एक आदर्श जीवन पद्धति की बानगी

November 2002

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नदी-तालाब के मीठे जल वाले जलचरों को यदि खारे पानी में, समुद्र में रखा जाए, तो उनका जीना दूभर हो जाएगा। हो सकता है, वे वहाँ जीवित न रह सकें, मर जाएँ या फिर अपना सामान्य स्वभाव त्याग दें और असामान्य व्यवहार करने लगें। यह सिर्फ जलीय जीवों की ही बात नहीं है, मनुष्यों पर भी समान रूप से लागू होती है। कृत्रिम वातावरण मानवी देह के अनुकूल नहीं। इसमें वह अपना स्वाभाविक विकास खो देती है, प्रखरता-क्षमता गँवाती और ह्रास की ओर चल पड़ती है। संपूर्ण अवयवों में ऐसे ही परिणाम परिलक्षित होने लगते है। उनकी कुशलता कुँद पड़ती जाती है, सक्रियता मंद होने लगती है और क्षमता में विशिष्टता का लोप हो जाता है, जबकि प्राकृतिक जीवन में वे अपने सर्वोच्च विकास को अर्जित करते और अद्वितीय बनते देखे जाते है।

मनुष्य एक प्राकृतिक प्राणी है। प्रकृति के सान्निध्य में प्राकृतिक ढंग से रहकर वह अपनी क्षमताओं और योग्यताओं को जितना अधिक संवर्द्धित कर सकता है, उतना अप्राकृतिक जीवन शैली का अपनाकर नहीं। आज खान-पान से लेकर रहन-सहन तक में ऐसे और इतने अस्वाभाविक तरीके अपनाए जा रहे है, जो हमारी शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक सामर्थ्य को पंगु बनाते चले जा रहे है। इस ओर यदि तनिक भी ध्यान दिया जा सके और आदमी अपनी दिनचर्या को सहज-सरल बनाए रख सके, तो प्रखरता और प्रतिभा, स्वस्थता और सामर्थ्य प्राप्त कर सकना कठिन नहीं रह जाता।

वनवासी शारीरिक रूप से जैसे सशक्त और मानसिक रूप से जितने सुदृढ़ होते हैं, उतना एक आम शहरी नहीं होता। उनमें प्रतिकूलता से जूझने, कष्ट-कठिनाइयों से लड़ने की शक्ति के अतिरिक्त शारीरिक सहिष्णुता और मानसिक मनोबल इतना प्रबल होता है कि वैसा विकास नगर के कृत्रिम जीवन शैली में यत्र-तत्र और यदा-कदा ही देखने को मिलता है। इसका कारण क्या है? इस पर गंभीरतापूर्वक विचार करने से यही ज्ञात होता है कि गाँवों से दूर शहरों में जीवन की भाग-दौड़ इतनी तीव्र होती है कि वहाँ हम अपनी नैसर्गिक दिनचर्या बनाए नहीं रख पाते और प्रकृति से दूर चले जाते है। परिणाम कुँठित प्रतिभा के रूप में सामने आता है। जो इस सचाई से अवगत है, उन्हें यह भी विदित होगा कि हमारी अपनी सत्ता में क्षमता और विशिष्टता तो है, पर वह स्वतः विकसित होने में असमर्थ होती है। जब उन्हें किसी ऐसे तत्व का सामीप्य मिलता है, जो किसी प्रकार उन क्षमताओं और योग्यताओं को कुरेदकर उभार सके, तो व्यक्ति असाधारण और अद्भुत बन जाता है, परंतु इस उन्नयन का श्रेय किसी और को नहीं, अपितु उस जीवन प्रणाली को दिया जाना चाहिए, जिसके जीवन में समाविष्ट न रहने पर सब कुछ सामान्य बना रहता है।

