अपनो से अपनी बात - वेदमूर्ति तपोनिष्ठ को सार्थक प्राणवान संकल्प अर्पित करें

November 2002

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शपथ समारोह (21 अक्टूबर) के माध्यम से संगठन एक नए मोरचे पर

परमपूज्य गुरुदेव को वेदमूर्ति तपोनिष्ठ कहा जाता है वेद भगवान के साकार विग्रह ज्ञान के धनी जिनकी जीवनभर की साधना सद्ज्ञान विस्तार रही ऐसे वेदमूर्ति हमारे गुरुदेव हैं। उनके द्वारा लिखा ज्ञान तीन हजार से भी अधिक पुस्तक पुस्तिकाओं द्वारा जन जन तक पहुँचा व चूँकि वह उनके आचरण में उतरकर करोड़ों को प्रभावित करता चला गया इसलिए वे आचार्य कहलाए। गीताकार ने ज्ञान को पवित्रतम बनाया है वे कहा है कि मनुष्य के लिए यही सबसे दुर्लभ विभूति है ज्ञान श्रद्धावान, संयमी और कर्मठ हर क्षण लोकसेवा हेतु तत्पर साधक को ही मिलता है, इसलिए वेदमूर्ति उपाधि हर दृष्टि से हमारे इष्ट आराध्य के लिए उपयुक्त बैठती है व हम सबको उसी मार्ग पर चलकर उनका अंग अवयव बनने हेतु प्रेरित करती है।

तप ही वह पूँजी है, जो व्यक्ति को महान आध्यात्मिक, विभूति संपन्न बनाती है। तप में प्रमाद न किया जाए, श्रुति ऐसा कहती है। तपस्वी ब्राह्मणोचित जीवन ही एक चिरस्थायी समाजसेवी संगठन का मूल आधार बनता है। तप ही अंतर्निहित विभूतियों को निखारता है व्यक्ति को लघु से विराट बना देता है तप में निरत तप ‘जिनके कण कण में संव्याप्त रहा, ऐसी हमारी गुरुसत्ता है, इसलिए उन्हें तपोनिष्ठ तप में स्थित, आजीवन कठोर तप में संलग्न देखा गया। अब वही तप हम सभी का मार्गदर्शन कर रहा है। चौबीस चौबीस लक्ष के चौबीस गायत्री अनुष्ठान, आठ हजार गायत्री मंत्र उच्चारण प्रतिदिन बिना किसी विराम के एवं आहार की कठोर तपश्चर्या उनकी जीवन निधि है जिसने गायत्री परिवार जैसे युग परिवर्तनकारी संगठन को खड़ा किया।

जहाँ ‘ज्ञान’ के प्रतीक के रूप में उनकी ‘अखण्ड ज्योति’ पत्रिका है, जो अखण्ड ज्योति संस्थान से प्रकाशित होती है, वहाँ तप’ के प्रतीक के रूप में उनके द्वार प्रज्वलित अखंड अग्नि (गायत्री तपोभूमि की यज्ञशाला) एवं अखंड दीपक ‘शाँतिकुँज में विद्यमान 1926 से सतत प्रज्वलित है। अखण्ड ज्योति संस्थान उनकी ज्ञान साधना का साक्षी रहा वह केंद्र है, जो आज भी मथुरा जाने वालों को दर्शन करने पर सतत उस सूक्ष्मसत्ता से साक्षात्कार कराता रहता है गुरुसत्ता के ज्ञानशरीर के रूप में सत्तर खंडों में प्रकाशित वाङ्मय है, जो उनके द्वारा लिखा गया जीवनभर का पुरुषार्थ है। हर समस्या का समाधान है एक संजीवनी है। गायत्री तपोभूमि 1951 से 11971 तक बीस वर्ष की अवधि, में गुरुसत्ता द्वारा जिए गए तपस्वी जीवन की साक्षी है। जो संघर्ष आचार्य श्री ने गायत्री महाशक्ति को स्थापित करने के लिए किया, वह उन दिनों की परिस्थितियों को देखते हुए एक मानवीय स्तर पर असंभव है, माने ज्ञाने योग्य कहा जाएगा, परंतु उनने किया एवं वह भी तप की शक्ति के बलबूते किया। आहार का संयम, इंद्रियों का संयम विचारों का संयम और समय का संयम। ऐसा न होता, तो मात्र 4 41 वर्ष की वय वाले आचार्य श्री महामंडलेश्वरों तथा कथित धर्मध्वजाधारी गुरुजनों से मोरचा न ले पाते।

