो प्रगति पथ पर अग्रसर होने के लिए अपनाना पड़ता है। इसी रीति-नीति को अपनाकर सामान्य जन महामानव बनते रहे हैं। इसके लिए आत्मानुशासन, त्याग बलिदान का मार्ग अपनाना पड़ता है। और लोक कल्याण के लिए परमार्थ परायण बनकर अनेकानेक कष्ट कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। इस परीक्षा में गुजरे बिना किसी की प्रमाणिकता एवं विशिष्टता परखी भी तो नहीं जा सकती। आदर्शों के लिए कष्ट साध्य जीवन बिताने वाले तपस्वी ही सम्मान पाते हैं। महत्त्वपूर्ण कार्यों का दायित्व उन्हीं को सौंपा जाता है। कष्टों से बचने, मात्र बातों के छप्पर तानकर वरिष्ठता, श्रेष्ठता झटकने की इच्छा करने वाले प्रायः निराश या हताश ही देखे जाते हैं। परखे बिना सिक्के को भी कोई स्वीकार नहीं करता। खोटा दस नए पैसे का सिक्का देने वाले के सिर पर मार दिया जाता है। आदर्शों की बकवास करने वाले, दुनिया भर का भाषण झाड़ने वालों का कोई महत्त्व नहीं है। उनके प्रति जिसकी निष्ठ है, उसकी जाँच पड़ताल का एक ही आधार है कि उच्चस्तरीय उद्देश्य के निमित्त कौन कितनी कठिनाई सहन करने के लिए स्वेच्छा पूर्वक तैयार हुआ है। तप साधना का सिद्धान्त यही है। उसमें प्रगति की दिशा में बढ़ने के लिए आदर्शवादी त्याग बलिदान की माँग पूरी करनी पड़ती है। जीवनचर्या को सिद्धान्तों आदर्शों के सहारे अधिकाधिक पवित्र, प्रखर, परिष्कृत करने का न केवल संकल्प करना पड़ता है, वरन् उसे निष्ठापूर्वक निभाना भी पड़ता है।

सद्गुणों का सम्वर्धन तभी बन पड़ता है, जब दुर्गुणों का उन्मूलन हो। बबूल जैसे काँटेदार वृक्षों के जंगल के बीच आम जैसे फलदार पेड़ तभी उगाए जा सकते हैं जब बबूल का जंगल काटा जाय। आत्मोत्कर्ष के लिए तपस्या के द्विविध पहलू अनिवार्य ही नहीं आवश्यक भी हैं। गीताकार ने भी मन को सुगढ़, उर्ध्वगामी बनाने का एक ही उपाय सुझाया है- अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च रहस्येन अर्थात् निरन्तर अभ्यास और वैराग्य से ही मन उर्ध्वगामी बनता है। इसी प्रकार योगदर्शन के सूत्रकार महर्षि पतंजलि ने कहा है। अभ्यास वैराग्यभ्याँ तान्निरोधः। वैराग्य का तात्पर्य है उखड़ना और अभ्यास का तात्पर्य है रोपना। यही वो दो कदम हैं जिन्हें उठाने से हमारा जीवन सुरम्य उपवन की तरह ऐसा सुगंधित बन सकता है, जिसकी महक से अन्य भी शाँति शीतलता प्राप्त कर सकें।


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