राष्ट्रीय जीवन के उत्कर्ष की विधा-यज्ञ विज्ञान

November 2002

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‘ॐ अग्निमीले पुरोहितं यज्ञस्य देवमृत्विजम् होतारं रत्नधातमम्।’ (ऋ .-1/1/1) में अग्नि देव की स्तुति के साथ यज्ञ का जिक्र भारत वर्ष में यज्ञ का प्राचीनतम ऐतिहासिक-साहित्यिक साक्ष्य है। यह इस तथ्य का भी स्पष्ट प्रमाण है कि प्रारम्भिक वैदिक काल के आने तक भारतवासी न केवल यज्ञ की विधा से सुपरिचित हो चुके थे, बल्कि इसका गहन मर्म भी समझ चुके थे। वेदों में सबसे अधिक मंत्रों की संख्या अग्नि एवं यज्ञ के संदर्भ में है, जो इस युग में यज्ञ के चतुर्दिक् विकास एवं लोकप्रियता की परिचायक है। यहाँ यह तथ्य भी उभर कर सामने आता है यज्ञ के बीज भारत में चिर प्राचीन प्रागैतिहासिक युग में छिपे हुए हैं, अन्यथा इनका प्रस्फुटन एवं विकास प्रारम्भिक वैदिक युग में देखने को न मिल पाता।

सिन्धु घाटी की सभ्यता से प्राप्त पुरातात्त्विक अवशेष इस सत्य को पुष्ट करते हैं। कालीबंगा, लोथल, बनवाली एवं राखीगढ़ी के उत्खननों से प्राप्त अग्निवेदियाँ इसका प्रबल प्रमाण है। ये वेदियाँ वस्तुतः मिट्टी के बने गड्ढे थे, जिनमें प्रत्येक का आकार लगभग 75×75 सेंटीमीटर था। कालीबंगा में प्राप्त अग्निवेदियाँ एवं समस्त सामग्री किसी धार्मिक या याज्ञिक अनुष्ठान के संकेत देती हैं। लोथल में आयताकार एवं वृत्ताकार अग्नि वेदियाँ मिली हैं, जिनका उपयोग डॉ. साकलिया के अनुसार मूलतः पारिवारिक अनुष्ठानों के लिए किया जाता था। इसी तरह प्रसिद्ध पुरातत्त्ववेत्ता वाकणकर को लुप्त सरस्वती नदी शोध अभियान के दौरान सरस्वती नदी के किनारे हड़प्पाकालीन स्थलों से अग्निवेदियों के प्रमाण मिले हैं।

इस तरह सिन्धु-सरस्वती सभ्यता के प्रागैतिहासिक काल में हम यज्ञ के स्पष्ट प्रमाण पाते हैं और यह एक ऐतिहासिक सत्य है कि भारत के चिरअतीत से प्रारम्भ यज्ञ की विधा, वैदिक युग तक जन जीवन का अभिन्न अंग बन गई थी। इसे वैदिक संस्कृति का मेरुदण्ड भी कहें तो अतिशयोक्ति न होगी। वस्तुतः यह इसके सामाजिक, साँस्कृतिक एवं आध्यात्मिक जीवन का केन्द्रीय तत्त्व था। वैदिक युग में यज्ञ की महत्ता सर्वोपरि थी, जो व्यक्ति को पावन, पवित्र और कर्मठ बनाता था।

