परमपूज्य गुरुदेव की अमृतवाणी - ध्यान क्यों करें? कैसे करें?

November 2002

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जून, 1977 में गायत्री तीर्थ शाँतिकुँज में दिया उद्बोधन (पूर्वार्द्ध)

गायत्री मंत्र हमारे साथ-साथ-

ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।

देवियो, भाइयो, क्रिया और विचार इन दोनों बातों का समन्वय अगर आप कर डाले, तो चमत्कार पैदा हो जाएगा। बया नाम का एक पक्षी होता है। जब वह अपना घोंसला बनाता है, तो कैसी तबियत से बनाता है, कैसे मन से बनाता है कि छोटे-छोटे तिनकों का एक-एक चुनकर के लाता है। उन्हें गूँथकर ऐसा बढ़िया घोंसला बना देता है कि क्या मजाल है कि अंडा हवा के झोंके से तबाह हो जाए? क्या मजाल है कि कौआ उसमें झपट्टा मार दे? उसमें उसके बच्चे मौज साथ बैठे देखते रहते है। कोई आदमी सड़क पर से जब निकलता है, तो उस घोंसले को देखता रह जाता है कि यह बया का घोंसला है। कितना शानदार घोंसला है। हर जगह से उसकी प्रशंसा होती है। बया स्वयं प्रसन्न रहती है और देखने वालों की तो तबियत बाग-बाग हो जाती है।

मित्रो, क्या विशेषता है बया में? कोई विशेषता नहीं है। बेटे, मन लगाकर कोई भी काम करो, तो शानदार होता है। मन लगाकर काम नहीं किया जाए, तो बेटे उसका सत्यानाश हो जाता है। एक पक्षी का नाम है- कबूतर। कबूतर बया की तुलना में चार-पाँच गुना बड़ा होता है। इतना बड़ा होता है, पर घोंसला कैसे बनाता है? बया का घोंसला जरा आप देखना और कबूतर का भी घोंसला देखना। वह बड़ी-बड़ी लकड़ी बीनकर ले आता है और एक इधर रख दी, एक उधर रख दी और एक किधर को रख लेता है और उसमें ही अपने अंडे देने लगता है। उस पर ही बैठा रहता है। हवा का झोंका आता है, बस घोंसला गिरता है नीचे और कबूतर गिरता है ऊपर। अंडे फूटकर अलग हो जाते है, बच्चे मरकर जहन्नुम चले जाते है। उसकी सारी-की-सारी व्यवस्था गड़बड़ा जाती है और देखने वाले कहते है कि यह कबूतर बेअकल है, कैसा बेवकूफ है।

काम में मन लगाइए

बेटे, मैं क्या कहता हूँ? यह कहता हूँ कि अपने सामान्य जीवन के सारे क्रियाकलाप, चाहे वे बहिरंग जीवन के हों या अंतरंग जीवन के, मामूली काम के लिए भी अगर आपने काम में तबियत नहीं लगाई, आपने मन नहीं लगाया, जब काम बड़ा फूहड़, कुरूप, बेसिलसिले का, बेहूदा, बेढंगा हो जाएगा। अगर किसी काम में मन लगा दिया जाए, तो उसमें एक चमत्कार दिखाई पड़ेगा, जादू दिखाई पड़ेगा। मन लगाकर किए हुए काम और बिना मन लगाए किए हुए कामों में जमीन-आसमान का फरक होता है। स्पष्ट दिखाई देता है कि यह मन लगाकर किया गया है या नहीं। यह मशीन हमारे सामने रखी है। इसमें दो तार हैं, एक निगेटिव कहलाता है। और एक पॉजिटिव कहलाता है। इन्हें ठंडे और गरम तार भी कहते हैं। दोनों मिल जाते है तो करंट चालू हो जाता है और अगर दोनों को अलग कर देते है, तो एक तार बेकार सा हो जाता है, दूसरा भी बेकार पड़ा हुआ है, कुछ काम आता नहीं। शरीर को हम अलग कर दें और मन को हम अलग कर दे, दोनों का हम समन्वय न करे, तो हमारे जो भी काम होगे बेसिलसिले के और बेहूदे होंगे।

