भारतीय संसद के पचास वर्ष का लेखा-जोखा

November 2002

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

सन् 2002 भारतीय संसद का स्वर्ण जयन्ती वर्ष है। हालाँकि यह अलग बात है कि संसद की इस पचासवीं सालगिरह पर स्वयं साँसदों के मन में अपने कर्त्तव्य के प्रति कोई विशेष उत्साह अथवा राष्ट्रबोध नहीं नजर आ रहा है। वे पिछले वर्षों की ही भाँति जोड़-तोड़ के नए-नए दाँव-पेंच ढूंढ़ने में लगे हैं। उनका आचरण भी प्रायः मर्यादा उल्लंघन के नित्य-नवीन मानदण्ड रच रहा है। इस सबके बावजूद इतिहास का सच शाश्वत है। और वह यही है कि 1947 में ब्रिटिश साम्राज्य की समाप्ति के बाद पण्डित जवाहर लाल नेहरू के नेतृत्व में भारत की अंतरिम सरकार बनी। वर्ष 1950 में देश का राष्ट्रीय संविधान बना और इसके बाद 1952 में पहले आम चुनाव हुए। और इसी वर्ष स्वतन्त्र भारत की पहली संसद का गठन हुआ। जो सन् 2002 में अपनी पचास साल पूरे कर रही है।

आज से पचास साल पहले प्रथम संसद के गठन के समय देश के आम नागरिक की आँखों में अनेकों सपने थे। उसके लिए आजादी अनगिनत आशाओं और अरमानों को लेकर आयी थी। अंग्रेजों की हुकूमत के दौरान दमन के जो दुष्चक्र उसने झेले थे, उससे छुटकारा मिला था। बहुतेरे सुनहरे सपने भारतीय जनता ने अपने दिलों में आजाद भारत और उसकी संसद के भविष्य के बारे में संजोये थे। यह कहते और लिखते हुए पीड़ा तो होती है, पर यह सच है कि इस स्वर्ण जयन्ती वर्ष के आते तक वे सपने टूटने-बिखरने और खोने लगे हैं। भारत की जनता की आँखों में फिर से एक सूनापन व्यापता जा रहा है। समझ में नहीं आ रहा है कि इसके लिए जिम्मेदार कौन है- हमारी संसदीय प्रणाली अथवा फिर वे साँसद, जिन्हें हम ही चुनकर संसद में भेजते हैं?

पचास वर्षों का कालखण्ड यद्यपि एक देश के जीवन में बहुत लम्बा नहीं कहा जा सकता। खास तौर पर तब जबकि वह देश भारत हो, जिसका इतिहास हजारों साल पुराना है। लेकिन समूचा प्रौद्योगिकी के वर्तमान युग में ये पचास साल काफी ज्यादा लगते हैं। भारतीय संसदीय जीवन के इन वर्षों का यदि संक्षेप में हिसाब-किताब किया जाय तो, इसके तीन भाग किए जा सकते हैं। इसमें से पहले भाग के अधिपति पं. नेहरू हैं। 1947 से लेकर 1964 तक जवाहरलाल जी न केवल देश के प्रधानमंत्री रहे, बल्कि भारतीय लोकतंत्र एवं इसकी प्रतीक संसद भी उन्हीं के इर्द-गिर्द घूमती रही। दूसरे दौर में यदि स्व. लालबहादुर शास्त्री के कार्यकाल की स्वल्प अवधि छोड़ दी जाय तो यह दौर प्रायः काँग्रेसी शासन की सत्ता पर पकड़ का रहा। इसी समय में संसदीय मर्यादाओं और वर्जनाओं के टूटने की शुरुआत हुई। शासन सेवा के लिए नहीं बल्कि सत्ता सुख भोगने के लिए- की संस्कृति इसी दौर में विकसित हुई। तीसरा और अन्तिम कालखण्ड संसद का वर्तमान युग है, जो परस्पर अविश्वसनीयता एवं निराशा का युग है। देश की जनता बहुत कुछ अंशों में अपने साँसदों एवं उनकी गतिविधियों से निराश हो चली है।

