स्वाध्याय फले तब, जब पुरुषार्थ भी साथ हो

November 2002

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

अपवादों को यदि छोड़ दें, तो व्यक्ति में रूपांतरण की जो घटना घटती है, उसके दो ही प्रमुख माध्यम हो सकते हैं- स्वाध्याय और सत्संग। स्वाध्याय से सत्प्रेरणा मिलती है और सत्संग से सद्भावना पुष्ट होती है। जब ये आचरण में उतरती हैं, तो परिवर्तन सामने आता है, एक ऐसा परिवर्तन, जो सतत प्रवहमान रहे, तो मानव को महामानव और समाज को स्वर्ग बना देता है।

उदात्तीकरण का यह सामान्य सिद्धांत हुआ। सिद्धांत और प्रक्रिया दो भिन्न बातें हैं। सिद्धांत संभावना प्रकट करता है और उसे साकार करने की विधि प्रक्रिया है। प्रथम यदि द्वितीय में परिवर्तित न हो सके, तो थ्योरी सही होते हुए भी अभीष्ट की उपलब्धि न हो सकेगी। पुस्तक और प्रवचन हमें रास्ता दिखाते हैं और संभावना व्यक्त करते हैं कि यदि व्यक्ति को अच्छा वातावरण मिले, तो वह उत्कृष्ट बन सकता है। यह सिद्धांत मात्र है। इसे क्रिया रूप में बदले बिना परिवर्तन शक्य नहीं। क्रिया की प्रतिक्रिया होती है, तो रूपांतरण घटित होता है, फलस्वरूप व्यक्ति एवं समाज का अभिनव रूप सामने आता हैं।

इसी आशय का मंतव्य प्रकट करते हुए जे कृष्णमूर्ति कहते है कि श्रवण और अध्ययन आनंददायक तो होते हैं, पर परिवर्तन में इनकी भूमिका गणितीय सवालों को हल करने वाले सूत्रों जितनी ही होती है। सूत्र केवल संकेत मात्र होते हैं। विद्यार्थियों को इनके आधार पर अपनी अक्ल लगानी पड़ती है तभी प्रश्न का सही उत्तर मिल पाता हैं। ऐसे ही स्वाध्याय और सान्निध्य परिवर्तन की अनुकूलता तो उपलब्ध कराते हैं, पर इतना ही पर्याप्त नहीं हैं, अंतस् की हलचल और उथल पुथल भी अभीष्ट आवश्यक है। जहाँ इस प्रकार की क्रियाएँ नहीं होती, वहाँ परिवर्तन की प्रतिक्रिया भी दृष्टिगोचर नहीं होती।

एक उदाहरण से वे और भी अच्छे ढंग से स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि जब किसी व्यक्ति से दिन में अनेक बार अनेक लोग कहते हैं कि तुम बीमार जैसे लग रहे हो, तो शाम होते होते वह निश्चित रूप से अस्वस्थ हो जात है, कारण कि यह वाक्य उसके अंदर उद्दीपन आरंभ कर देता है। क्रिया चल पड़ती है, तो उसकी परिणति अस्वस्थता के रूप में तुरंत सामने आती है। वे लिखते है कि स्वाध्याय और सत्संग की वे अच्छी बातें अप्रभावी सिर्फ इसलिए सिद्ध होती है कि वे अंतराल की गहराई में उतरकर उस बिंदु को नहीं छू पातीं, जो बदलाव उत्पन्न करता है। यदि इस संदर्भ में अध्येता और श्रोता गंभीर बने रहें और पढ़े अथवा सुने हुए प्रसंग के प्रति इतनी संवेदनशीलता उत्पन्न कर सकें कि वे अंदर चलकर सीधे मर्म में आघात करें, तो रूपांतरण तत्क्षण घटित होना आरंभ हो जाएगा।