मित्रो, एक काम है भजन। भजन के संबंध में भी यही बात है। बिना मन से किया हुआ भजन और मन से किए हुए भजन में जमीन-आसमान का फरक होता है। बिना मन से किया हुआ भजन ऐसा है, जिसमें केवल जबान की नोंक की लपालपी और हाथों की उँगलियों की नोंक की हेराफेरी की क्रिया भर होती रहती है। चावल यहाँ रख दिया, नमस्कारं करोमि, जैसी क्रियाएँ, दीपक इधर का उधर किया, आरती उतार दी, यह कर दिया, वह कर दिया। हाथों की हेराफेरी, वस्तुओं की उलटा पलटी और जीभ की लपालपी, बस भजन हो गया। अच्छा तो हो गया अनुष्ठान, हो गई साधना? नहीं बेटे, कुछ नहीं हुआ। यह तो केवल शारीरिक क्रिया हुई है। शरीर की क्रियाओं का जो फल मिलना चाहिए बस वही मिलता है। इससे ज्यादा कुछ और फल नहीं मिल सकता।

मन क्यों भाग जाता है

मित्रों, अगर साधना का चमत्कार आपको देखने का मन हो और साधना से सिद्धि की जो बात बताई गई है, वह करना हो तो आपको पहला काम क्या करना पड़ेगा? आपको सबसे पहले अपने काम में मन लगाना पड़ेगा। कोई भी काम हो, जिसमें भजन भी शामिल है, मन लगाकर करना पड़ेगा। भजन के साथ में मन लगाना चाहिए। मन लगाने से क्या मतलब है? मन लगाने से मतलब यह है कि मन भागना नहीं चाहिए और उपासना में लगना चाहिए। महाराज जी, यही तो हमको शिकायत है। क्या शिकायत है? मन भाग जाता है, अच्छा तो आपका यह शिकायत है। चलिए हम बताते है, फिर मन भाग जाए तो आप हमसे कहना। अब क्या करे? बेटे, मन को किसी काम में लगाया जाए। मन की बनावट ऐसी है कि जब कोई काम नहीं होगा तो मन भाग जाएगा। जब मन के भागने की आप शिकायत करते हैं, तो मैं हमेशा उसका उत्तर यह देता हूँ कि शायद आपने मन को किसी काम में नहीं लगाया। मन को काम में नहीं लगाया जाएगा तो मन भागेगा ही। घोड़े को आप काम में लगा दीजिए ताँगे में लगा दीजिए, सवारी में चला दीजिए, कहीं भी लगा दीजिए तो घोड़ा काम में लगा रहेगा, घोड़े को आप खोल दीजिए, उसके गले में से रस्सी खोल दीजिए फिर देखिए घोड़ा भागेगा ही। फिर आप कहेंगे कि साहब हमारा घोड़ा भाग गया। बैल को आप खाली छोड़ दीजिए, वह भाग जाएगा।

मित्रों, उपासना के समय भी हम अकसर अपने मन को खाली छोड़ देते है, छुट्टल छोड़ देते हैं। उसको कोई काम सौंपते नहीं, कोई जिम्मेदारी सौंपते नहीं, इसीलिए मन भाग जाता है। मन भागेगा नहीं तो क्या करेगा? नहीं साहब! मन भागना नहीं चाहिए। बेटे, मन भागेगा नहीं तो क्या करेगा? भागना तो उसकी आदत है। उसकी तो बनावट ही ऐसी है, उसकी संरचना ही ऐसी है, उसकी इलेक्ट्रॉनिक संरचना ही ऐसे ढंग से की गई है कि उसको भागना चाहिए। भागना तो उसका स्वाभाविक गुण है। अगर वह भागेगा नहीं तो आदमी या तो सिद्धपुरुष हो जाएगा, समाधि में चला जाएगा या फिर पागल हो जाएगा। दो में से एक काम हो जाएगा। मन को तो भागना ही चाहिए। भागना उसका स्वाभाविक गुण है इसलिए उसका कोई कसूर नहीं है। मन का भागना बंद कीजिए। नहीं बेटे, यह नहीं हो सकता।

