राजा हर्षवर्धन स्थानेश्वर के शासक थे। उन्हें विवशता में आक्रांताओं से जूझना और परास्त करने का कदम भी उठाना पड़ा, पर वस्तुतः उनकी संपदा, क्षमता और कल्पना धर्मोत्कर्ष में निरंतर लगी रही। हर पाँचवें वर्ष वे समस्त संप्रदायों के धर्मावलंबियों को एकत्रित करते, जिससे फूट-फिसाद छोड़कर मिल-जुलकर धर्म भावनाओं को आगे बड़ा सकना संभव हो सके। तक्षशिला विश्वविद्यालय में इस की व्यवस्था विशेष रूप से उन्होंने इसीलिए की थी।
उनके राज्य की आजीविका भी धर्म कार्यों में ही लगती थी। उन दिनों प्रगतिशील बौद्ध धर्म ही माना जा रहा था। उनने समय के अनुरूप विवेक और आदर्श को महत्व देते हुए बौद्ध धर्म का ही परिपोषण किया एवं अपना सब कुछ धर्म-धारणा के परिपोषण हेतु, मूढ मान्यताओं के निवारण हेतु प्रचार−कार्य में नियोजित कर दिया।