पिछले पचास सालों में यह स्थिति क्यों और कैसे आयी? यह एक विचारणीय सवाल है। क्या संसद सदस्यों का संसद के भीतर आचरण असंयत एवं अमर्यादित इसलिए है, क्योंकि उनके लिए कोई आचार संहिता नहीं बनायी गयी थी? लेकिन क्या आचार संहिता बनाने भर से उसका पालन सुनिश्चित हो जाता है? क्या हमारे संसद सदस्यों के आचरण के पीछे कुछ और भी कारण है, जिनके बारे में व्यापक विचार होना ही चाहिए? क्या इस सवाल पर व्यापक चिन्तन, मन्थन होना जरूरी नहीं है कि स्वाधीनता प्राप्ति के बाद से हमारे देश में जिस तरह की राजनैतिक संस्कृति विकसित हुई है, उसके रहते क्या संसद और संसदीय संस्थाएँ मजबूत बनी रह सकती हैं? क्या संसद और संसदीय संस्थाओं को मजबूत बनाने के लिए नए नियम और नयी आचार संहिता को अपने राष्ट्रीय कर्त्तव्य की इतिश्री माना जा सकता है?

इस समय हमारे देश की राजनीति का स्वरूप क्या बन गया है? ऐसे कितने लोग हैं, जिन्होंने देश और समाज के लिए अपने सर्वस्व को न्यौछावर करने की इच्छा से राजनीति में प्रवेश किया है? समाज और देश की सेवा करते हुए मर मिटने की भावना हमारे कितने साँसदों में है? वर्तमान राजनीति के प्रेरक तत्त्व कौन हैं, और इसकी विवशताएँ क्या हैं? किस सामाजिक, बौद्धिक एवं भावनात्मक पृष्ठभूमि के लोग हमारी संसद में चुनकर आते हैं? यही है वे प्रश्न जिन पर विस्तार से विचार करना भारतीय संसद की स्वर्ण जयन्ती पर एक राष्ट्रीय कर्त्तव्य है। क्योंकि इन सवालों पर विचार करने से ही यह जाना जा सकता है कि आज की स्थिति में आशा की कोई किरण फूटने की सम्भावना किस तरह से हो सकती है?

भारतीय संसद की उन जड़ों को छूने की कोशिश की जाय जो जमीन में धंसी हैं, तो पता चलेगा कि भारतीय राजनीति ने उन्नीसवीं सदी में अपनी आँखें खोली। शुरुआती दौर में इसका बहुत कुछ सम्बन्ध समाज-सुधार से भी रहा। इसी दौर में पत्रकारिता भी पनपी। बाद में जब स्वाधीनता आन्दोलन ने जोर पकड़ा, उस समय भी हमारे ज्यादातर नेता अपने जमाने के प्रखर बुद्धिशाली होने के साथ राष्ट्रीय भावनाओं से ओत-प्रोत थे। लोकमान्य तिलक हो या गोपालकृष्ण गोखले, अथवा फिर महात्मागाँधी ये सभी राजनैतिक सक्रियता के साथ-साथ बौद्धिक एवं भावनात्मक स्तर पर भी लोगों को काफी आकर्षित, प्रेरित एवं प्रभावित करते थे। उस समय के नेताओं के एक हाथ में राजनीति का झण्डा था, तो दूसरे हाथ में कलम। और इन दोनों हाथों को उनका राष्ट्रप्रेम ऊर्जावान बनाता था। पं. नेहरू स्वयं ही इसके उदाहरण हैं। इसलिए जब भारत की पहली संसद चुनी गयी थी, तो उसमें ऐसे लोगों का बाहुल्य था, जो राष्ट्रीय तप-साधना के महातपस्वी थे। जो राष्ट्रीय सवालों पर अपने-अपने नजरिए से गम्भीरतापूर्ण विचार करते थे। संसद को वे गहन राष्ट्रीय चर्चा का मंच समझते थे। संसद उनके लिए राष्ट्र देवता का मन्दिर था। साथ ही वे अपनी विधायी भूमिका के लिए सम्पूर्ण रूप से सचेत थे।