मन का भागना बंद करने के क्या तरीके है? यह मैं कल आपको समझा रहा था कि उपासना में क्रिया के साथ-साथ मन को भी लगाइए। मन कैसे लगाएँ? बेटे, मैं यही तो समझा रहा था। प्रत्येक क्रिया के साथ क्या संकेत जुड़े हुए हैं, क्या शिक्षण भरा हुआ है, उस पर गौर कीजिए। साथ ही यह भी गौर कीजिए कि किस काम के लिए यह किया जा रहा है। जिस काम के लिए सभी किया जा रहा है, क्रियाएँ जो भी की जा रही है, उनका उद्देश्य क्या है? आम लोगों ने क्रियाओं को यह समझ रखा है कि कोई ऐसी बात नहीं है। कुछ लोगों का यह भी ख्याल है कि क्रियाओं को देखकर भगवान भी प्रसन्न हो जाते है। क्या कर रहे है? बच्चों जैसी उलटी पुलटी हरकतें करते हैं। मम्मी हम यह घर बना रहे हैं। हाँ, बहुत खूब बेटे, अच्छा है घर बनाओ। भगवान जी! हमारे बच्चे को गायत्री मंत्र आता है। कैसा गायत्री मंत्र आता है? “ऊँ भूँ भूँ भूवः”। अच्छा तो तू भी ऐसे ही भूँ भूँ कर लेता है। भगवान जी, वैसे तो समझते है कि आदमी जबान से क्या क्या बकवास कर लेता है। अब चलिए मैं आपके मंत्रों को बकवाद कहता हूँ। जीभ की नोंक से आप क्या वक वक मचाते रहते हैं। उससे भगवान प्रसन्न नहीं होता है। तो क्या केवल हाथों की उलटा पुलटी और जीभ की नोंक की हेराफेरी से भगवान प्रसन्न नहीं होता है? हाँ बेटे, नहीं होता है। तो किससे प्रसन्न होता है? आपके मन से, हृदय से और भावनाओं से।

चेतना व चिंतन का मेल हो

मित्रों, आपका जो वास्तविक अस्तित्व है, जो हाथ नहीं आता है, वह पदार्थ नहीं है, चावल और धूपबत्ती नहीं है, जीभ की नोंक नहीं है। आपका जो वास्तविक अस्तित्व है, जिसके द्वारा भजन किया जाना चाहिए, वह है आपका चिंतन। चेतना चिंतन से ताल्लुक रखती है। चेतना का स्रोत है- चिंतन। चिंतन को कहाँ लगाएँ? सीधी-सी बात है- चिंतन कहाँ लग रहा है यह आप देखें। आप कही लग रहे हो, जीभ कही लग रही हो, वस्तुएँ कही भी रखी हों, माला कहीं भी चल रही हो, पर बेटे, आप यह बताइए कि आपका चिंतन कहाँ लग रहा है? गुरुजी! चिंतन तो भागता रहता है। तो बेटे, भजन कहाँ हो रहा है? चिंतन को लगाने का उद्देश्य यह है कि जिस काम के लिए जो क्रियाएँ कराई जा रही हैं आप उस इशारे पर आ जाइए कि उस इशारे के साथ में आपको क्या चिंतन करना चाहिए?