इसकी प्रक्रिया दो प्रकार से होती हैं- एक तो संदेश के प्रति इतना आकर्षण उत्पन्न किया जाए कि वह अंतस्तल में धँसकर बदलाव पैदा कर दे। इसके दूसरे प्रकार में खिंचाव तो होता है, पर उसका चुँबकत्व उतना प्रबल नहीं होता कि वह अवचेतन में आविर्भूत हो सके। ऐसी स्थिति में व्यक्ति को चेतन स्तर पर स्वयं प्रयास आरंभ करना पड़ता है। अपनी वासना और तृष्णा को बलपूर्वक दबाना और जो श्रेष्ठ तथा सुँदर है, उसे विकसित करना पड़ता है। इतना कर लेने मात्र से ही व्यक्ति का कायाकल्प हो जात है, उसका भीतरी दैत्य मर जाता है और उसकी जगह देव पैदा होता है। यही क्राँति है। इसे संपादित कर लेने वाला व्यक्ति महान और समाज गुणवान बन जाता है।

विवेकानंद ने एक बार अपने व्याख्यान में कहा था, “युवकों, तुम महान बनना चाहते हो, तो महानता को अपने भीतर घटित होने दो, श्रेष्ठता को अंतःकरण में प्रवेश पाने दो, हृदय कपाट को अनावृत्त रखो, ताकि इस संसार में जो कुछ उदात्त और उच्चस्तरीय है, वह तुममें आत्मसात् हो सके। याद रखो, मात्र शब्दों को श्रवण तंत्र से सुन भर लेने से विशेष कुछ न होगा, जो होगा, वह इतना ही कि तुम कष्ट कठिनाइयों को भूलकर थोड़े समय के लिए शाँति के समुद्र में डूब जाओगे, पर स्वयं शाश्वत शाँति का सागर न बन सकोगे। वह गहराई और गंभीरता पैदा न हो सकेगी, जो ये महासागर अपने में संजोए है। यह मत भूलो कि आने वाली पीढ़ियों के तुम भाग्य विधाता हो, भविष्य निर्माता हो। उज्ज्वल समाज का निर्माण वही कर सकता है। जो आत्मनिर्माण कर चुका हो। अतः इस व्याख्यान को अपने में उतर जाने दो, सिर्फ शब्दों से नहीं, वाक्यों से नहीं, वरन् भावों और क्रियाओं से।”

सचमुच शब्द और संदेश जब तक कार्यरूप में न परिणत हो जाएँ, कर्ता के लिए निरर्थक और निरुद्देश्य हैं। सार्थक वे तभी बनते हैं, जब आचरण में उतरें और दूसरों को अनुकरणीय प्रेरणा दें, अन्यथा बुद्धि विलास मात्र बनकर रह जाएँगे। किसी ने कही कोई अच्छी बात सुनी या पढ़ी तो उसे वह अपनी बुद्धि में, मस्तिष्क में कैद कर लेता हैं और दूसरों को सुनाता रहता है। फिर वह क्रिया न बनकर ज्ञान का, अध्ययन का, श्रवण का, स्मरण का विषय बन जाती हैं। इसका ज्यादा से ज्यादा उपयोग यही हो सकता है कि उसे हम वाणी बना लेते हैं, जबकि जीवन बनना चाहिए और अच्छाई यदि जीवन न बनी, तो अच्छी बातें पढ़ने सुनने का कोई अर्थ और उद्देश्य नहीं रह जाता, इसलिए मूर्द्धन्य मनीषी गुरजिएफ कहा करते थे कि उत्तम बातों के प्रति अभिरुचि जगाओ, उत्कंठा बढ़ाओ, उन्हें सुनो और सुनाओ, पर कही मत रुक जाओ। इतना पर्याप्त नहीं हैं। यह विचार मात्र है। इससे आगे का चरण अनुभव है। विचार से अनुभव की ओर यात्रा करके ही जानकारी को जीवन बनाया जा सकता है, उसे जिया जा सकता है। जहाँ जानकारी जीवन बन जाती है, वही श्रेष्ठता घटित होती है और रूपांतरण का प्रवर्तन होता है। इन दिनों चूँकि चिंतन से अनुभूति की ओर का प्रयाण मनुष्य में रुका हुआ है, इसलिए प्रत्यक्ष में स्वाध्याय और सत्संग की नियमित दिनचर्या दिखलाई पड़ने पर भी उनकी वह परिणति सामने नहीं आती, जो आनी चाहिए।

