गायत्री तीर्थ-शाँतिकुँज की वर्षभर चलने वाली सत्र व्यवस्था

November 2002

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परमपूज्य गुरुदेव के जीवन के उत्तरार्द्ध की एक महत्वपूर्ण स्थापना है- गायत्री तीर्थ-शांतिकुंज हरिद्वार। उत्तराँचल राज्य के मुख्य द्वार पर गंगा की गोद, हिमालय की छाया में स्थित यह पावन आश्रम अब तक लाखों व्यक्तियों के जीवन में आलोक का संचार कर चुका है। अगणित व्यक्ति जीवन-साधना में प्रवीण-पारगत होकर यहाँ से गए है। तप यहाँ के कण-कण में संव्याप्त है। प्रतिदिन चौबीस लख का गायत्री जप यहाँ संपन्न होता है, साथ ही यज्ञाग्नि से निकलते धूम्र से सारा वातावरण सुवासित रहता है। युगऋषि की जीवन यात्रा के अंतिम बीस वर्ष (क्क्स्त्रक् से क्क्क्) यहीं बीते है। हमारी मातृसत्ता-शक्तिस्वरूपा माता भगवती देवी शर्मा ने क्क्स्त्रक् से क्क्क्ब् तक के चौबीस वर्ष का अत्यंत महत्वपूर्ण समय यही तप में नियोजित किया एवं इस अवधि में यहाँ की सभी गतिविधियाँ का संचालन भी किया। ब्रह्मवर्चस शोध संस्थान एवं देवसंस्कृति विश्वविद्यालय ऐसी दो विलक्षण स्थापनाएँ है, जो शाँतिकुँज की गरिमा को कई गुना बढ़ाती है। ऐसे स्थान पर आना व कुछ दिन यहाँ के वातावरण में रहना भी अति दुर्लभ सुयोग माना जाना चाहिए।

ऐसे ही सुयोग के लिए यहाँ वर्षभर सत्र चलते रहते है, जिनमें साधक, प्रशिक्षण लेने वाले व्यक्ति आते रहते है और लाभान्वित होकर जाते है। प्रायः साठ एकड़ भूमि में फैली यह स्थापना निरंतर क्रियाशील रहती है, चाहे अत्यधिक शीत हो या तेज गरमी या वर्षा का मौसम हो। जब से यह आश्रम आरंभ हुआ, तब से ही बहुविधि सत्र शृंखला से अगणित व्यक्ति लाभान्वित होकर गए है एवं उन्हीं में से कई बाद में यहाँ के समयदानी या स्थायी कार्यकर्त्ता बन गए है। समाज को समर्पित लोकसेवियों की टकसाल इस सत्र शिक्षण परंपरा को नाम दिया जाए, तो कोई अत्युक्ति न होगी।

यहाँ के नियमित सत्र इस प्रकार है-

(1) संजीवनी साधना सत्र-

ये नौ दिवसीय होते है। प्रत्येक माह 1 से 1, 11 से 11 एवं 21 से 21 की तारीखों में चलते है। इनमें पूरी अवधि में चौबीस हजार गायत्री मंत्र जप का एक अनुष्ठान कराया जाता है, जो विदाई से पूर्व संपन्न हो जाता है। इसका संकल्प पूर्व संध्या को कराया जाता है, इसीलिए इन सत्रों में एक दिन पूर्व आना होता है। सत्र समाप्ति के बाद उसी दिन मध्याह्न तक स्थान खाली कर देना होता है। इन सत्रों में प्रतिदिन प्रातः निष्णात मनीषियों द्वारा अध्यात्म के विभिन्न विषयों पर प्रेरक उद्बोधक होता है। प्रातः जल्दी उठना होता है। सर्दियों में प्रातः चार बजे, गर्मियों से साढ़े तीन बजे। उठकर गायत्री मंदिर में प्रार्थना में भाग ले उषापान कर स्नान आदि के बाद सभी आरती में भाग लेते है। उसके बाद परमपूज्य गुरुदेव की वाणी में ध्यान कराया जाता है। तत्पश्चात् यज्ञशाला में यज्ञ एवं अखंड दीपक तथा गुरुसत्ता की चरणपादुकाओं के प्रणाम का क्रम आरंभ हो जाता है। उद्बोधन प्रातः 7 से 10.30 तत्पश्चात् भोजन एवं विश्राम का क्रम होता है।