बेटे, हम सबेरे आत्मध्यान कराते हैं। आत्मध्यान कराने के साथ-साथ सजेशन देते हैं, निर्देश देते हैं। इसका क्या मतलब है? निर्देश से मतलब है कि जिस समय हम जो बात कहें, वैसे ही आपका विचार चलना चाहिए। जो हम कहें वैसी कल्पना कीजिए। हमने कहा, सप्तऋषियों का तपस्थान, आप ध्यान कीजिए कि सात ऋषि बैठे हुए हैं। बड़ा घना जंगल है और सातों ऋषि समाधि लगाए हुए बैठे हुए हैं। यह पुनीत स्थान जहाँ उनके शरीर पेड़ों की सघन छाया में है। आप इस तरह की कल्पना कीजिए, मन स्थिर हो जाएगा। बेटे, आपका मन भाग जाए, तो हमसे कहना। हम जो बताते हैं उसमें आपको ध्यान लगाना चाहिए, फिर देखिए कैसे मन भाग जाएगा। सबेरे हम आपको जो सजेशन देते हैं, उसके हिसाब से आप अपने चिंतन को और अपने विचार करने की श्रेणी को उसी पर स्थापित कीजिए, केंद्रित कीजिए। हमने आपसे कहा- प्रातःकाल का स्वर्णिम सूर्योदय। आप विचार कीजिए कि प्रातःकाल का लाल रँगा सूरज, सबेरे निकलता हुआ बड़ा वाला सूरज, पूरब से निकला, थोड़ा निकला, अभी थोड़ा और बढ़ा, अभी और बढ़ा और पूरा सूरज निकल आया। क्या मतलब है? बेटे, हमने आपसे कहा कि अपने मन को हमारी कही हुई बात पर लगा दें, फिर आपका मन उस काम पर लग जाएगा, तो भागने का सवाल ही नहीं है। यदि काम पर नहीं लगा, तब तो भागेगा ही।

इसलिए क्या करना चाहिए? प्रत्येक क्रिया के लिए जो कर्मकाँड बनाए गए हैं, वे श्रेष्ठ काम के लिए बनाए गए हैं। कर्मकाँड करते समय आपका ध्यान इस क्रिया पर जाए, जो बोलकर तो नहीं बताई गई है, पर क्रिया के माध्यम से बता दी गई है। कल हमने आपको बताया था कि आचमन से हमारी वाणी का परिष्कार होता है। कल जब आप आचमन करे तो यह ध्यान करे, यह विचार करे कि हमारी वाणी का संशोधन हो रहा है। वाणी को हम धो रहे हैं, वाणी को हम साबुन लगा रहे है। वाणी को पत्थर पर पीट रहे हैं, वाणी की ढलाई कर रहे हैं। वाणी पर पानी डाल रहे हैं। जैसे बच्चा गंदा हो जाता है। टट्टी कर आता है, तो उसके ऊपर बाल्टी से पानी डालते हैं, उसे धोते हैं, नहलाते हैं, उसको साफ करते हैं। आप यह विचार कीजिए कि हमारी वाणी जो अभक्ष खाने की वजह से, अवाँछनीय वार्त्तालाप करने की वजह से गंदी हो गई है, इसको हम धोते है और साफ करते है। जैसे धोबी धोबीघाट पर कपड़े ले जाकर पत्थर पर रगड़ता है। आप कल्पना कीजिए कि अपनी जीभ को धोबी की तरह से हम घाट पर ले जाते है और पत्थर पर रगड़कर धोते हैं। पानी का जो हमने आचमन कर लिया, उसके सहारे हम अपनी जीभ को दे पिटाई-दे पिटाई, दे डंडा-दे डंडा और उसका सारा-का-सारा कचूमर निकाल देते है। फिर देखिए कि वह गंदी रहेगी कि साफ होगी? साफ होगी।

साधना ऐसे जीवंत होगी

गुरुजी! और क्या बताएँगे? बता तो रहे है। बेटे, प्रत्येक क्रिया के साथ में चिंतन दिया हुआ है। ऋषियों ने जितने भी कर्मकाँड बनाए है। उनके साथ में चिंतन दिया है। चिंतन के साथ-साथ क्रिया को मिला देंगे, तो मन और क्रिया का समावेश हो जाएगा। यह दो चीजें शामिल हो जाएंगी- विचारणा और क्रिया तो चमत्कार हो जाएगा। विचारणा और क्रिया को मिला देने से हमारा शरीर और मन जिस तरीके से दोनों एक बन जाते है, वैसे ही आपकी साधना जीवंत हो जाएगी। प्रत्येक क्रिया के साथ हम पाँच उपासनाएँ बताते है। पाँच उपासनाओं का मोटा-मोटा स्वरूप हमने पत्रिकाओं में भी छापा दिया था और पिछले साल भी हमने स्वर्ण जयंती साधना भी सिखाई थी। गुरुजी! हम स्वर्ण जयंती साधना वर्ष की साधना करते हैं और भजन भी पैंतालीस मिनट करते हैं। भजन तो करता है बेटा, पर तू एक बात तो बता तो बता कि उस कर्मकाँड के साथ-साथ जो विचार हैं, उनको भी करता है कि नहीं।

