दीपावली पर्व पर घर-घर ऐसे दीप जलाएँ हम, भीतर-बाहर का अँधियारा, मिलकर आज मिटाएँ हम।
हम मन में अँधियार, कि चिंतन भटका है, बौराया है, प्रगति देखकर औरों की हर व्यक्ति बहुत ललचाया है, निज अभाव का नहीं, दूसरों के सुख का दुःख ज्यादा है, व्यक्ति पड़ोसी की ही दुर्गति करने पर आमादा है।
इन भूले-भटको को फिर से सही मार्ग पर लाएँ हम, भीतर-बाहर का अँधियारा, मिलकर आज मिटाएँ हम।
कहीं अंधविश्वास, कहीं अज्ञान तिमिर बन छाया है, अहंकारवश मनुज विद्वत्ता पाकर भी भरमाया है, कहीं जगमगाहट में भी तो फैले घने अँधेरे है, वर के पिता विवाहों में बन जाते स्वयं लुटेरे है।
सबकी दृष्टि खुले, ऐसा उज्ज्वल प्रकाश फैलाएँ हम, भीतर-बार का अँधियारा, मिलकर आज मिटाएँ हम।
घने अँधेरे ने भ्रम फैलाया है धर्म स्थानों में, कहीं नहीं है किरण द्वार पर, आँगन में, दालानों में, प्रीति नहीं, नफरत पलती मंदिर-मस्जिद-गुरुद्वारों में, मानवता के शत्रु शरण पाते इनकी दीवारों में।
सच्चा मर्म धर्म का, इन सबको जाकर समझाएँ हम। भीतर-बाहर का अँधियारा मिलकर आज मिटाएँ हम।
दीपक का है प्राण स्नेह, यह स्नेह न कम होने देंगे, छोटे-से दीपक की गरिमा कभी न हम खोने देंगे, हम है स्नेह-सिंधु के वासी, स्नेह बाँटने आए हम, कोई कंठ न तरसे प्यासा, स्नेह-कलश है लाए हम।
मात्र शब्द से नहीं, आचरण से यह बात बताएँ हम, भीतर-बाहर का अँधियारा, मिलकर आज मिटाएँ हम।
जलें दीप से दीप, रोशनी ऐसी हो परिवारों में, तिमिराच्छन्न मनों में भी फिर आए क्राँति विचारों में, तज अधर्म, अध्यात्म-मार्ग पर हम सहर्ष चलना सीखे, नवयुग के अनुरूप नए साँचे में खुद ढलना सीखे।
अब तक हुई भूल जो हमसे, उसे न फिर दुहराएँ हम, भीतर-बाहर का अँधियारा, मिलकर आज मिटाएँ हम।
-शचींद्र भटनागर
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*समाप्त*