दुनिया में अच्छी बातों और विचारों का अभाव है। सो बात नहीं। अभाव है, तो मात्र ग्रहणशील हृदय का सुग्राहक मन यदि आदमी के पास हो, तो बुराई में भी अच्छाई ढूंढ़ी, और आत्मसात की जा सकती है, किंतु जहाँ हृदयंगम करने वाली गहराई ही न हो, वहाँ लाख प्रवचन सुनने और पारायण करने की प्रवृत्ति मनोरंजन जितना उथला प्रयोजन ही पूरा करती है। ऐसी दशा में साधारणजन अपनी कमजोरी को छिपाने के लिए अनेक प्रकार के बहाने गढ़ते और तर्क देते हैं। कहते है कि प्रभावशाली व्यक्तित्व के अभाव में ही सर्वसाधारण पर उसका प्रभाव नहीं पड़ सका। यह सच है कि उत्कृष्ट व्यक्तित्व का अपना पृथक प्रभाव होता है, पर बात यदि श्रेष्ठ है, तो वह कोई भी कहे, उसे अपनाने में अनख क्यों? इससे क्या फर्क पड़ता है। कि कहने वाला निपट निरक्षर है या कोई ज्ञानी विद्वान। अच्छाई कही से भी मिले, वह ग्रहण योग्य है, पर ऐसा होता नहीं है और इसका संपूर्ण दोष अपनी मनस्विता को न देकर वक्ता की ओर उछाल दिया जाता है। यह कैसी विडंबना है? यह तो ‘नाच न जाने आँगन टेढ़ा’ वाली लोकोक्ति जैसी बात हुई। सचाई तो यह है कि मनस्वी व्यक्ति ही स्वयं को बदल पाने और महानता की ओर ले जाने में सफल होते हैं। शेष अमनस्वी समुदाय के लिए सान्निध्य- श्रवण सुनने और भूलने से बढ़कर और कुछ भी नहीं है। इस प्रकार लंबे समय का उनका ज्ञान ग्रहण बेकार चला जाता है। इससे स्पष्ट है कि ग्रहण करने की अभीप्सा की अनुपस्थिति और ग्राह्य के प्रति उपेक्षा भाव ही वे कारण हैं, जो ज्ञान को व्यवहार में नहीं उतरने देते। जब पशु पक्षियों से शिक्षा ग्रहण कर दत्तात्रेय अनुपलब्ध की उपलब्धि कर सकते हैं, तो मनुष्य द्वार बतलाई गई उत्तम बात को धारण करने में किसी को क्यों आपत्ति होनी चाहिए? यह समझ से परे हैं।

विज्ञानवेत्ताओं का कहना है कि यदि लोहे को सोना और सीसे को चाँदी बनाना हो, तो एक ही कार्य करना पड़ेगा, उनकी परमाणु संख्या को परिवर्तित करना पड़ेगा। किसी प्रकार लोहे और सीसे को क्रमशः सोने और चाँदी वाली परमाणु संख्या प्रदान की जा सके, तो उनका रूपांतरण संभव है, पर यह सब कैसे किया जाए? इसकी प्रक्रिया उनके हाथ अभी नहीं लगी है। उनने मात्र अभी सिद्धांत दिया है, किन्तु केवल सिद्धांत से बदलाव संभव नहीं। इसके लिए प्रक्रिया का होना निताँत आवश्यक है। व्यक्तित्व निर्माण में पुस्तकों और प्रवचनों की ऐसी ही भूमिका है। वे मार्गदर्शन भर करते है। उनके आधार पर पुरुषार्थ स्वयं करना पड़ता है। यह प्रक्रिया है। प्रक्रिया यदि अप्रतिहत चल पड़े, तो साधारण से असाधारण बन जाना कठिन नहीं। फिर समाज को स्वर्ग बनते देर न लगेगी।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118