नहीं महाराज जी! मैं तो लगा रहता हूँ, बस माला पूरी कर लेता हूँ। माला पूरी कर लेता है तो तेरे लिए बहुत-बहुत धन्यवाद। तेरे लिए बहुत आशीर्वाद, परंतु बेटा जब माला करता है, तो उसके साथ-साथ विचारों को भी लाता है कि नहीं? महाराज जी, विचार तो मेरे भागते रहते हैं। तो बेटा, भगवान की उपासना तेरी अधूरी है। तेरी उपासना का जो परिणाम मिलना चाहिए था, उससे जिस वातावरण का परिशोधन होना चाहिए था, उस वातावरण का परिशोधन हुआ क्या? जिस उद्देश्य से हमने प्रेरणा दी थी, शक्ति दी थी और दीक्षा दी थी, शिक्षा दी थी। न हमारा उद्देश्य पूरा हुआ न तेरा हुआ और न ही भगवान का। तीनों में से एक का भी उद्देश्य पूरा नहीं हुआ इसलिए क्रिया के साथ-साथ में विचारणा का समावेश करने की शिक्षा मैं हमेशा देता रहा हूँ और देता रहूँगा।

मित्रों, कल मैंने आत्मशोधन की प्रक्रिया आपको बताई थी कि गायत्री पंचमुखी भी है। पाँच कोशों में उसके पाँच मुख है। गायत्री उपासना पाँच चरणों में बँटी हुई है। पहला कृत्य है- आत्मशोधन की क्रिया। आत्मसंशोधन की क्रिया जिसमें हम पाँच कृत्य कराते है। 1. पवित्रीकरण कराते हैं, 2. आचमन कराते हैं, 3. शिखा बंधन कराते हैं, 4. प्राणायाम कराते हैं, 5. न्यास कराते हैं। इन पाँच क्रियाओं का एक उद्देश्य है कि हम अपने पाँचों कोशों को, पाँचों तत्वों को, पाँचों प्राणों को शुद्ध बनाते है। उपासना में पहला काम है सफाई करना। हमारे दिमाग में एक बात आनी चाहिए कि हमको भगवान के चरणों में जाने के लिए नहा-धोकर जाना चाहिए। स्वच्छ और पवित्र होकर जाना चाहिए। हमारे जीवन की क्रियाएँ पवित्र होनी चाहिए। हमारा चिंतन पवित्र होना चाहिए। हमारे साधन पवित्र होने चाहिए और हमारे जीवन की गतिविधियाँ पवित्र होनी चाहिए। अगर हम पवित्रता का पहला उद्देश्य पूरा कर लेते है, तो समझना चाहिए कि पाँच मुख वाली गायत्री की हमारी उपासना सफल हुई।