मध्याह्न में पुनः गोष्ठी संपन्न होती है, जो साधकों को उपासना के उत्तरार्द्ध आराधना-समाजसेवा के विभिन्न दायित्वों से परिचित कराती है एवं संकल्पित कराती है। इस अवधि में एक दिन शाँतिकुँज-ब्रह्मवर्चस-देवसंस्कृति विश्वविद्यालय दिग्दर्शन हेतु मध्याह्न के बाद खाली रखा जाता है। प्रज्ञापुराण का शिक्षण एक दिन उसका प्रदर्शनात्मक प्रवचन से हो जाता है। इसके अतिरिक्त स्वास्थ्य परिचर्चा एवं ग्राम्य विकास पर किन्हीं दो दिनों में गोष्ठी भी ली जाती है, जो साधकों को नई दिशाएँ देती देती है। इन नौ दिवसों को माँ के गर्भ में रहकर बिताए गए नौ माह की अवधि की तरह माना जाना चाहिए। अंतिम दिन विदाई के समय लोग आँखों में अश्रु लिए रवाना होते है। उन्हें लगता है, मानों उनका आँतरिक कायाकल्प हो गया है। ये सत्र सभी शारीरिक दृष्टि से स्वस्थ, अनुशासन पालन का आश्वासन देने वाले एवं साधना में रुचि रखकर पूर्व अनुमति लेकर आने वाले हर साधक के लिए खुले है। न्यूनतम दो से तीन माह पूर्व शिविर विभाग, शाँतिकुँज हरिद्वार को अपना प्रतिवेदन भेज देना चाहिए। अनुमति आने पर ही आरक्षण कराना चाहिए।

(2) एकमासीय युगशिल्पी सत्र-

ये सत्र प्रतिमाह वर्षभर 1 से 21 तारीखों में चलते हैं। पहले सत्र की तरह एक दिन पूर्व आना होता है व संकल्प गोष्ठी में भागीदार करनी होती है। इन सत्रों की विशेषता यह है कि इनमें संगीत, संभाषण, कर्मकाँड एवं स्वावलंबन प्रधान ग्रामोद्योगों का प्रशिक्षण एक माह में इतना करा दिया जाता है कि प्रशिक्षित कार्यकर्त्ता भाई या बहन अपने बूते अपना संगठन चला सके, अपने पैरों पर खड़े हो सके। इन्हें भी उसी दिनचर्या का पालन करना होता है, जो संजीवनी साधना सत्रों में बताई गई है। प्रतिदिन प्रज्ञायोग प्रातःकाल संपन्न कराया जाता है, जो युगऋषि परमपूज्य गुरुदेव द्वारा प्रणीत सूर्य नमस्कार एवं विभिन्न आसनों का सम्मिश्रण है। एक बार सीख लेने पर यह पंद्रह मिनट की प्रक्रिया शरीर को सतत स्वस्थ एवं मन को प्रसन्न बनाए रखती है। ढपली वादन की सामूहिक संगीत की कक्षाएँ भी इनमें ली जाती है। बौद्धिक उद्बोधन प्रतिदिन चलते है। वनौषधि चिकित्सा, प्रज्ञापुराण कथावाचन के साथ एक आदर्श स्वयंसेवक बनाने वाली श्रमदान एवं भोजन व्यवस्था, आश्रम की सुरक्षा व्यवस्था में भागीदारी भी इस प्रशिक्षण का एक हिस्सा है।

इस एकमासीय सत्र के साधकों को बेकरी, अगरबत्ती निर्माण, स्क्रीन प्रिंटिंग, प्लास्टिक मोल्डिंग, लेमीनेशन, बागवानी, फर संरक्षण, गो विज्ञान पर आधारित उद्योगों तथा रचनात्मक आँदोलनों से जुड़े सभी प्रशिक्षण दिए जाते है। इन सभी साधक भाई-बहनों का ब्रह्मवर्चस में दो बार स्वास्थ्य परीक्षण होता है, जिसमें आहार, उपासना, श्रम-साधना के परिणामों का विश्लेषण किया जाता है। परामर्श के आधार पर परिजन स्वास्थ्य संवर्द्धन हेतु वनौषधि सेवन व बताई साधना को जीवन में उतार सकते है। सभी साधकों का अपनी-अपनी टोली के साथ संस्था प्रमुख के साथ फोटोसेशन भी होता है। अंतिम दिन एक सुँदर प्रमाण पत्र दिया जाता है। पूर्व अनुमति लेकर आने वाले स्वस्थ साधकों के लिए ये सत्र वर्षभर खुले है।

(3) परिव्राजक प्रशिक्षण

यह वरिष्ठ स्तर का युगशिल्पी प्रशिक्षण है, जिसमें समयदान दे सकने वाले कार्यकर्त्ताओं का एक माह की युगशिल्पी साधना के बाद एक माह और सघन प्रशिक्षण दिया जाता है। ये दो मास के होते है, जो प्रतिमास की एक तारीख को आरंभ होकर दूसरे माह की 21 तारीख का समाप्त होते है। प्रशिक्षित साधक समयदानियों को विशेष जिम्मेदारी देकर प्रज्ञापीठों-शक्तिपीठों एवं जाग्रत् केंद्रों में कार्य करने हेतु तीन से छह माह के लिए भेजा जाता है। अब इन्हीं सत्रों का और भी वरिष्ठ स्तर का प्रशिक्षण धर्म विज्ञान केंद्र देवसंस्कृति विश्वविद्यालय में आरंभ हो गया है, जिसमें त्रैमासिक डिप्लोमा का शिक्षण भी दिया जाएगा व विश्वविद्यालय का प्रमाणपत्र भी उन्हें मिलेगा। सभी धर्मों की मूल विधाओं में प्रवीण-पारंगत होकर ये साधक कहीं भी देवालय प्रबंधक की भूमिका निभा सकेंगे।

