सूर्य उपासना की प्रवहमान कालसरिता

November 2002

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ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात् (ऋग्वेद-3/62/10)। चौबीस अक्षरों वाले गायत्री महामंत्र की ऋग्वेद में उपस्थिति भारत वर्ष में सूर्य उपासना का प्राचीनतम ऐतिहासिक-साहित्यिक साक्ष्य है। यह इस सत्य का स्पष्ट प्रमाण है कि प्रारम्भिक वैदिक युग के आते तक भारतवासी सूर्य उपासना से न केवल सुपरिचित हो चुके थे, बल्कि उसका गहन मर्म भी समझ चुके थे।

ऋग्वेद में गायत्री महामंत्र के अलावा सूर्य देवता से सम्बन्धित पाँच अन्य सूक्त भी मिलते हैं। यही नहीं अन्य देवताओं के सूक्तों में भी सूर्य के लिए प्रयुक्त मंत्रों की संख्या इक्कीस है। इतना ही नहीं ऋग्वेद में सूर्य की सविता, पूषा, विष्णु, मित्र, भग, विवस्वान्, अर्यमन, अज एक पद, वृषाकपि, केशिन एवं विश्वानर आदि विविध रूपों में की गयी स्तुति यह दर्शाती है कि भारत वर्ष में सूर्य उपासना ऋग्वैदिक काल से भी कहीं अधिक प्राचीन है। क्योंकि सूर्य उपासना के बीज अगर भारत के चिर प्राचीन प्राक् ऐतिहासिक युग में न छिपे होते तो इनका प्रस्फुटन एवं पल्लवन प्रारम्भिक वैदिक युग में देखने को न मिल पाता।

इतिहासवेत्ता ई. मैके ने सिन्धुघाटी की सभ्यता के पुरावशेषों में भारतीयों द्वारा मान्य सौर प्रतीक ‘स्वास्तिक’ के मिलने की बात स्वीकारी है। उनके अनुसार इस तरह के कुछ अन्य सौर प्रतीक वहाँ पायी गई मुहरों में भी देखने को मिले हैं। सच तो यह है कि भारत में सूर्योपासना का इतिहास जितना प्राचीन है, उसका स्वरूप उतना ही रोचक है। सूर्योपासना का प्रारम्भिक स्वरूप प्रतीकात्मक रहा है। इस प्रारम्भिक युग में सूर्य का प्रतीकत्त्व चक्र कमल आदि से व्यक्त किया जाता था। इन प्रतीकों को विधिवत् मूर्ति की तरह प्रतिष्ठित किया जाता था। काफी बाद में भगवान् सूर्य की मानव मूर्ति स्थापित करने की प्रथा चली।

यह इतिहास सत्य है कि भारत देश के चिर अतीत में प्रारम्भ की गयी सूर्य उपासना की प्रवाहमान् कालसरिता न तो कभी बन्द हुई और न कभी मन्द पड़ी। बल्कि उत्तरोत्तर सूर्य उपासना का सामाजिक, साँस्कृतिक एवं आध्यात्मिक महत्त्व बढ़ता गया। महाभारत काल में इसका प्रचलन काफी बढ़ गया था। कुषाण काल में तो सूर्य उपासना का प्रचलन ही नहीं था, वरन् कुषाण सम्राट स्वयं भी सूर्योपासक थे। इतिहासवेत्ताओं के अनुसार कनिष्क (78 ई.) के पूर्वज शिव तथा सूर्य के उपासक थे। इसके पश्चात् तीसरी शताब्दी ई. के गुप्त सम्राटों के समय में भी सूर्य, विष्णु तथा शिव की उपासना का उल्लेख मिलता है। कुमार गुप्त (414-55 ई.) के समय में विष्णु, शिव एवं सूर्य की उपासना विशेष रूप से की जाती थी।

स्कन्दगुप्त (455-67) के समय में तो बुलन्दशहर जिले के इन्द्रपुर नामक स्थान पर दो क्षत्रियों ने एक सूर्य मन्दिर भी बनवाया। भारतीय इतिहास के विशेषज्ञों का मानना है कि गुप्त सम्राटों के काल तक सूर्य उपासना भारतवासियों की आध्यात्मिक आस्था का प्रतीक बन गयी थी। उनके समय में मालवा के मन्दसौर नामक स्थान में, ग्वालियर में, इन्दौर में तथा बघेलखण्ड के आठमक नामक स्थान में निर्मित चार श्रेष्ठ सूर्य मन्दिरों का उल्लेख प्राप्त होता है। इसके अतिरिक्त उनके समय में बनी हुई सूर्य देव की कुछ मूर्तियाँ बंगाल में भी मिलती हैं।