सर्वप्रथम, जीवन का परिष्कार

गायत्री के पंचकोश जागरण करने की प्रक्रिया में गुरु जी आपने तो ब्रह्मचर्य की बात कही थी। बेटे, हम बताते है कि ब्रह्मचर्य तेरे लिए यही से शुरू होता है। औरों के लिए, बड़ों के लिए हम कुँडलिनी बता देंगे, पर तेरे लिए कुँडलिनी जगाना बेकार है। तेरे लिए तो यही से शुरू होता है। तू यह बता कि तूने अपने जीवन का परिष्कार कर लिया कि नहीं, तभी बेटे बात बनेगी अन्यथा नहीं? हमारे गुरु ने हमें बार-बार बुलाया है। बार-बार बुलाने की शृंखला उन्होंने उस समय से प्रारंभ की जिस समय कि हमारे चौबीस लक्ष के चौबीस गायत्री महापुरश्चरण पूरे हो गए। जब उन्होंने यह देख लिया कि इसने अपना मन, अपना शरीर और अपनी जिह्वा का संशोधन करके इस लायक बना लिया कि हमारी गोदी में आ सकता है, तब उन्होंने अपनी लंबी वाली भुजाएँ फैलाई और कहा, अब तो तुझको मेरे पास आना चाहिए। मैंने कहा, पहले क्यों नहीं बुलाया था आपने? मुझे चौबीस साल हो गए, जब तो मैं जवान ही था। उन्होंने कहा, तब तक तू संशोधित नहीं हो सका था। मैंने देखा था कि तेरी सफाई में कमी थी, तेरी शुद्धता में कमी थी। तेरी शारीरिक और मानसिक शुद्धता का जो स्तर होना चाहिए, उसमें मैंने कमी पाई, इसलिए मैंने सोचा कि अभी और निखार लूँ, अभी और तेरे कपड़ों की धुलाई कर लूँ। अब तेरी चड्डी भी धूल गई, तेरा मन भी धुल गया, तेरा सब धुल गया, अब मेरा मन आता है कि तुझे गोदी में लूँ। अपने पिता से मैं लिपटता हुआ चला गया, उनका दूध पीता हुआ चला गया, उनकी शक्ति-सामर्थ्य को प्राप्त करता हुआ चला गया।

मित्रों, संशोधन का यह काम आवश्यक है, उपासना से भी ज्यादा, भजन से भी ज्यादा। कर्मकाँड से भी ज्यादा आवश्यक है। अति आवश्यक है कि आप भी अपना आत्मसंशोधन कर ले, तो बात बने। लोहा तब तक कच्चा रहता है, तब तक उसकी कोई चीज नहीं बन सकती। हमने भिलाई और टाटानगर में कच्चा लोहा देखा। कच्चा लोहा वैगन में भरकर आता था। कच्चा लोहा कहाँ से आता है? साहब! जरा लोहा दिखाना। यह ऐसा लोहा जैसे मिट्टी मिला हो। यह लोहा है। यह कैसा लोहा है? साहब! यही लोहा है। अरे बाबा! यह कैसा लोहा है, यह तो कुछ और ही है। नहीं बाबा! यही लोहा है मिट्टी मिला कच्चा लोहा। बेटे, कैसा लोहा था- मिट्टी थी, भारी-भारी पत्थर थे। तो अब इससे लोहा कैसे निकलेगा? देखिए अब तमाशा दिखाते है कि इसमें क्या-क्या होता है। कच्चा लोहा लिया और तुरंत लेने के बाद उसको भट्टी में डाल दिया, गरम किया, पकाया। पकाने के बाद में मिट्टी अलग होती चली गई और लोहा अलग होता चला गया। एक बार सफाई हो गई। दुबारा लोहे को फिर से भट्टी में डाल दिया, उसमें जो कच्चाई थी, कमजोरी थी, फिर उसमें से साफ हो गई। आगे भी फिर यही प्रक्रिया दोहराई गई। ऐसा होते-होते आखिर में सफाई की प्रक्रिया जब चलती चली जाती है, तो स्टेनलेस स्टील बनती जाती है। स्टेनलेस स्टील कैसी होती है? बेटे, ऐसी होती है, चाँदी जैसी। लोहे में और चाँदी में फर्क नहीं होता है? नहीं साहब! लोहा काला रहता है। नहीं साहब! काला नहीं होता सफेद होता है। लोहा मैला होता है, जंग लग जाती है। नहीं साहब! लोहे को जंग नहीं लगती। स्टेनलेस स्टील को देखिए, इसको जंग नहीं लगती है। तो क्या कच्चा लोहा स्टेनलेस लोहा हो सकता है? हाँ हो सकता है। कब जब लोहे को परिशोधित करते हुए, संशोधित करते हुए चले जाएँ।