उत्तर वैदिक काल में कर्मकाण्डों एवं यज्ञों का महत्त्व इतना बढ़ गया था कि पुरोहितों ने प्रत्येक कार्य को यज्ञ से जोड़ दिया था। सभी मनुष्यों के लिए याज्ञिक क्रिया को श्रेष्ठ बताया गया। इतना ही नहीं यह अनुभूति भी बनती बनाई गई कि यज्ञ के द्वारा देवता भी वश में हो जाते हैं तथा प्रसन्न होकर मनुष्यों को मनवाँछित वर प्रदान करते हैं। इस प्रकार यज्ञ मनुष्य तथा देवताओं के बीच सम्बन्ध स्थापित करने वाला माध्यम बन गया। क्रमशः यज्ञों की संख्या बढ़ती गई तथा अनेक याज्ञिक प्रथाएँ प्रचलित हो गयीं, यथा- अग्निहोत्र, दर्श और पूर्णभामास्य, अग्निष्टोम, षोडशी, अतिरात्र, पुरुषमेध, पंचमहायज्ञ आदि तत्कालीन समाज में प्रचलित थे तथा गवापान, वाजपेय, राजसूय और अश्वमेध जैसे यज्ञों को सम्पन्न करना प्रतिष्ठा का प्रतीक माना जाता था।

इनमें अग्निहोत्र प्रातः-सायं दोनों समय किया जाता था, जिसमें दूध, दही और घृत की आहुति दी जाती थी। पापों के क्षय और स्वर्ग की ओर ले जाने वाले इस पुण्यकर्म को सर्वोत्तम नाव के रूप में स्वीकार किया गया। पंचमहायज्ञ प्रत्येक गृहस्थ के लिए अनिवार्य था। इसके अंतर्गत भूतयज्ञ, मनुष्ययज्ञ, पितृयज्ञ, देवयज्ञ और ब्रह्मयज्ञ सम्मिलित थे। राजसूय यज्ञ राजाओं द्वारा सम्पन्न किए जाते थे। डॉ. सत्यकेतु के अनुसार, राजसूय यज्ञ किए बिना राजा राजपद पर सिंहासनारूढ़ नहीं हो सकता था। अश्वमेध यज्ञ का आयोजन सार्वभौम राजा ही कर सकता था। उत्तरवैदिक काल में परिक्षीत के वंशज जनमेजय का वर्णन आता है, जिसने आसन्दीवन में अश्वमेध यज्ञ किया था।

उत्तरवैदिक काल तक यज्ञीय कर्मकाण्ड बहुत बृहद् एवं जटिल रूप ले चुका था। ऋग्वेद में जहाँ सात प्रकार के पुरोहितों का उल्लेख है, ब्राह्मण काल तक यह संख्या 17 बन गई थी। साँख्यायन, आश्वलायन, कात्यायन श्रौतसूत्रों में पुरोहितों के विभिन्न रूपों का जो विवरण उपलब्ध होता है वह यज्ञ तथा कर्मकाण्डों की अधिक जटिलता का प्रतीक है। इस दौरान यज्ञ बहुआयामी एवं पर्याप्त विकसित हो गया था। साथ ही यज्ञ का दार्शनिक पक्ष भी बढ़ गया था।

यहाँ तक कि यज्ञीय कर्मकाण्ड के स्थान पर इसके दार्शनिक पक्ष और आध्यात्मिक उत्कर्ष को प्रधानता दी जाने लगी। यह स्वीकार किया गया कि ज्ञान के अभाव में परलोक की प्राप्ति न तो यज्ञ से सम्भव है और न तप से, बल्कि यज्ञ में निहित धार्मिक भावना से ही सम्भव है। अतः ज्ञान की महत्ता सर्वोपरी मानी गयी। आरण्यकों में यज्ञ से सम्बन्धित दार्शनिक विचार और चिंतन को स्थान मिला तथा उसके कर्मकाण्डीय पक्ष को स्थगित किया गया। उपनिषदों में भी ज्ञानपक्ष की ही महत्ता प्रतिपादित की गई।