उनका वही तप जो आंवलखेड़ा से आरंभ हो आगरा से यात्रा कर मथुरा तक पहुँचा, हिमालय से तरोताजा होता हुआ, बार बार शक्ति पाता हुआ 1971 में शाँतिकुँज आया व 1972 से 1901डडडडड तक के उनके सप्तर्षियों को तपोभूमि इस पावन क्षेत्र में विराजमान हो गया। यहाँ उनने ऐसी लीला रचाई कि जो कार्य उनने चौबीस वर्ष में किया था वह परमवंदनीया माताजी व उनके संरक्षण में पल बक रही देवकन्याओं द्वारा मात्र चार वर्ष में संपन्न कर लिया गया एक और पूँजी जमा हो गई, जिसने नारी जागरण अभियान की नींव रखी। प्रायः चौबीस लक्ष का दैनिक जप नियमित 1975 के स्वर्ण जयंती साधना वर्ष से चलने लगा एवं गायत्री तीर्थ एक सिद्धपीठ एक कल्पवृक्ष बन गया। हिमालय की प्रतिमा बनी, ब्रह्मवर्चस शोध संस्थान बना एवं देवसंस्कृति विश्वविद्यालय विनिर्मित होने लगा। यह तप आगे क्या खेल दिखाएगा, यह तो विधाता ही ज्ञान पर इसका महिमा अपरंपार है।

यह वर्ष इसी तप को याद करने का वर्ष है जो ज्ञान के रूप में प्रकट हो विचार क्राँति अभियान को जन्म देता हुआ चला आया है। मिशन का ज्ञानयज्ञ अभियान इसी तप की पूँजी से निकला है। वेदमूर्ति तपोनिष्ठ गुरुदेव के जीवन का पर्याय बन गया ज्ञान एवं तप बीज रूप में सारे भारत में बिखरता चला गया। उसी से पैदा हुए नर्सरी के पौधे परमवंदनीय माताजी की स्नेह संवेदना-सजल श्रद्धा से सिंचित-पोषित हो आज स्थान-स्थान पर तपती हुई धूप में अगणित व्यक्तियों को छाया, फल, वनौषधियों का लाभ दे रहे है।

गायत्री तपोभूमि का स्वर्ण जयंती वर्ष वेदमूर्ति तपोनिष्ठ को याद कर उनकी इन दोनों विभूतियों को जीवन में उतारने का वर्ष है। यदि 1952-53 में स्थापित गायत्री तपोभूमि के रूप में गुरुसत्ता के संकल्प को सारे भारत व विश्व में फैलाना है, तो इससे सही समय व संदेश क्या हो सकता है। शरदपूर्णिमा की पावन वेला में जहाँ गायत्री तपोभूमि में चुने हुए संकल्पित साधक एकत्रित हुए हों, वहाँ जिए जाने वाले शपथ और संकल्प निश्चित ही ऐसे रहे होंगे जैसी कि उसके अधिष्ठाता-संस्थापक आचार्यजी ने अपेक्षा की होगी। यह वेला है ही ऐसी कि जिसमें न केवल अनुदान बरसे होंगे, प्राणवानों के संकल्प मचल-मचलकर उफन आए होंगे।

यह पत्रिका नवंबर माह की है, पर जब तक यह परिजनों तक पहुँचेगी, वे या तो शपथ समारोह की तैयारी कर रहे होंगे अथवा पहुँच चुके होंगे। शपथ समारोह व मूर्ति स्थापना कार्यक्रम 2, 21, 22 अक्टूबर का है। इसमें 21 अक्टूबर शरदपूर्णिमा का दिन सबसे विशेष है। इसी दिन मूर्ति स्थापना के बाद वह संकल्प लिया जाना है, जिसके माध्यम से युगऋषि के युगनिर्माण के संकल्प में सभी अपने पुरुषार्थ की भावभरी आहुति डालेंगे। बारह वर्ष पूर्व ऐसी ही शरद पूर्णिमा के पावन अवसर का प्रायः बीस लाख भावनाशील प्राणवानों ने अपनी गुरुसत्ता में महाप्रयाण के ठीक चार माह बाद एक संकल्प श्रद्धांजलि समारोह में एक शपथ ली थी कि वे ज्ञानयज्ञ की लाल मशाल बुझने न देंगे, सदा जलाए रखेंगे। इसके लिए वे ईंधन जुटाएँगे, आवश्यकता होगी तो स्वयं की भी आहुति देंगे। समयदान-अंशदान का अनुपात अपनी सामर्थ्य व भावना के अनुसार और अधिक बढ़ाएंगे।

