संपत्ति से नहीं, स्वतंत्रता से व्यक्ति होता है सम्राट

November 2002

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सम्राट समुद्रगुप्त पिछले कई दिनों से चिन्ता में डूबे हुए थे। दरबारी और सामन्तगण अनेकों प्रयत्नों के बावजूद उनकी चिन्ता का कारण नहीं खोज पा रहे थे। उन्हें समझ में नहीं आ रहा था कि अब भला सम्राट की चिन्ता का कारण क्या हो सकता है? उत्तरापथ के साथ दक्षिणापथ के भी सभी राजाओं को जीता जा चुका है। सम्राट की महाकीर्ति का गौरवगान करने वाले प्रयाग के स्तम्भ अभिलेख की स्थापना हो चुकी है। समस्त दिशाओं में यह सत्य गूँज चुका है कि सम्राट समुद्रगुप्त समूची भारत मेदिनी के महानतम सम्राट हैं। मनीषी और विद्वान् उनके शासन को भारत का स्वर्णयुग कहते नहीं थकते। अपनी भुवन विख्यात समस्त उपलब्धियों के बावजूद सम्राट चिन्तित हैं, कारण कुछ समझ में नहीं आ रहा था।

हालाँकि कारण न समझ में आने के बावजूद सम्राट इन दिनों चिन्ता में आकण्ठ डूबे हुए थे। दरअसल चिन्ताएँ जब डुबाती है तो पूरा ही डुबाती है। क्योंकि एक चिन्ता जिस द्वार-दरवाजे से भीतर प्रवेश करती है, ठीक उसी द्वार से और भी चिन्ताएँ न चाहने पर भी प्रवेश कर जाती है। जो द्वार एक को मार्ग देता है, वह अनजाने में ही अनेकों को मार्ग दे देता है। इसीलिए हमेशा ही चिन्ताओं की भीड़ आती है। कभी कोई एक अकेली चिन्ता से नहीं मिला करता।

चिन्ताओं के इस परिदृश्य में यह आश्चर्यजनक किन्तु सत्य है कि सम्राट प्रायः ही चिन्ता में डूबे रहते हैं। जबकि वास्तविक रूप से सम्राट तो केवल वे ही हैं, जो चिन्ता से छुटकारा पा गए हैं। चिन्ता की दासता इतनी विस्तृत है कि एक साम्राज्य की शक्ति भी उसे पोंछ नहीं पाती। शायद यही कारण है कि साम्राज्यों की शक्ति भी चिन्ता की सेवा में तत्पर हो जाती है।

यही यथार्थ सम्राट समुद्रगुप्त को पिछले कई दिनों से बुरी तरह से साल रहा था। वह सोच रहे थे कि मनुष्य सम्राट होना चाहता है, शक्ति और स्वतंत्रता के लिए। किन्तु साम्राज्य मिलने पर उसे पता यही चलता है कि सम्राट से ज्यादा अशक्त, परतन्त्र और पराजित व्यक्ति कोई दूसरा नहीं है। क्योंकि दूसरों को दास बनाने वाला व्यक्ति अन्ततः खुद ही दासानुदास हो जाता है। सच्चाई यही है कि हम जिसे बाँधते हैं, उससे हम खुद भी बंध जाते हैं। अपनी स्वतंत्रता के लिए दूसरों की दासता से मुक्ति ही नहीं, दूसरों को दास बनाने की वृत्ति से भी मुक्ति जरूरी है।

सम्राट भी स्वयं को आजकल बहुत ही बंधा हुआ महसूस कर रहे थे। उन्हें अपने दिग्विजय अभियानों की आसारता अनुभव हो रही थी। वह इस सत्य की अनुभूति कर रहे थे कि जीतने तो वह स्वर्ग को निकले थे, लेकिन जीतने पर केवल नर्क का सिंहासन हाथ लगा है। शायद यथार्थ यही है कि अहंकार जो कुछ भी जीतता है, वह आखिरकार नर्क ही साबित होता है। अहंकार की तो औकात ही नहीं है कि वह स्वर्ग को जीत सके- क्योंकि स्वर्ग तो वहीं सम्भव है, जहाँ अहंकार ही नहीं है।