भारत वर्ष में सूर्योपासना का यह क्रम बाद में भी जारी रहा। और सातवीं ईसवी में सूर्योपासना अपनी चरम सीमा पर पहुँच गयी। सम्राट हर्षवर्धन के पिता तथा उनके कुछ और पूर्वज न केवल सूर्योपासक थे, अपितु आदित्यभक्त भी थे। हर्ष के पिता के विषय में महाकवि बाण ने अपने ‘हर्षचरित’ में लिखा है कि वे स्वभाव से सूर्यभक्त थे तथा प्रतिदिन सूर्योदय के समय स्नान करके ‘आदित्यहृदय’ स्तोत्र का कई बार जप किया करते थे। हर्षचरित के अतिरिक्त अन्य कई प्रमाणों से भी इस तथ्य की पुष्टि होती है कि उन दिनों भारत वर्ष में सूर्य उपासना काफी व्यापक थी। इतिहास विशेषज्ञ इस सत्य को प्रमाणित करते हैं कि हर्ष के समय में प्रयाग में तीन दिन का अधिवेशन हुआ था। इस अधिवेशन में पहले दिन बुद्ध की मूर्ति प्रतिष्ठित की गयी। बाद में क्रमशः दूसरे और तीसरे दिन सूर्य तथा शिव की पूजा की गयी।

सूर्योपासना का यह चरमोत्कर्ष हर्ष के समय तक ही नहीं सीमित रहा, अपितु बाद में भी परम्परा गतिमान रही। डॉ. भगवतशरण उपाध्याय के अनुसार हर्ष के पश्चात् ललितादित्य मुक्तापीड़ (724-760 ई.) नामक राजा सूर्य का अनन्य भक्त हुआ। उसने सूर्य के ‘मार्तण्ड-मन्दिर’ का निर्माण करवाया। इस मन्दिर के खण्डहरों से प्रतीत होता है कि यह मन्दिर अपने समय में काफी विशाल रहा होगा। प्रतिहार सम्राटों के समय भी सूर्य-पूजा का विशेष प्रचलन था। प्रतिहारों के बाद राजस्थान के चौहान नरेशों, उत्तरप्रदेश के गाहड़वाल नरेशों तथा मध्यप्रदेश के चन्देल शासकों ने भी अपनी सूर्यभक्ति की अभिव्यक्ति करते हुई कई सूर्य मन्दिर बनाए। उड़ीसा के गंगयुगीन वंश के प्रतापी शासक नरसिंह वर्मन का बनवाया हुआ विश्व प्रसिद्ध कोणार्क मन्दिर उनके साथ समूची भारतीय सूर्य उपासना का प्रतीक बन गया।

भारत वर्ष के प्राचीन इतिहास के काल क्रम में (प्रारम्भ से लेकर 12वीं शताब्दी) अविरल रूप से व्याप्त सूर्य उपासना ने देश को न केवल आध्यात्मिक रूप से बल्कि साँस्कृतिक रूप से भव्यता प्रदान की। वैदिक वाङ्मय के साथ सूत्र, स्मृति ग्रन्थ एवं रामायण-महाभारत महाकाव्य इसकी साक्षी देते हैं। ब्रह्मांड पुराण, विष्णु पुराण, मत्स्य पुराण आदि अनेकों महापुराण एवं भविष्य पुराण व साम्बपुराण आदि विविध उपपुराण इस ऐतिहासिक सत्य की साहित्यिक साक्षी हैं। महापुराणों व उपपुराणों के अतिरिक्त महाकवि कालीदास, बाणभट्ट, भवभूति, मयूर, भट्ट, नारायण, श्री हर्ष आदि कवियों ने सूर्य स्तुति से अपनी काव्य साधना को सफल बनाया है।

सूर्य देवता एवं सूर्य उपासना के स्वरूप पर यद्यपि शौनक, यास्क, सायण आदि प्राचीन आचार्यों तथा बर्गेन, हिले ब्रॉन्ट, आलेनबर्ग, ब्लूमफील्ड, ग्रिसवोल्ड, कीथ, स्वामी दयानन्द, श्रीअरविन्द, पं. सातवलेकर, स्वयं परम पूज्य गुरुदेव आदि पाश्चात्य एवं प्राच्य विद्वानों ने साहित्यिक एवं आध्यात्मिक दृष्टि से विचार किया है। वी.सी. श्रीवास्तव आदि इतिहास के कतिपय विशेषज्ञों ने प्राचीन भारत की सूर्योपासना पर ऐतिहासिक एवं पुरातात्त्विक दृष्टि से कार्य किया है। परन्तु अभी भी इस कार्य के कई पहलू अधूरे एवं अपूर्ण हैं। इन पर विशद् एवं व्यापक शोध कार्य की अपेक्षा एवं अनिवार्यता है। ताकि प्राचीन भारत के इतिहास व संस्कृति के प्रेरक प्रकाशपुञ्ज भगवान् सूर्य की उपासना का सर्वांग स्वरूप विश्व दृष्टि के समक्ष उजागर हो सके। गायत्री महामन्त्र के उपास्य देव भगवान् सविता के स्वरूप और महत्त्व पर व्यापक शोध करने के लिए देव संस्कृति विश्वविद्यालय में एक विस्तृत शोध योजना बनायी गयी है। इसकी सुपरिणति के रूप में देव संस्कृति के प्रेरक प्रकाश पुञ्ज भगवान् सूर्य के अलौकिक तेज से समग्र संस्कृति प्रभामय हो सकेगी।


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