महाकाव्यों के समय तक वैदिक धर्म का स्वरूप बिलकुल परिवर्तित हो चुका था। पूर्व-वैदिक कालीन कर्मकाण्ड प्रधान तथा उत्तर वैदिक कालीन ज्ञान प्रधान धर्मों का समन्वय करके इस समय एक लोकधर्म का विकास किया गया जो सर्व साधारण के लिए सुलभ था। रामायण और महाभारत में अनेक वैदिक यज्ञों का उल्लेख मिलता है, परंतु यज्ञों में होने वाली हिंसा का विरोध किया गया। यज्ञ को इस समय मुख्यतः चित्त शुद्धि का एक साधन मात्र स्वीकार किया गया। साधारणतः गृहस्थ, पंच-महायज्ञ करता था, जिसमें पितरों, देवों, ब्राह्मणों, अतिथियों और भूतों को संतुष्ट किया जाता था। तत्कालीन युग में अश्वमेध और राजसूय यज्ञ भी प्रचलित थे। राम ने अश्वमेध यज्ञ किया था तथा युधिष्ठिर ने राजसूय यज्ञ। इस युग में नाग यज्ञ भी हुआ था, जिसे महाराज जनमेजय ने सम्पन्न किया था।

आध्यात्मिक उत्कर्ष के साधन के रूप में संध्या के साथ अग्निहोत्र समाज में प्रचलित थे। प्राचीन ऋषियों की दीर्घायु, यश, बुद्धि और आध्यात्मिक बल इसी के माध्यम से प्राप्त हुए थे। रामायण से विदित होता है कि राम और लक्ष्मण संध्या और अग्निहोत्र दोनों करते थे। युधिष्ठिर भी संध्या और अग्निहोत्र दोनों किया करते थे। इस तरह महाकाव्य काल में यज्ञ परिष्कृत रूप में प्रचलित था व समाज में इसका धार्मिक कृत्य के रूप में महत्त्वपूर्ण स्थान था।

किन्तु कालक्रम में कुछ समय के लिए यज्ञ की यह पावनता क्षीण होती गई व छठी सदी ई. पू. तक यज्ञ कर्मकाण्ड पुनः अंधविश्वास, जटिलता एवं हिंसा के अभिशाप से ग्रस्त हो गया था। फलस्वरूप इनके विरोध में एक बौद्धिक एवं धार्मिक क्रान्ति का सूत्रपात हुआ, जिसका स्वाभाविक परिणाम था- बौद्ध एवं जैन धर्म का उद्भव। इनके प्रसार के कारण वैदिक मान्यताओं को प्रबल आघात लगा, किन्तु चौथी शताब्दी ई. पू. तक मौर्य वंश की स्थापना हुई। इस समय वैदिक यज्ञों का पुनः प्रचार हो रहा था। वैदिक कालीन पौरोहित्य प्रथा की लुप्त प्रतिष्ठ पुनः स्थापित रही थी। अंतर केवल इतना था कि कर्मकाण्ड अब पूर्व की भाँति जटिल नहीं रह गए थे। मैगस्थनीज ने एक स्थान पर लिखा है कि सम्राट (चन्द्रगुप्त) जिन चार अवसरों पर महल से बाहर निकलता था, यज्ञ उनमें से एक था। अर्थशास्त्र में वर्णित राजप्रसाद के निकट बनी यज्ञशाला (इज्यास्थान) से भी तत्कालीन ब्राह्मण धर्म में यज्ञों की महत्ता प्रामाणित होती है।

