शरीर से रुग्ण और अति दुर्बल गोर्की, पर दुर्भाग्य; एक के बाद दूसरा आता गया। नाना-नानी के यहाँ पालन-पोषण हुआ। माता उसे इसी स्थिति में छोड़कर दूसरा विवाह करके अन्यत्र चली गई। मामा का दुर्व्यवहार बढ़ता चला, तो उसने 12 वर्ष की आयु से स्वावलंबी होने की बात सोची।
एक स्टीमर पर बरतन माँजने का ऐसा काम मिल गया, जिससे किसी प्रकार पेट भर जाता। दो वर्ष बाद उन्हें रसोई बनाने का काम मिल गया। साथियों में से कुछ कृपालुओं की सहायता से उन्हें वर्णमाला सीखने और पढ़ने-लिखने का अवसर मिला।
उन दिनों रूसी क्राँति की हवा चल रही थी। गोर्की ने निजी रूप से पढ़ाई जारी रखी और क्राँति में भाग लिया। टॉलस्टाय उनसे बहुत प्रभावित थे। लेखन कार्य आरंभ किया, तो उसमें भी वे ऊँची श्रेणी पर पहुँचे। आज लेखकों की दुनिया में गोर्की का नाम मूर्द्धन्य श्रेणी में गिना जाता है।
भाग्य ने जिसे पग-पग पर ठुकराया, परिस्थितियाँ जिसके प्रतिकूल रहीं, ऐसा व्यक्ति विश्वविद्यालय बन गया। इससे उसके पुरुषार्थ को ही सराहा जा सकता है।