आज पचास सालों के बाद स्थिति बदली हुई है। आज हमारे ज्यादातर संसद सदस्य अपने संवैधानिक दायित्वों के प्रति उदासीन हैं। स्थिति यह है कि ज्यादातर महत्त्वपूर्ण विधेयक या तो बिना चर्चा के अथवा थोड़ी-बहुत छुटपुट चर्चा के बाद पारित हो जाते हैं। इस तरह की आवश्यक चर्चा को उपेक्षित कर संसद सदस्यों का विश्वास गला फाड़ कर चिल्लाने, अभद्र आचरण करने और सभी मर्यादाओं को तोड़कर अपनी बातों को मनवाने में बढ़ चला है। कभी राष्ट्र देवता का सर्वोच्च मन्दिर कही जाने वाली संसद आज साँसदों की इसी मन-मानी का मंच बनकर रह गयी है। कभी-कभी तो यहाँ के दृश्यों में हिंसात्मक दृश्यों को भी उभरते देखा जाता है।

राष्ट्रीय दूरदर्शन की कृपा से देश की संपूर्ण जनता, यहाँ तक कि विदेशी भी इन दृश्यों के दर्शन का लाभ बड़ी सुगमता से उठाते हैं। दूरदर्शन पर दिखने वाले दृश्यों में दो दृश्य इन पंक्तियों को लिखते समय बड़ी स्पष्टता से मानसिक नेत्रों के सामने उभर रहे हैं। इनमें से एक दृश्य है- भारतीय संसद का। दूरदर्शन पर हो रहे सीधे प्रसारण में जो कुछ दिखाई दिया और देखा गया वह बड़ा ही हास्यास्पद एवं लज्जाजनक था। बिना बारी के बोलना, दूसरों को बोलते समय लगातार टोकना, बेशुमार शोर-शराबा करना। इतना ही नहीं अध्यक्ष के आसन के सामने नारेबाजी करना, और सबसे बढ़कर बाहों को समेटते हुए एक-दूसरे से हाथा-पाई के लिए आगे बढ़ना। दूरदर्शन पर दिखने वाले इस दृश्य को देखकर सिर शर्म से झुक गया। बार-बार मन यही सोचने लगा, कि हमारे देश के साँसदों का आचरण तो स्कूली बच्चों से भी गया बीता है। इन्हें यह भी परवाह नहीं है कि दूरदर्शन के इस प्रसारण को देखने वाले लोग संसद एवं साँसदों के बारे में क्या सोचेंगे?

ये सवाल मन को पता नहीं कितने समय तक कुरेदते रहे? इसी बीच दूरदर्शन पर एक नया दृश्य देखने को मिला। यह दृश्य था स्कूली बच्चों द्वारा संचालित की जाने वाली मॉडल संसद के बारे में। ये किशोर बच्चे संसदीय मॉडल का संचालन कर रहे थे। संसद क्या होती है? भारतीय संविधान की मर्यादाएँ, वर्जनाएँ एवं रीति रिवाज क्या है? सबका सब यहाँ प्रत्यक्ष हो रहा था। सांसदों का गरिमापूर्ण आचरण, शिष्टता-शालीनता, अपने विरोधी के प्रति भी उच्चस्तरीय व्यवहार, सत्ता पक्ष का दायित्व बोध, सभी कुछ यहाँ नजर आ रहा था। इस दृश्य को जिन्होंने भी देखा होगा, वे शायद पहली बार यह सोच और देख पाए होंगे कि संसद की गरिमा क्या होती है? संसदीय आचरण, व्यवहार एवं शब्दावली क्या होती है। स्कूली बच्चों द्वारा संचालित इस मॉडल संसद को देखकर लगा कि काश हमारे साँसद इन बच्चों से ही कुछ सीख पाते? साथ ही मन में यह सोच भी उभरी कि दूरदर्शन पर देखे गए साँसदों के व्यवहार की स्कूली बच्चों से तुलना करना कितना गलत था। क्योंकि ये बच्चे तो उनके अच्छे शिक्षक साबित हो सकते हैं।