मौर्योत्तर काल में यज्ञ पुनः अपने उत्कर्ष की ओर अग्रसर होता है। शुँग वंश के प्रथम शासक पुष्पमित्र शुँग ने अपने शासन काल में वैदिक धर्म की मान्यताओं एवं परम्पराओं को पुनः स्थापित किया। कतिपय पुरातात्त्विक साक्ष्य भी उपरोक्त तथ्यों की पुष्टि करते हैं। प्रथम अभिलेख वशिष्क के शासन काल में चौबीसवें वर्ष अंकित मथुरा के निकट इर्शापुर ग्राम से उपलब्ध हुआ है। इसके अनुसार भारद्वाज गोत्र के एक ब्राह्मण रुद्रिल के पुत्र द्रोणिल ने 92 रात्रि तक चलने वाला एक यज्ञ सम्पन्न किया था। एक अन्य यूप स्तंभ लेख में सप्तसोम यज्ञ से संबंधित सात यूपों के निर्माण का उल्लेख है। भूतपूर्व उदयपुर राज्य के भंदासा नामक स्थान से प्राप्त अभिलेख में 60 दिन तक चलने वाले यज्ञ का उल्लेख है। इसी प्रकार भूतपूर्व कोटा राज्य के बड़वा नामक स्थान से प्राप्त अभिलेख में त्रिरात्र यज्ञ सम्पन्न किए जाने का उल्लेख है। इन अभिलेखों से प्रमाणित होता है कि शुँग-सातवाहन काल में वैदिक यज्ञों को संपन्न करने की परम्परा पुनः प्रारम्भ हो गयी थी। पुष्यमित्र शुँग ने स्वयं अपने साम्राज्य को सुस्थिर करने के लिए अश्वमेध यज्ञ किया था। अयोध्या अभिलेख में पुष्यमित्र को दो अश्वमेध यज्ञों का अनुष्ठान करने वाला (द्विरश्वमेधयाजिनः)कहा गया है। डॉ. आर. भण्डारकर के शब्दों में, वैदिक धर्म के पुनरुत्थान का क्षेत्र पुष्यमित्र को देना चाहिए। इसमें सहयोग एक राजसूय तथा दो अश्वमेध यज्ञ करने वाले गौतमी पुत्र शतकर्णी आदि सातवाहन राजाओं ने भी किया। नयनिका के ननाघाट अभिलेख से ज्ञात होता है, उसी शासक ने अग्न्यावेध, अन्वराम्भनीयं, गवमयानं, अगीरसतीरमं, अप्तोर्यम, अंगीरसमयान, गार्गतीरात्र, छान्दोगयवमान, अत्रीरात्रं, त्रयोदरात्र, दशरात्र आदि यज्ञ भी किए।

इस तरह शुँग एवं सातवाहन शासकों द्वारा किए गए यज्ञ वैदिक धर्म के पुनरुत्थान के सूचक है। यह विकास क्रमशः बढ़ते हुए अपने चरम में गुप्तकाल में दिखाई पड़ता है। हालाँकि गुप्तकाल के उदय से पहले भी भारशिवों ने गंगा के तट पर दशाश्वमेध घाट पर दस अश्वमेध यज्ञ करके वैदिक धर्म को लोकप्रिय बनाया था। किन्तु इसे राजसंरक्षण प्रदान करने व उसे राज्य धर्म बनाने का कार्य गुप्तवंश के लिए ही रह गया था। यह कार्य गुप्त सम्राटों ने बखूबी किया। इस युग में तैंतीस करोड़ देवताओं और उनकी मूर्तियों का उद्भव हो चुका था। 16 संस्कार प्रचलित थे, जिनमें यज्ञ प्रक्रिया अभिन्न रूप से जुड़ी थी। इस युग में समुद्रगुप्त और कुमारगुप्त द्वारा अश्वमेध यज्ञ को सम्पन्न करने के प्रमाण मिलते हैं। समुद्रगुप्त ने दिग्विजय के पश्चात् अश्वमेध यज्ञ किया था। इस यज्ञ की स्मृति में प्रचलित की गई मुद्राओं में एक तरफ यज्ञ स्तम्भ में बंधे घोड़े का चित्र है तथा दूसरी तरफ समुद्र गुप्त की महारानी हाथ में चंवर लिए हुए है तथा अश्वमेध यज्ञ क्रम अंकित है। चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य द्वारा यज्ञ सम्पन्न करने के प्रमाण काशी के दक्षिण में स्थिति नगवा नामक स्थान से उपलब्ध एक घोड़े की मूर्ति है, जिस पर चन्द्रगुप्त लिखा है। इसी तरह अपने पितामह तथा पिता की तरह कुमार गुप्त ने भी अश्वमेध यज्ञ सम्पन्न किया। इसको प्रमाणित करता एक सिक्का मिला है, जिसमें एक ओर घोड़े पर जीन कसी है तथा दूसरी ओर ‘अश्वमेध महेन्द्र’ लिखा है। इस संदर्भ में डॉ. राधाकुमुद मुखर्जी का यह कथन सही प्रतीत होता है कि गुप्तकाल में वैदिक धर्म, अश्वमेध यज्ञ, वाजपेय अथवा पंच महायज्ञ आदि यज्ञों के सम्पादन द्वारा सुरक्षित था। वाकाटक के शासन में भी यज्ञ प्रचलित थे। हिन्दू धर्म शास्त्रों में निर्दिष्ट कई यज्ञ वाकाटकों ने किए। प्रवर सेन को सातों यज्ञ करने का श्रेय दिया जाता है और कहा जाता है कि उसने चार अश्वमेध यज्ञ किए। हर्षवर्धन के समय भी यज्ञ के प्रचलन का उल्लेख मिलता है, हर्ष चरित्र में यज्ञों का वर्णन आया है तथा उनसे उठते धुएँ का उल्लेख अनेक स्थानों पर प्राप्त होता है। थानेश्वर का उल्लेख करते हुए बाण लिखते हैं कि इसकी दशा दिशाएँ यज्ञों की सहस्रों ज्वालाओं से देदीप्यमान रहती थीं। यह इस समय यज्ञ के व्यापक प्रचलन को स्पष्ट करता है। इसी तरह राष्ट्रकूट शासकों के काल में यज्ञों के प्रचलन का उल्लेख मिलता है। दन्तिदुर्ग ने उज्जयिनी या उज्जैन में ‘हिरण्यगर्भ’ यज्ञ किया।