सबसे बड़ा योगाभ्यास

मित्रो, वास्तव में जीवन जीने की विधि भी यही थी। पर हाय रे भगवान न जाने लोगों ने क्या कर दिया लोगों ने क्या व्याख्या कर दी। उपासना को, साधना को लोगों ने जादू मान लिया। अध्यात्म को मनोकामना पूरा करने का जादू मान लिया। यह जादू नहीं है, यह जीवन जीने की कला है। जीवन का संशोधित करने की विधि है। आपका जीवन इतना बड़ा जीवन है कि इस पर हम देवताओं को निछावर करते है, भगवान को हम इस पर निछावर कर सकते है। भगवान से बड़ा है जीवन। वह साक्षात् भगवान है। इस जीवन का परिष्कृत करना अपने आप में सबसे बड़ा योगाभ्यास है। उसे साधना कहिए, उसे तप कहिए, उसे भजन कहिए- इन सबका उद्देश्य भगवान का रिझाना नहीं है, भगवान की खुशामद करना नहीं है, भगवान को फुसलाना नहीं है, भगवान को बहकाना नहीं है। भगवान के आगे तरह-तरह के जाल बिछाना नहीं है। भगवान की उपासना का उद्देश्य एक तो यह है कि हम अपने आपको परिशोधित करते चले जाएँ। अपने आपका परिशोधन करते हुए चले जाएँगे, तो फिर देखेंगे कि क्या कमाल होता है। देखें क्या मजा आता है। देखिए आपके पास कैसे सब चमत्कार आते है। मैं आपसे यही कहने वाला था कि आप अपनी वाणी को संशोधित कर लीजिए, फिर आप अपनी जुबान से कहिए कि तेरा भला हो जाए, आशीर्वाद हो जाए और तेरा कल्याण हो जाए। फिर देखना क्या होता है और क्या नहीं होता है। कैसी-कैसी चीजें उड़ती हुई चली आती हैं।

आप अपनी आँखों को संशोधित कर लीजिए फिर देखिए, कैसे चमत्कार होता है। आँखों का संशोधित कैसे करे? आँखों का संशोधित ऐसे करे जैसे गाँधारी ने की थीं गाँधारी ने कैसे किया था? गाँधारी ने आँखों को संशोधित करने के लिए अपनी आँखों पर पट्टी बाँध ली थी। पट्टी बाँधने का मतलब यह है कि दूसरों की, व्यक्तियों की, नर और नारियों की जो मान्यताएँ है, उससे आप प्रभावित न हो। गाँधारी ने तो अपनी आँखों में पट्टी इसलिए बाँध ली थी कि उसका जो अंधा पति था, उससे उसकी शादी हुई थी, इसलिए उसने अपनी आँखों में पट्टी बाँध ली थी कि मेरा मर्द एक ही है, दूसरा कोई मर्द है ही नहीं। आँखों का संशोधन करने के पश्चात् न कोई जप किया, न तप किया और न कोई पूजा की, न कोई अनुष्ठान किया, न कोई ध्यान किया। गाँधारी ने आँखों में जो पट्टी बाँधी थी, उसका मतलब आपको समझ लेना चाहिए। पट्टी बाँधने का मतलब यह नहीं है कि अपने आप से पट्टी बाँधे। क्यों साहब, सूरदास जी ने अपनी आँखें फोड़ ली थी या फूट गई थी और हम भी फोड़ लें तो क्या भगवान दिखाई पड़ेंगे? बेटे, यह गलती तो मत कर लेना। आंखें फोड़ने से मतलब है कि हमारी जो कमीनी आंखें, दुष्ट आंखें हैं, जो नारी को, मातृशक्ति को विषय वासना के रूप में देखती हैं, तो उन्हें हम फोड़ दें अर्थात् बदल दें। फिर देखना आँखों का चमत्कार कैसे होता है।