बात अटपटी है, पर शालीन प्रतिवेदन यही है कि यह पूरी तरह से सही है। यह अलग बात है कि ऐसा कैसे हुआ इसे समझना निहायत जरूरी है। भारतीय संसद की स्वर्ण जयन्ती वर्ष में इसे जान लेना बहुत आवश्यक है कि संसदीय प्रणाली पश्चिम के देशों में क्यों और कैसे कामयाब हुई? इस सवाल के विश्लेषणात्मक उत्तर में यह जानना होगा कि संसदीय प्रणाली की कामयाबी के तीन महत्त्वपूर्ण स्तम्भ हैं, पहला- जिम्मेदार सत्ता पक्ष, दूसरा है- जिम्मेदार विपक्ष और तीसरा इन दोनों से भी ज्यादा मजबूत और जिम्मेदार नैतिक पक्ष। जो सत्ता और विपक्ष की राजनीति से ऊपर उठकर राष्ट्र की नैतिक परम्पराओं का पोषक हो। और सत्ता तथा विपक्ष पर अपना नैतिक प्रभाव बना सके। इसे अपना राष्ट्रीय दुर्भाग्य कहना होगा कि अपने देश की संसदीय प्रणाली में ये तीनों पक्ष कभी भी भली-भाँति सुहृद नहीं रह सके। पं. नेहरू के समय स्थिति थोड़ी बहुत ठीक जरूर थी, पर बाद में सब कुछ ढहता...मिटता एवं बिगड़ता चला गया।

स्थिति यहाँ तक बदतर हुई कि कुछ एक शास्त्री जी जैसे अपवादों को छोड़कर संसद एवं लोकताँत्रिक प्रणाली के तीन नए आधार स्तम्भ विकसित कर लिए। इन नव विकसित स्तम्भों का नाम है- सम्प्रदायवाद, जातिवाद एवं भ्रष्टाचार। प्रायः सभी राजनैतिक पार्टियों ने इन अनैतिक स्तम्भों को सत्ता के शिखर तक पहुँचाने के लिए सीढ़ी के रूप में प्रयोग किया। राष्ट्र की संसदीय प्रणाली में हुए इन नवप्रयोग ने हमारे देश की ‘विविधता में एकता’ की संस्कृति को छिन्न-भिन्न कर दिया। संकीर्ण सम्प्रदायवाद एवं जातिवाद ने भारत की भोली-भाली जनता को एक-दूसरे के खिलाफ खड़ा कर दिया। भ्रष्टाचार का आलम तो यह है कि बड़ी आसानी से आज सत्ता को ही खरीदा बेचा जा सकता है।

संसद की स्वर्ण जयन्ती के अवसर पर हम चाहे जितने झूठे और ढोंगी दावे करते रहे कि हमारा देश दुनिया का सबसे बड़ा लोकतन्त्र है। किन्तु इस सच्चाई को झुठलाया नहीं जा सकता। जिम्मेदार सत्ता पक्ष, जिम्मेदार विपक्ष एवं मजबूत व जिम्मेदार नैतिक पक्ष के इन तीन आधार स्तम्भों को स्थापित किए बिना संसदीय लोकतन्त्र का ढाँचा बालू की दीवार की तरह है। जिसे कभी भी कोई भी, किसी समय भी ध्वस्त कर सकता है। यह हमारे सामाजिक, राजनैतिक एवं नैतिक चिन्तकों के लिए चुनौती है।

यदि संसदीय लोकतंत्र को बचाए रखना एवं सुदृढ़ बनाना है, तो देश के लिए नैतिक, बौद्धिक एवं सामाजिक क्रान्ति की व्यापकता ही समाधान है। इन क्रान्तियों में भागीदार होने एवं इन्हें बढ़ावा देने का अर्थ अच्छी वक्तृता देना नहीं है, बल्कि इनके विभिन्न कार्यक्रमों में अपनी सक्रिय जिम्मेदारी निभाना है। यदि इस तरह की सक्रिय जिम्मेदारी को संसद सदस्यों का अनिवार्य राष्ट्रीय कर्त्तव्य बना दिया जाय तभी राष्ट्र देवता के सर्वोच्च मन्दिर की खोई गरिमा व आभा फिर से लौट सकती है। नैतिक, बौद्धिक एवं सामाजिक क्रान्ति की उत्साहपूर्ण भागीदारी ही भारतीय संसद की स्वर्ण जयन्ती का सच्चा महोत्सव है। इसमें बिखरते उल्लास में भारतीय संसद के उज्ज्वल एवं सार्थक भविष्य के सपने देखे जा सकते हैं।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118