रसायन शास्त्र में ‘उत्प्रेरक’ नाम से रसायनों का एक समूह है। जब उन्हें किन्हीं दो रसायनों के साथ मिलाया जाता है, तो वे उनके बीच की प्रतिक्रिया को एकदम तीव्र कर देते है। मानवी जीवन में आदर्श जीवन पद्धति की लगभग ऐसी ही भूमिका है। जिंदगी में सम्मिलित होकर वह व्यक्ति की ऐसी कितनी ही विशेषताओं को मूर्तिमान कर देती है, जो अब तक या तो प्रच्छन्न या साधारण स्थिति में पड़ी हुई थी। इस क्रम में जब धृति, स्मृति और बुद्धि जैसी मस्तिष्कीय क्षमताओं का उदय होता है, तो मनुष्य अद्वितीय बुद्धिमान और ज्ञानवान बन जाता है, किंतु जब धैर्य, साहस और सहिष्णुता जैसे गुण प्रकट होते है, तो वे ‘जीवट’ प्रदान करते है, इसलिए यहाँ प्रयास की तुलना में अभ्यास पर अधिक ध्यान दिए जाने की आवश्यकता है। उल्लेखनीय है कि प्रयास-पुरुषार्थ से सामर्थ्य परिवर्द्धित तो की जा सकती है, पर वह किसी विशिष्ट जीवन प्रणाली के अभ्यास द्वारा उपार्जित प्रतिभा की अपेक्षा अधिक श्रमसाध्य होती है। उतना पराक्रम हर कोई कर भी नहीं सकता। ऐसे में प्रकृति की सन्निकटता ही क्षमता-संवर्द्धन का सरल उपाय दीखता है। इसमें दक्षता के साथ-साथ स्वस्थता भी बढ़ती है, इसलिए भी यह अधिक उपयोगी है। जो यह समीपता उपलब्ध कर पाने में असमर्थ है, उन नगर निवासियों के लिए प्राकृतिक जीवनक्रम अपना लेना भर ही पर्याप्त है। जल्दी शयन, प्रातः जागरण, प्रातः भ्रमण, दैनिक यज्ञ, नियमित जप, शुद्ध आचार, सात्विक आहार, श्रेष्ठ चिंतन और परोपकार की वृत्ति- इसे आदर्श जीवनपद्धति कहते है। इसको अपना लेने से भी आवश्यकता की काफी हद तक पूर्ति हो जाती है और वह लाभ प्राप्त हो जाता है, जो प्रकृति के मध्य रहकर प्राप्त किया जा सकता था। खोजने से ऐसे अनेकों उदाहरण मिल जाते है, जो इस बात की पुष्टि करते है कि सरल, सहज और सात्विक जीवन जीने से कौशल और निपुणता बढ़ती है एवं अनेक बार व्यक्ति को अद्भुत बना देती है।

ऐसा ही एक दृष्टाँत काशी का है। वहाँ आर्ष साहित्य के एक उद्भट विद्वान थे पंडित काशीनाथ। देखने में अत्यंत सरल, व्यवहार में विनम्र, पहनावे में सादगी, पर चिंतन में इतनी प्रखरता और विद्वत्ता मानो साक्षात सरस्वती ही रूप बदलकर आ उपस्थित हुई हो। उनकी दिनचर्या बहुत ही नियमित थी। वे प्रातः तीन बजे उठ जाते और दैनिक क्रिया से निवृत्त होकर प्रायः एक घंटे तक उपासना और ध्यान करते। उसके उपराँत भ्रमण के लिए निकल जाते। प्रतिदिन तीन मील की पैदल यात्रा करने के बाद यज्ञ करते, तत्पश्चात् उनका अध्यापन कार्य आरंभ होता, जिसमें वे करीब एक घंटा लगाते। ग्रंथों को पढ़ाते समय उनकी अद्भुत स्मरण शक्ति की झलक मिलती। छात्रों के सम्मुख पुस्तकें खुली रहती। वे उनका पाठ करते जाते और काशीनाथ व्याख्या। कई बार भूलवश शिष्यों से कोई शब्द छूट जाता, तो वे उसे तत्काल पकड़ लेते और बताते कि अमुक शब्द छूट गया है। उन्हें ग्रंथ-के-ग्रंथ कंठस्थ थे। वे व्याकरण और दर्शन के मर्मज्ञ माने जाते थे। ‘अनुभूति प्रकाश’ नामक वेदाँत ग्रंथ पर उनकी एक टीका है। उस टीका सके प्रत्येक श्लोक पर जिस ढंग से उनने उपनिषदों के एक-एक मंत्र को घटित किया है; वह उनके पाँडित्य का प्रमाण है।

जिन दिनों की यह बात है, उन दिनों काशी आज जितनी जनसंकुल नहीं थी। सात्विक वातावरण और शुद्ध पर्यावरण वहाँ चहुँओर व्याप्त था। यत्र-तत्र प्राकृतिक छटा भी विद्यमान थी। ऐसे में काशीनाथ में दया, करुणा और सेवावृत्ति का जो विकास हुआ, वह अप्रतिम था। उनकी सहनशीलता की चर्चा तो सर्वत्र होती ही रहती थी, उसकी एक बानगी यहाँ देखने योग्य है।

एक बार वे ‘अद्वैत सिद्धि’ नामक दर्शन ग्रंथ पढ़ा रहे थे। पढ़ाते-पढ़ाते कहने लगे, “कुछ काटत बा हो।”

“कहाँ महाराज ?”

