भक्तवत्सल जगन्नाथ जी का रथ मजार पर रुकता है

November 2002

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घर्र.....घरर.......घर्र..... की आवाज के साथ बढ़ता आ रहा भगवान् जगन्नाथ का रथ एक टूटी-फूटी मजार के सामने खीं...खच करके रुक गया। शत सहस्र व्यक्ति प्रभु के उस महारथ को खींच रहे थे। ढोल-मृदंग आदि विभिन्न वाद्ययन्त्रों के साथ भगवन्नाम कीर्तन ध्वनि समूचे वातावरण में गुँजायमान थी। भजन-कीर्तन एवं भगवान् जगन्नाथ की जय-जयकार के साथ बढ़ता हुआ रथ अचानक क्यों रुक गया? किसी को कुछ समझ में न आया। अनेकों ने अनेक तरह के उपाय किए रथ के पहियों-कलपुर्जों सहित मार्ग की पूरी तरह से छान-बीन की। किसी को कहीं भी किसी तरह अवरोध नजर नहीं आया। पुरी के राजा स्वयं रथ की रस्सी थामे थे। उन्होंने भी अनेक जतन कर लिए। पर भगवान् का रथ टस से मस नहीं हुआ। बहिन सुभद्रा एवं भ्राता बलभद्र सहित भगवान् जगन्नाथ न जाने क्यों उस स्थान पर रुके हुए थे।

सर्वेश्वर प्रभु का महारथ अचानक यहाँ क्यों रुक गया है? इस प्रश्न का उत्तर सभी जोर-शोर से खोज रहे थे। कइयों ने कई तरह के कायास लगाए। कुछ भक्तों ने सभी को जोर-जोर से नाम कीर्तन करने की सलाह दी। पर परिणाम कुछ भी न निकला। तभी एक भक्त को जैसे कोई भूली-बिसरी बात याद आयी। उसने पुरी के महाराज के कान में कुछ कहा। महाराज ने भी कुछ क्षण सोचने के बाद सहमति में सिर हिलाया। और उन्होंने महाभक्त सालबेग की जय का घोष किया। महाराज के कण्ठ से उच्चारित इस जय ध्वनि के साथ दूसरे सहस्र कण्ठों से भी भगवद्भक्त सालबेग की जय-जयकार होने लगी। अपने परम प्रिय भक्त की जय-जयकार सुनकर सम्पूर्ण जगत् के स्वामी भगवान् जगन्नाथ की मूर्ति जैसे मुस्कराई। प्रभु की इस लीला पर बलभद्र और देवी सुभद्रा की मूर्तियाँ भी विहंस उठी। इसी के साथ भगवान् का महारथ भी घरर..... घर्र की ध्वनि के साथ गुँडिबा देवी के मन्दिर की ओर अनायास बढ़ चला।

प्रभु के रथ को आगे बढ़ते हुए देख पुरी के महाराज ने सन्तोष की साँस ली। भगवद्भक्तों के मन भी हर्षित हो उठे। साथ ही रथयात्रा के साथ चले रहे भक्तों के बीच महाभक्त सालबेग की चर्चा भी चल पड़ी। सालबेग के परम लोकप्रिय भजनों के कारण उनके नाम से तो उड़ीसा का जन-जन परिचित था। पर उनकी जीवनगाथा से कम ही लोग वाकिफ थे। भक्तों के अनुरोध पर एक वृद्ध पुजारी ने बताना शुरू किया- ‘तब हिन्दुस्तान में मुगल बादशाह जहाँगीर की हुकूमत थी। उसने अपने नाम से मिलते-जुलते नाम वाले जहाँगीर कुरीखान उर्फ लालबेग को बंगाल का सूबेदार नियुक्त किया था। उड़ीसा की सम्पूर्ण क्षेत्र भी बंगाल की सूबेदारी का हिस्सा बन चुका था।’ पुजारी जी बता रहे थे कि हालाँकि उड़ीसा पर उस समय गजपतवंश के राजाओं का शासन था। पर इस वंश के अंतिम नरेश लालबेग की बहादुरी, चतुराई एवं उसकी विशालकाय सेना के सामने ठहर न सके। परिणामस्वरूप उड़ीसा की भागवत् भूमि बंगाल की सूबेदारी में समा गयी।

लालबेग ही उड़ीसा का सारा कर्त्ता-धर्ता बन बैठा। शासक होने के कारण उसका उड़ीसा में आना-जाना लगा रहता था। ऐसे ही एक बार जब लालबेग बंगाल से पुरी जा रहा था तो पुरी के पास दाँड मुकुँदपुर गाँव में उसकी नजर एक विधवा ब्राह्मणी पर पड़ी। वह ब्राह्मणी विधवा अत्यन्त ही रूप एवं सौंदर्य की धनी थी। सत्ता और वासना के मद में चूर लालबेग ने उसे उठवा लिया। बेचारी विधवा उस दुर्दान्त-दुराचारी के सामने क्या करती। लालबेग ने कटक पहुँचकर जबर्दस्ती उससे शादी कर ली। इसी विधवा ब्राह्मणी के गर्भ से सन् 1608 ईसवी में सालबेग का जन्म हुआ। सालबेग जब 12-13 साल का था, तब लालबेग उसे दिल्ली ले गया। वहीं पर सालबेग को युद्धकला की शिक्षा मिली। युद्धकला में सालबेग अतिनिपुण हो गया। यहाँ तक कि विभिन्न युद्धों में उसके युद्ध-कौशल एवं पराक्रम को देखकर हिन्दुस्तान का शहंशाह भी दंग रह गया। और उसने युवा सालबेग को एक बड़ी सेना का सिपहसालार बना दिया।