(4) स्वावलंबन (ग्राम्य विकास) प्रधान सत्र

ये विशेष सत्र प्रतिमाह 1 से 17 तथा 21 तारीख से आगामी माह की छह तारीख तक चलते है। इनमें विशिष्टतः ग्रामतीर्थ योजना, आपदा प्रबंधन, उद्यान विकास, जड़ी-बूटी रोपण व खेती तथा गो विज्ञान पर आधारित स्वावलंबन की सभी विधाओं का गहराई से प्रशिक्षण दिया जाता है। वर्ष में कुल 12 में सत्र चलते है, जो ग्राम प्रबंधन में व्यक्ति को निष्णात बना देते है। इसके लिए न्यूनतम योग्यता ग्रामोत्थान में रुचि, तकनीकी शिक्षा का न्यूनतम ज्ञान तथा एक मास का युगशिल्पी प्रशिक्षण कर लेना माना जाता है।

(5) त्रैमासिक संगीत प्रशिक्षण सत्र

ये सत्र प्रतिमाह की 1 से आरंभ होकर तीसरे माह की 21 तक चलते है। इनमें सभी अनुशासन युगशिल्पी सत्रों जैसे ही होते है। प्रज्ञायोग के अतिरिक्त ढपली का 4 घंटा प्रतिदिन, हारमोनियम व तबले का 2 घंटा प्रतिदिन एवं समूहगान का 1 घंटा प्रतिदिन शिक्षण में दिया जाता है। कर्मकाँड व बौद्धिक कक्षाएँ भी चलती है।

(6) अंतःऊर्जा जागरण सत्र

पाँच दिवसीय ये सत्र प्रतिमाह 1 से 5, 6 से 10, 11 से 15, 16 से 20, 21 से 24 व 26 से 30 तारीखों में होते है। इनमें हर साधक को निर्धारित अनुशासन के अंतर्गत पाँच दिन मौन एक कक्ष में रहना होता है, जिससे वे मात्र एक बार ही बाहर निकलते है। यज्ञ संपन्न करने एवं कल्प सेवन के साथ अखंड दीप के दर्शन करने। पूर्व से अनुमति प्राप्त साधक सहमति पत्र लेकर एक दिन पूर्व पाँच बजे तक आ जाते है। शाम को उनकी संकल्प गोष्ठी 2.30 से 7.30 निर्धारित कक्ष में होती है। 65 कक्षों वाला एक भवन जिसमें कक्ष के साथ ही प्रसाधन-स्नान की सुविधा है एवं प्रत्येक में स्पीकर्स लगे है, इन साधकों के लिए सुरक्षित है। यह विशिष्टतः उच्चस्तरीय साधना करने वालों के लिए निर्धारित किए गए है। कुछ आवश्यकता हो तो घंटी बजा देने पर सहायक आ जाते हैं व स्लिप में लिखे निर्देशानुसार व्यवस्था कर देते है। दिनभर में दस प्रकार की साधनाएँ ऑडियो सिस्टम से निर्देशानुसार कराई जाती है। निताँत मौन रहकर की जाने वाले ये साधनाएँ अतिफलदायिनी है, पर साधक की मनःस्थिति-स्वास्थ्य-पूर्व के सत्रों का विवरण जानकर ही उन्हें अनुमति दी जाती है। ये सभी आम व्यक्तियों के लिए नहीं है। अंतिम दिन निर्देशों के अनुसार लिए संकल्पों को संस्था प्रमुख के सम्मुख प्रस्तुत कर गायत्री मंत्र उच्चारण के साथ मौन तोड़ा जाता है व 11 बजे से पूर्व अपना कक्ष खाली कर देना होता है।

(7) व्यक्तित्व परिष्कार प्रशिक्षण एवं विविध सत्र

समय-समय पर विभिन्न सरकारी-गैर सरकारी संगठनों के कार्यकर्त्ताओं के, स्काउटिंग से लेकर लोकसेवा से जुड़े संगठनों के ये सत्र वर्षभर चलते रहते है। ये तीन से पाँच दिन के होते है। इसके अतिरिक्त एक से दो दिवसीय अतिथि सत्र, गरमी के मौसम में पाँच दिवसीय सत्र, श्राद्ध-तर्पण हेतु आए व्यक्तियों के एक दिवसीय सत्र भी वर्षभर चलते है। कहना न होगा कि ऐसा तीर्थ मिलना दुर्लभ है, जहाँ इतने प्रकार के प्रशिक्षणों का क्रम नियमित चलता है। वर्ष में एक बार सभी परिजनों-पाठको को इनके लिए समय निकालना ही चाहिए।


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