“पिठिये में। अच्छा काटै दऽ, पाठ चले।”

पाठ समाप्त होने के बाद जब वस्त्र हटाया, तो वहाँ बिच्छू मिला, जो कई डंक मार चुका था। जिसने बर्र के डंक को झेला हो, उसे मालूम है कि बिच्छू का दंश कितना पीड़ादायक होता होगा। वह तो उससे अनेक गुना विषैला होता है। इसके बावजूद भी वे बिलकुल सहज बने रहे। इससे उनकी विलक्षण सहनशीलता का परिचय मिलता है।

ऐसे ही एक अन्य विद्वान थे, रामभवन उपाध्याय। व्याकरण के अद्वितीय पंडित होने के साथ-साथ अनेक शास्त्रों पर भी उन्हें पूर्ण अधिकार था। वे सब उन्हें मुखाग्र थे। स्मृति इतनी कुशाग्र थी कि किसी ग्रंथ के किसी अध्याय से कोई श्लोक बोलकर उससे आगे का श्लोक पूछने पर वे बिना एक क्षण रुके अगला श्लोक बता देते थे।

वे प्रायः रात्रि में दो बजे उठ जाया करते थे। स्नानादि करके संध्यावंदन एवं गायत्री जप करते, फिर हवन करने के उपराँत प्रातःकाल छह बजे क्वींस कॉलेज, काशी अध्यापन के लिए चले जाते। कॉलेज उनके निवास स्थान ‘बड़ी पियरी’ से लगभग तीन किमी. था। वे वहाँ चूडांत व्याकरण के प्राध्यापक थे और पैदल ही आया- जाया करते थे। उनकी चाल इतनी तीव्र थी कि साथ चलने वाला दूसरा व्यक्ति उनके बराबर नहीं चल पाता था।

पंडित जी एक निःस्पृह ब्राह्मण थे। अध्ययन-अध्यापन का कार्य वे प्रायः कर्तव्य-कर्म समझकर करते थे। वेतन पर उनकी दृष्टि कभी नहीं हुई। इसका एक उदाहरण उन दिनों का है, जब वे काशी के दरभंगा संस्कृत पाठशाला में अध्यापन कार्य करते थे। उन्हें वेतन के रूप में पंद्रह रुपये मासिक मिला करते थे, पर उन रुपयों को वे कभी अपने उपयोग में नहीं लाते, उनसे किसी जरूरतमंद की सहायता कर दिया करते थे।

वे एक सरल चित्त इनसान थे। चिंतन और आचरण में आश्चर्यजनक साम्य था। जिस प्रकार उनका चिंतन श्रेष्ठ था, उसी के अनुरूप उनके व्यवहार में सात्विकता और उदात्तता थी। वे शुष्क ज्ञान को निरर्थक बताते और कहते थे कि ज्ञान की गरिमा सद् आचरण में है। जो इसका परिपालन करते और प्रकृति के अनुसार जीवनयापन करते है, उनके प्रतिभाओं की कमी नहीं रहती। वे विकसित होती चली जाती है।

मानव जीवन प्रखरता और प्रतिभा का पुँज है। वह प्रकट हुए बिना रह नहीं सकता, पर अनेक बार अस्वाभाविक जीवनक्रम अपना लेने से वह आच्छादित हो जाता है और अप्रकट स्तर का बना रहता है। यदि उक्त आवरण को हटा लिया जाए, छल-कपट, द्वेष-दुर्भाव से दूर रहा जाए एवं जीवन को एकदम अकृत्रिम बना रहने दिया जाए, तो विशिष्टताएँ स्वयमेव प्रतिभासित होने लगती है और चरम विकास तक जा पहुँचती हैं। जहाँ बीज होगा, वहाँ वृक्ष के पनपने की संभावना निरंतर बनी रहती है। यदि उसे उचित माध्यम मिल जाए, तो वह आवरण फोड़कर बाहर निकल आता है। यह साधारण से असाधारण का प्रकटीकरण हुआ। इसकी संभाव्यता मनुष्य में भी बराबर बनी रहती है, पर हम जीवन शैली के नाम पर, प्रगति और सभ्यता के नाम पर इतनी रुकावटें, खड़ी कर लेते हैं कि जो जीवन प्रवाह सहज ढंग से प्रवाहित हो रहा था, वह बाधित हो जाता है। बाधित और अवरुद्ध जीवन में सब कुछ ठप्प बना रहता है, इसीलिए भारतीय मनीषी प्राकृतिक जीवन की सलाह देते हैं, जिसमें प्रकृति की समीपता के साथ-साथ जीवन की सरलता और स्वाभाविकता भी सम्मिलित हो। ऐसी जिंदगी ही सर्वांगीण विकास के अनुकूल है।

प्रकृति को माँ कहा गया है। माँ अपने बेटे को जितना सहज व सरल जीवन जीते देखना चाहती है, वह बात शायद ही किसी अन्य रिश्ते में पाई जाती हो। मनुष्य को चाहिए कि वह उसके इस मनोभाव को समझे और उसके अनुरूप आचरण करे, कृत्रिमता से दूर रहे और सब कुछ स्वाभाविक ढंग से चलने दें। देवमानव बनने का यह बहुत सरल उपाय है।


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