सालबेग भी सत्ता एवं यौवन के मद में झूम उठा। परन्तु शायद सर्वगर्वापहारी भगवान् जगन्नाथ उसे अपने पास बुलाना चाहते थे। इसी कारण एक युद्ध में सालबेग के सिर पर ऐसा घाव हो गया, जिसे कोई भी हकीम या जर्राह ठीक न कर सका। न चाहते हुए भी उसे अपनी माँ के पास पुरी लौटना पड़ा। कभी सिपहसालार रहा सालबेग उन दिनों सभी से उपेक्षित था। अपने पुत्र को इस तरह दुःखी, पीड़ित एवं विपन्न देखकर उस ब्राह्मणी ने उससे कहा- पुत्र! यदि तू मेरी बात माने तो मैं कुछ कहूँ। माँ की ममता का अलौकिक स्पर्श पाकर सिसकते हुए सालबेग ने कहा- माँ तू कह तो सही, तू जो कहेगी, मैं वही करूंगा। तब बेटा, तू सारे कपट छोड़कर, सम्पूर्ण विश्वास के साथ भगवान् जगन्नाथ के चरणों का आश्रय ले। वे तेरा सब कष्ट दूर करेंगे।

माँ की बातों पर समूचे मन से विश्वास करके सालबेग प्रभु के विभिन्न नामों का जप करने लगा। प्रभु प्रार्थना एवं नाम-जप में उसके दिन बीतने लगे। इस तरह एक-एक करके बारह दिन बीत गए। जब बारहवाँ दिन बीत गया, तब उसी रात्रि को सालबेग ने देखा कि भगवान् जगन्नाथ उसके सामने बालमुकुन्द वेश में खड़े हैं। और उससे कह रहे हैं- ले सालबेग! ले तू यह विभूति अपने घाव पर लगा ले। तेरे सारे कष्ट अब दूर हो जाएँगे। निद्रा में ही सालबेग ने वह विभूति लेकर अपने मस्तक और शरीर पर लगा ली। सहसा प्रभु की वह मूर्ति अदृश्य हो गयी। साथ ही सालबेग की निद्रा भी टूट गयी।

जागते ही सालबेग अपने को सम्पूर्ण रूप से स्वस्थ पाकर खुशी से चिल्ला उठा- अरे माँ! देख, तेरे करुणामय जगन्नाथ ने मेरा घाव ठीक कर दिया। उन्होंने मेरे सब कष्ट दूर कर दिए। माता भी अपने पुत्र को स्वस्थ देखकर प्रसन्न हो गयी। उसने भक्तिभाव से भगवान् को प्रणाम किया और कहने लगी- बेटा! जगन्नाथ मेरे ही नहीं तेरे भी हैं। अरे, वे तो सारे जगत् के हैं। तू ठीक कहती है माँ, अब से मैं सारा जीवन उन्हीं सर्वेश्वर की सेवा में लगाऊँगा। इसी के बाद सालबेग भगवान् जगन्नाथ की भक्ति में लीन हो गया। चूँकि मन्दिर में उसके लिए प्रवेश वर्जित था। इसलिए वह मन्दिर के बाहर बैठ कर भजन गाने लगा।

उसने उड़िया भाषा में 121 भजनों की माला पिरोकर भगवान् को समर्पित की। उसके ये भजन भक्ति संवेदना से इतने ओत-प्रोत थे, कि देखते-देखते सभी उड़ीसा वासी उसके भजनों को गाने लगे। सालबेग को भगवान् जगन्नाथ के अनन्य भक्तों में गिना जाने लगा। लेकिन फिर भी उस पर मन्दिर में प्रवेश की पाबन्दी बरकरार रही। भगवान् जगन्नाथ के भजन लिखते-गाते एक दिन सालबेग की मौत हो गयी। और जगन्नाथ मन्दिर से गुँडिबा मन्दिर के रास्ते में उसे दफना दिया गया। जब तक वह जीवित था, तब तक वह स्वयं दूर से प्रभु के रथयात्रा को देखा करता था। सुना जाता है कि मरने से पूर्व उसने कहा था कि यदि मेरी भक्ति सच्ची है तो मेरे मरने के बाद भगवान् स्वयं मेरी मजार पर दर्शन देने के लिए रुका करेंगे। और आज भगवान् ने सचमुच ही अपने भक्त की टेक रख ली। पुजारी द्वारा कही गयी यह भक्त गाथा सुनकर पुरी के महाराज भावविह्वल होकर बोल पड़े- भगवान् किसी हिन्दू या मुसलमान के नहीं वे तो भक्तों के होते हैं। इसी तरह धर्म भी किसी जाति विशेष का नहीं, वह तो सबका है, सनातन और शाश्वत है।

इस घटना को सैकड़ों साल बीत चुके हैं। पर तब से लेकर आज तक भक्तवत्सल जगन्नाथ का रथ हर साल अपने मन्दिर से अपनी मौसी गुँडिबा देवी के मन्दिर जाते हुए बीच में सालबेग की मजार पर रुकता है। अब तो इस स्थान पर एक मन्दिर भी बन गया है, जिसे श्रद्धाबलि मन्दिर कहा जाता है। अभी भी यहाँ सालबेग के ये स्वर तरंगित होते हैं-

बाप मो मुगल पुअ, माँ मो ब्राह्मणी एक कुले जन्मिले हिन्दु न खाए पाणी कहे सालबेग, जाति रे जबन श्री रंगा चरणे करछी प्रणाम।

अर्थात्- पिता मेरे मुगल पुत्र, माँ मेरी ब्राह्मणी, ऐसे कुल में पैदा हुआ, जिसका पानी भी हिन्दू नहीं पीते, हीन जाति का यवन सालबेग यह कहता है (और) श्री रंग चरणों में प्रणाम करता है।


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