बारह वर्ष बीत गए। अब वह पावन वेला फिर आई है। इस बीच देवसंस्कृति दिग्विजय का प्रचंड पुरुषार्थ संपन्न हो चुका, आश्वमेधिक पराक्रम तथा संस्कार महोत्सवों की शृंखलाएं संपन्न हो चुकीं। युगऋषि का वाङ्मय प्रकाशित हुआ एवं ज्ञानचेतना को झकझोरने वाली छोटी-छोटी पुस्तिकाएँ प्रकाशित हुई, जो लाखों व्यक्तियों तक पहुँची। गायत्री तपोभूमि एवं अखण्ड ज्योति संस्थान के ज्ञान प्रधान तथा शाँतिकुँज हरिद्वार के श्रद्धा व कर्म प्रधान कार्य ने मिशन को चहुँमुखी विस्तार दिया है। अब इस साधना-संगठन-सशक्तीकरण वर्ष में विशिष्टों को उभारने की वेला आई है। अपनी जीवन-साधना को और प्रभावी बनाकर नवसृजन के लिए उपयुक्त व्यक्तियों के निर्माण की अवधि है यह। साधना तंत्र के विस्तार के लिए गायत्री महामंत्र लेखन अभियान को गति दी गई है, तो साथ ही गायत्री साधना को सभी भाषा-भाषियों में पहुँचाने व साधना की गहराई बढ़ाने पर भी जोर दिया जाना है।

वैयक्तिक साधना जब जीवनसाधना बनकर समूह में सक्रिय हो जाती है, तो संगठन का सशक्त आधार खड़ा होने लगता है। अब एक देव परिवार के सृजनशील संगठन के रूप में खड़े होने की वेला में और अधिक पुरुषार्थ की आवश्यकता है, ताकि न केवल जड़े मजबूत हो, पूरा तंत्र सशक्त व प्रामाणिक बने। इसीलिए व्यक्तित्वों की पहचान, उन विभूतियों का सार्थक सुनियोजन, इस पर अधिक जोर इस शपथ समारोह में दिया जाना चाहिए।

संयुक्त प्रयास से देवमानवों का यह संगठन किस क्षेत्र में कौन-कौन से आँदोलन चलाएगा, क्या लक्ष्य निर्धारित किए गए है व किस तरह की रणनीति बना ली गई है, यह अब सुनिश्चित हो जाना चाहिए। विभिन्न क्षेत्रों में एक या अधिक विभिन्न तरह के आँदोलन (सप्तक्राँतियाँ-सप्तआँदोलन) एक साथ चलाए जा सकते है।

हम इस शपथ समारोह में यह भी शपथ ले कि व्यक्ति-निर्माण से युगनिर्माण तक की यात्रा करने वाले इस मिशन के हम अंग-अवयवों ने अपने जीवन में तप-साधना कितनी बढ़ाई। तप से अर्थ है- ब्राह्मणोचित जीवन एवं बचत का सत्प्रवृत्ति संवर्द्धन में नियोजन। परमपूज्य गुरुदेव का सूत्र है- सत्प्रवृत्तियों के पुण्य प्रसार के लिए अपना समय, प्रभाव, ज्ञान, पुरुषार्थ एवं धन का एक अंश नियमित रूप से लगाते रहेंगे। विभूतियों में समय व धन के अलावा प्रभाव-ज्ञान-पुरुषार्थ भी है। हमें इनके सुनियोजन का एक तंत्र खड़ा करना है।

शपथ समारोह मथुरा में भी हो रहा है एवं शरद पूर्णिमा के दिन दीपयज्ञ के रूप में हर शाखा, मंडल, शक्तिपीठ एवं संगठन की इकाई में भी। इस प्रकार पूरी भारतभूमि शरद पूर्णिमा के दिन एक सामूहिक साधना कर रही होगी। संकल्प पत्र इस अवसर पर अपने नाम, उम्र, पद, पते, मिशन की पृष्ठभूमि के साथ क्षेत्रीय स्तर पर एवं केंद्रीय स्तर पर अपनी शक्ति के नियोजन का भरा जाना है। भरकर इनकी दो प्रतियाँ बनाई जाएँ। एक गायत्री तपोभूमि मथुरा एवं एक शाँतिकुँज हरिद्वार भेजे। शपथ का अनुयाज ही, जो शरद पूर्णिमा से गायत्री जयंती 23 तक चलेगा, नैष्ठिक रूप से संपन्न होकर वेदमूर्ति की स्थापना की स्वर्णजयंती की सार्थकता प्रमाणित करेगा।


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