इस तरह हमें प्राचीन भारत में (प्रारम्भ से लेकर बारहवीं सदी तक) यज्ञों की महान् परम्परा का अविरल प्रवाह गतिमान दृष्टिगोचर होता है, जिसमें कुछ मन्द होने के दौर अवश्य आते हैं, किन्तु यह धारा कभी लुप्त नहीं हुई। बल्कि हर बाह्य अवरोधों एवं आँतरिक विकृतियों से गुजरते हुए यह और परिष्कृत एवं प्रखर रूप में प्रकट हुई। राष्ट्र के सामाजिक एवं साँस्कृतिक जीवन को यज्ञ की महान् प्रक्रिया एवं इसमें अंतर्निहित उदात्त दर्शन ने सतत नूतन भव्यता दी। राष्ट्रीय जीवन का हर काल इसका साक्षी है।

राष्ट्रीय जीवन के उत्कर्ष, उत्थान एवं चतुर्दिक् विकास में संजीवनी शक्ति की तरह काम करने वाली यज्ञ की विधा पर इस युग में स्वामी दयानंद एवं युगऋषि परम पूज्य गुरुदेव द्वारा नूतन प्रकाश पड़ा है। इसके वैज्ञानिक एवं दार्शनिक स्वरूप को उभारने में व इसे जन-जन के बीच लोकप्रिय बनाने में इनकी भूमिका सराहनीय है। कतिपय भारतीय एवं विदेशी विद्वान् भी इसके वैज्ञानिक एवं चिकित्सीय पक्ष पर अध्ययन कर रहे हैं। किन्तु इसके ऐतिहासिक, साँस्कृतिक एवं पुरातात्त्विक पक्षों को उजागर करता शोधपरक अध्ययन कार्य अभी तक नहीं हुआ है। इस पर विराट् एवं व्यापक शोधकार्य को देव संस्कृति विश्वविद्यालय में किए जाने के प्रयास हो रहे हैं, ताकि प्राचीन भारत के इतिहास एवं संस्कृति के मेरुदण्ड यज्ञ का समग्र स्वरूप विश्वमानव के सामने उजागर हो सके।


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