भावनाएँ ही मनुष्य को ऊँचा उठाती और नीचा गिराती हैं। हम अपने विकास के आरंभिक दिनों में भावनात्मक उन्नति कर चरमोत्कर्ष पर पहुँच थे, पर अब उसी का दिन-दिन ह्रास होने के कारण नीचे गिरते जा रहे हैं। पूर्व का हमारा भावनात्मक आरोहण अब अवरोहण बन चुका है। संवेदना की दृष्टि से हम एक दम निम्न बिंदु पर पहुँच चुके हैं। यही आज की सबसे बड़ी विडंबना है।
व्यक्ति के भावक्षेत्र के परिष्कार के साथ-साथ जैसे-जैसे उसका प्रसार-विस्तार होता है, उसमें तदनुरूप सेवा सहयोग की वृत्ति भी बढ़ती जाती है। अंतः करण जब भाव- संवेदना से लबालब भर जाता है, तो वह मानव को महामानव बना देती है, किंतु इसका आरंभिक अभ्यास परिवार में ही करना पड़ता हैं। परिवार के सुख-दुख को अपना सुख दुख और उसके किसी सदस्य की कष्ट कठिनाई को अपनी कष्ट कठिनाई मान लेना, इसे सेवा सहायता की दिशा में उठाया गया प्रथम चरण कहा जा सकता है और भाव विस्तार की पहली अभिव्यक्ति।
नृतत्त्ववेत्ताओं का कहना है कि यदि मनुष्य की उच्चस्तरीय भावना का इतना विकास न हुआ होता, तो आज उसका अस्तित्व सुरक्षित न रह पाता और संघर्षरत स्थिति में कबका समाप्त हो गया होता। कारण कि मानव की आरंभिक स्थिति और जंगली जंतुओं के स्तर में कोई बहुत भारी अंतर रहा होगा, ऐसा नहीं कहा जा सकता। आज जो बड़ा अंतर दिखलाई पड़ रहा है, वह तो क्रमिक प्रगति और परिष्कृत भाव-चेतना का परिणाम है। जब आज की विकसित बुद्धि की स्थिति में भी मानव संघर्षशीलता से बाज नहीं आता और तनिक-से हक की होड़ में मरने-मारने पर उतारू हो जाता है, तो आरंभ की अविकसित अवस्था में वह कैसा खूँखार रहा होगा, इसकी सहज ही कल्पना की जा सकती है। आए दिन तब छोटे-छोटे कुनबों में युद्ध और मार-काट मचते होंगे तथा रक्त की नदियाँ बहती होंगी। समय बीतने के साथ-साथ रोज-रोज की लड़ाइयों से उकताकर वे किसी ऐसी युक्ति की तलाश के लिए विवश हुए होगे, जो उन्हें कुछ शाँति दे सके, अनावश्यक संघर्ष से बचा सके और कुछ ऐसा हस्तगत करा सके, जिससे पारिवारिक कटुता में कमी आए। मानव विज्ञानी मानते है कि इसका सबसे उत्तम उपाय उन्हें यही प्रतीत हुआ होगा कि दूसरे की कठिनाइयों में दुःख और दर्द में सहानुभूति प्रदर्शित की जाए, सहयोग दिया जाए और स्वयं पर विपत्ति आने पर उनकी मदद ली जाए।
नृतत्वशास्त्रियों के अनुसार मनुष्य में संवेदना-विकास का यह प्रथम सोपान था। इससे स्वतंत्र परिवारों का परस्पर मिलन-समागम संभव हुआ और धीरे-धीरे यही समुदाय का रूप धारण करता चला गया। ऐसे अलग-अलग समुदायों की अपनी-अपनी विशिष्टताएँ और पहचान थी। जब उन्हें एक-दूसरे के बारे में पता चला, तो वे पारस्परिक आदान-प्रदान द्वार अपनी-अपनी विशेषज्ञता का लाभ एक-दूसरे को देने पर सहमत हो गए। समाज-निर्माण का यह आदिम स्वरूप था। कालाँतर में इसी से वर्तमान समाज का जन्म हुआ। जब समाज का पूर्ण विकास हुआ, तो मानव ने विभिन्न क्षेत्रों में आपसी सहयोग की नीति अपनाई। परिवार के बाहर भी सेवा-सहकार घनिष्ठ होने लगे। संवेदना और सहानुभूति की परिधि बढ़ी, तो पहले का संकुचित परिवार और बड़ा बना और फिर धीरे-धीरे विकास करते हुए वह एक वृहत्तर परिवार बन गया। यों संरचना और संगठन की दृष्टि से था तो वह समाज ही, पर आचरण और व्यवहार की दृष्टि से, आत्मीयता और अनुराग की दृष्टि से उसे एक वृहद् परिवार की कहना समीचीन होगा, एक ऐसा परिवार, जिसमें उसकी समग्र उन्नति के लिए सभी का संपूर्ण विकास अभीष्ट था। कार्लमार्क्स के शब्दों में कहे, तो इसे ‘वन फॉर ऑल एंड फॉर वन’ की नीति का विकास कहना चाहिए। भावनाओं की दृष्टि से आदमी की यह और उन्नत स्थित थी।