गुरुजी, सिद्धियों का दूसरा तरीका बताइए? क्या तरीका बताएँ। कोई ऐसा मंत्र बताइए कि जिससे काली हमारे काबू में आ जाए, देवी हमारे काबू में आ जाए, फलानी हमारे काबू में आ जाए। धूर्त, देवी तेरे काबू में आ जाएगी, तो तेरा कचूमर निकाल देगी। कैसे? वैसे ही जैसे एक बार शुँभ ने अपने दूत से संदेश भेजा, कहा कि देवी तू हमारे काबू में आ जा। काबू से क्या मतलब है। तू हमारी बीबी बन जा। किससे कहने लगा था? चंडी से कि हमारे कहने में चल हमारे या हमारे भाई निशुँभ की सेवा में आ जा। देवी ने कहा, अच्छा आप हमें बीबी बनाना चाहते हैं? हाँ, आप हम पर हुकुम चलाना चाहते हैं? हाँ, आप हमें गुलाम बनाना चाहते हैं? देवी ने कहा, हम आपकी नौकरानी बन सकती हैं और गुलामी भी कर सकती हैं, पर हमने एक प्रतिज्ञा कर रखी है। आपको हमारी एक शर्त माननी पड़ेगी। बोले- क्या?

यो माँ जयति संग्रामे यो में दर्पं व्यपोहति। यो में प्रतिबलो लोके स में भर्ता भविष्यति॥

मैं तुझे अपना पति बनाने को तैयार हूँ और मैं तेरी पत्नी बनने को तैयार हूँ, लेकिन शर्त तो पूरी कर। कैसे पूरी करूं? ‘यो माँ जयति संग्रामे’ जो मुझको संग्राम में जीतेगा। आ जा मुझसे लड़, इतना पराक्रम, इतना पौरुष, इतना साहस दिखा। जितना साहस मुझ में है, इतना ही पराक्रम-पौरुष दिखा और यह कार्य ‘यो में प्रतिबलो लोके स में भर्ता भविष्यति’ संसार में जो मेरे समान बलवान होगा। जो मुझे संग्राम में पराजित कर देगा, हरा देगा, वही मेरा स्वामी होगा। मैं उसी की पत्नी बनूँगी, वरना नहीं बनूँगी। उसने कहा, मैं लड़ने को तैयार नहीं हूँ। तब देवी ने कहा, अब मैं तरी अकल ठीक कर दूँगी।

मित्रो, देवी को आप क्या बनाना चाहते है? देवी को औरत बनाना चाहते हैं, आप देवी के पति बनना चाहते हैं न। कौन बनना चाहता है? पति बनना चाहता है या भक्त बनना चाहता है? यह क्या कह रहा है गंदे मुँह से। बेटे, देवी हमारी माँ है। माँ हुकुम देती है और बच्चे को उसका पालन करना पड़ता है। पति का मतलब यह है कि पति हुकुम देता है अपनी बीबी को, खाना बना देना, थोड़ा काम कर हमारे पैर दबा आकर यही कह रहे थे न कि देवी जी को हमारा हुकुम मानना पड़ेगा, हमारा कहना मानना पड़ेगा। सब पर हुकुम चलाते हैं, गुरु जी को हमारा हुकुम मानना पड़ेगा। देवता को, भगवान को हमारा हुकुम मानना पड़ेगा। क्यों? हमने धूपबत्ती जला दी, आपके ऊपर हमने माला पहना दी। आप हुकुम चला रहे थे हमारे ऊपर? हाँ साहब, हम तो हुकुम चलाएँगे आपके ऊपर, हम तो चेला हैं। बड़ा आया चेला।

अपने मन को भगवान के साथ जोड़ दें

बेटे, आपको क्या करना पड़ेगा? आपको अपने मन को भगवान के साथ देवता के साथ जोड़ देना पड़ेगा। कल हमने आपको बताया था कि परिशोधन की प्रक्रिया के साथ सारे-के-सारे विचार उसमें जुड़े हुए हैं। किसमें? जो हम कर्मकाँड कराते हैं उसके साथ कर्मकाँडों का जादू इतना ही है कि प्रत्येक कर्मकाँड के साथ में शिक्षा भरी पड़ी है। वे सारी-की-सारी शिक्षाएँ आपके हृदयों में गूँजती रहें, दिमागों में चलती रहें। आपके चिंतन और विचारों की धारा वही बहती रहे, तो मैं समझूँगा कि आपने विचारों का और क्रिया का समन्वय कर दिया। (क्रमशः)


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