श्री ईश्वरचंद्र विद्यासागर (kahani)

November 2002

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पिता नौकरी करते थे। उन्हें तीन रुपये मासिक वेतन मिलता था। परिवार बड़ा होने से तीन रुपये में मासिक खरच चलाना मुश्किल था। ऐसी विपन्न स्थिति में बालक ईश्वरचंद्र की पढ़ाई का प्रबंध कैसे हो? पिता की छाती भर आती थी पुत्र की पढ़ने की उमंग और और अपनी विवशता देखकर।

अपने पिता की विवशता देखकर पढ़ाई के लिए ईश्वरचंद्र ने रास्ता निकाल ही लिया। उसने गाँव के उन लड़को को मित्र बनाया, जो पढ़ने जाते थे। उनकी पुस्तकों के सहारे उसने अक्षर ज्ञान कर लिया। एक दिन कोयले से जमीन पर लिखकर अपने पिता को दिखलाया। ईश्वरचंद्र की विद्या के प्रति लगन देखकर पिता बेतंगी का जीवन जीते हुए भी उसे गाँव की पाठशाला में भरती करा दिया। गाँव के स्कूल की सभी परीक्षाएँ ईश्वर ने प्रथम श्रेणी में पास की। आगे की पढ़ाई प्रारंभ करने में आर्थिक विवशता आड़े आ रही थी। ईश्वरचंद्र ने स्वयं अपनी राह बनाई और आगे पढ़ने के लिए माता-पिता से केवल आशीर्वाद भर माँगा। उसने कहा, आप मुझे किसी विद्यालय में भरती भर करा दें। फिर मैं आपसे किसी प्रकार का खरचा नहीं माँगूँगा।

तदनुसार पिता ने ईश्वरचंद्र को कोलकाता के एक संस्कृत विद्यालय में भरती करा दिया। विद्यालय में ईश्वरचंद्र ने सेवा, लगन और परिश्रम, प्रतिभा के बल पर शिक्षकों को प्रसन्न कर लिया। उनकी फीस माफ हो गई। पुस्तकों के लिए अपने साथियों के साझीदार हो गए और पढ़ाई से बचे समय में मजदूरी कर गुजारे का प्रबंध करने लगे। इस अभावग्रस्तता में ईश्वरचंद्र ने इतना परिश्रम किया कि उन्नीस वर्ष की आयु में पहुँचते-पहुँचते उन्होंने व्याकरण, साहित्य, स्मृति तथा वेदशास्त्र में निपुणता प्राप्त कर ली। यही युवक आगे चलकर ‘ईश्वरचंद्र विद्यासागर’ के नाम से विख्यात हुआ।


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