फिर राष्ट्र और विश्व राष्ट्र का विकास हुआ। भूभाग की दृष्टि से सभी की अपनी अपनी सीमाएँ तो थीं, पर सबके भावक्षेत्र ऐसी सीमाओं से सर्वथा मुक्त थे। यही वह काल था, जब ‘आत्मवत् सर्वभूतेषु’ एवं ‘वसुधैव कुटुँबकम्’ के सूत्र-सिद्धांत दिए गए। यह प्रतिपान सिद्धांत मात्र बनकर नहीं रह गए, वरन् आचार-व्यवहार में दूध पानी की तरह घुले-मिले थे। आँतरिक उत्कर्ष की दृष्टि से मनुष्य का यह चरम विकास था, जिसमें भाव-संवेदनाएँ अपना अधिकतम विस्तार प्राप्त कर चुकी थी। इसी भाव-उत्कृष्टता के कारण युगों में इसे सर्वश्रेष्ठ ‘सतयुग‘ कहा गया। फिर धीरे धीरे इसकी उदात्तता घटती गई। भाव-विस्तार में कमी आई और शनैः-शनैः उसमें अनुदात्त तत्वों के समावेश से उसका स्तर क्रमशः गिरता गया।
हम सर्वोच्च स्थिति से लगातार नीचे गिरते गए। आत्मीयता की हमारी परिधि संकीर्ण होने लगी और घटते-घटते इतनी घट गई कि अनाचार से भरा मध्यकाल का सामंतवादी युग आ पहुँचा। साम्राज्य विस्तार के इस काल में आक्रामकता का इतना विस्तार हुआ कि अपने और परायेपन का भेद घृणित रूप धारण करने लगा। यही से ‘जिसकी लाठी उसकी भैंस’ का पृष्ठपोषण करने वाली लूट-खसोट की नीति का उद्भव हुआ। साम्राज्यवादी शासक विस्तारवादी ललक की पूर्ति के लिए आक्रमण-प्रत्याक्रमण के घात प्रतिघात में निरत रहने लगे। नीति-अनीति का विचार छोड़ जिन्हें जो सूझता, वही करते और जो हाथ लगता, उसी को बड़ी मछली की तरह निगल जाते। फिर अगले शिकार के लिए आगे बढ़ते। इस क्रम में भारत को अनेक विदेशी आक्राँताओं के आक्रमण और उत्पीड़न झेलने पड़े। भारतीय राजे-महाराजे भी स्वयं इस प्रवृत्ति से अछूते न रह सके। उनमें भी इस बात की प्रतिस्पर्द्धा छिड़ी रहती कि किस प्रकार दूसरे की संपन्नता हड़पकर अपनी विपन्नता घटाई और सामर्थ्य बढ़ाई जाए। यह राजतंत्र का जमाना था।
फिर लोकतंत्र का प्रादुर्भाव हुआ, किंतु हमारा भावनात्मक पतन अब भी नहीं रुका। हम और नीचे गिरे। समय के साथ-साथ यह गिरावट बढ़ती गई और आज स्थिति यह है कि समाज पर स्वार्थांधता हावी है। इस सीमा तक कि उस ललक को पूरा करने के लिए वह किसी भी हद को पार कर जाने में जरा भी संकोच नहीं करती। जब व्यक्ति की उद्दाम लिप्सा पराकाष्ठा लाँघकर कुत्सित बनती है और अपना आतंक जमाने और वर्चस्व स्थापित करने के लिए दूसरों के न्यायोचित अधिकारों को भी छीनने से नहीं हिचकती है, तो सदा इन दिनों जैसी हो स्थिति पैदा होती है। आज आतंकवाद और उग्रवाद जिस कदर सर्वत्र सिर उठा रहे है और निरीहों निरपराधों के प्राणहरण कर रहे है, उसे देखकर यही कहा जा सकता है कि हमारा अंतःकरण पाषाणवत् कठोर हो चुका है, संवेदना सूख चुकी है और हम पशुवत् व्यवहार करने लगे है। भर्तृहरि ने ऐसे ही लोगों को मानवों की सबसे निचली और चौथी कोटि में रखा है। उन्हें कोई विशेष नाम तो नहीं दिया, सिर्फ यह कहकर छोड़ दिया, ‘ते के न जानीमहे।’
अब प्रश्न यह है कि मानवीय उत्कर्ष की यह दुरवस्था आखिर क्यों उत्पन्न हुई और क्यों मनुष्य का अधःपतन हुआ? उत्तर जेम्स डिल्लेट फ्रीमैन अपनी रचना ‘दि हिलटॉप हर्ट’ में देते है। वे कहते है, परिवर्तन संसार की नियति है। यहाँ का हर पदार्थ परिवर्तनशील है। मनुष्य भी इसका अपवाद नहीं। उसमें भी परिवर्तन जारी है। सदा एक जैसी स्थिति में बना वह भी नहीं रह सकता। यह सच है कि कभी वह उत्कर्ष की ऊँचाइयों का स्पर्श कर रहा था, तो आज अपकर्ष की खाई में पड़ा हुआ है, पर यह अवस्था भी देर तक टिकने वाली नहीं। उसका उत्थान सुनिश्चित है, पर यह उन्नयन अब मानसिक धरातल पर ही संपन्न होगा। वे कहते है कि आदमी का शारीरिक विकास पूर्ण हो चुका है। अब आगे उसके मानसिक विकास की संभावना ही शेष है, इसी दिशा में उसे बाकी प्रगति करनी है।
दूसरे शब्दों में कहे, तो यह मनुष्य की आध्यात्मिक प्रगति यात्रा होगी। उसने जड़ पदार्थों की भौतिक उन्नति पूरी कर ली। अब उसे चेतनात्मक उत्थान संपन्न करना होगा। यह उत्कर्ष और कुछ नहीं, आत्मपरिष्कार का ही दूसरा नाम है। बोलचाल की भाषा में इसे ही उच्चस्तरीय भावनाओं का विकास कहते है। संपूर्ण अध्यात्म तत्वज्ञान इस उदात्त अवस्था को ही करतलगत करने की एक विधा है।