सम्राट अब इस स्वयं जीते हुए नर्क से छुटकारा पाना चाहते थे। लेकिन स्वर्ग को पाना कठिन, गंवाना सरल है, जबकि नरक को हासिल करना सरल और गंवाना कठिन है। समुद्रगुप्त में अब अपनी चिन्ताओं से मुक्त होने के लिए भारी छटपटाहट थी। नर्क के सिंहासन पर बैठे रहना भला किसे सुहाता है। लेकिन जो सिंहासन पर बैठे रहना चाहते हैं, उन्हें नर्क के सिंहासन पर बैठना ही पड़ता है। सत्य तो यही है कि स्वर्ग में कोई सिंहासन ही नहीं है। नर्क के सिंहासन ही दूर से स्वर्ग के सिंहासन नजर आते हैं। रात-दिन, सोते-जागते समुद्रगुप्त को इसी सत्य की अनुभूति हो रही थी। वह अपनी चिन्ताओं से जूझ रहे थे।

लेकिन चिन्ताएँ तो चिन्ताएँ हैं, एक किसी तरह से जाती है तो हजार नयी आ धमकती हैं। सम्राट समुद्रगुप्त भी चिन्ताओं से छुटकारा पाने के साथ चक्रवर्ती सम्राट होने का सुख भी उठाना चाहते थे। पहले कभी उन्होंने सोचा था कि शायद चक्रवर्ती सम्राट होकर चिन्ताओं से छुटकारा मिल जाए। परन्तु ऐसे निष्कर्ष निकालकर मनुष्य अपनी मूढ़ता ही प्रमाणित करता है। सम्राट को रोज नए राज्य चाहिए थे, और वह उन्हें मिल भी गए। विगत कुछ सालों पहले वह सोचा करते थे कि साँझ का अस्त होता सूरज उनकी साम्राज्य सीमा को वहाँ न पावे जहाँ उसने सुबह उगते समय पाया था। उन्होंने चाँदी की रातों में सोने के सपने देखने की कल्पनाएँ की थी। उनकी ये कल्पनाएँ साकार भी हुई। और तब उन्होंने जाना कि जीवन के लिए ऐसी रातें और ऐसे सपने बहुत घातक हैं। क्योंकि चाँदी की रातें-आत्मा को अँधेरे में डुबाती हैं और सोने के सपने प्राणों में जहर घोलते हैं। महत्त्वाकांक्षा की मदिरा से आयी बेहोशी को शायद मौत ही तोड़ पाती है।

सम्राट के जीवन में अब साँझ उतरने लगी थी। जीवन दिवस उतार पर था। मौत के संदेश और संकेत उन्हें सुनायी और दिखाई पड़ने लगे थे। बड़ी मुश्किल आन पड़ी थी- शक्ति रोज कम हो रही थी, चिन्ताएँ रोज बढ़ रही थी। उनके प्राण बड़ी विपन्न दशा में थे। क्या किया जाय, जीवन की रीति यही है कि मनुष्य यौवन में जो बीज बोता है, उसकी फसल उसे काटनी ही पड़ती है। विष के बीज बोते समय नहीं, फसल काटते समय कष्ट देते हैं। बीज में ही जो दुःखों को देख लेते हैं, फिर वे बोने की गलती नहीं करते। बीज से तो छुटकारा पाना सम्भव है, लेकिन बोने के बाद तो फसल काटनी ही पड़ती है। फिर बच निकलने का कोई उपाय नहीं है।

सम्राट समुद्रगुप्त भी इस समय अपनी ही बोयी फसलों के बीच खड़े थे। ऐसे में क्या करें उन्हें समझ में नहीं आ रहा था। एक दिन वह अपनी चिन्ताओं से पीछा छुड़ाने के लिए वन की ओर चल पड़े। हालाँकि चिन्ता को छोड़कर भागना चिता छोड़कर भागने से भी कठिन है। क्योंकि चिता बाहर और चिन्ता भीतर है। भीतर के किसी तत्त्व से छुटकारा तो स्वयं को आमूल-चूल बदलने पर ही सम्भव है। लेकिन इस समय तो सम्राट अपने सबसे प्रिय श्वेत-श्याम कर्ण अश्व पर बैठे भागे जा रहे थे।

तभी अचानक उनके कानों में बंसी की सुरीली धुन पड़ी। इसमें कुछ ऐसा था कि उनकी गति थम गयी। बरबस ही उन्होंने अश्व को बंसी की धुन की दिशा में मोड़ लिया। कुछ दूर जाने पर उन्होंने देखा कि पहाड़ी झरने के पास, वृक्षों के झुरमुट के तले, एक युवा चरवाहा नृत्य करता हुआ बंसी बजा रहा था। पास में ही उसकी भेड़े बैठी थी। बड़ा ही सुरम्य दृश्य था यह। इसे निहारते हुए सम्राट उससे बोले- तू तो ऐसा आनन्दित है जैसे तुझे कोई साम्राज्य मिल गया हो? जवाब में वह युवक हँसता हुआ बोला, अरे भाई, तू दुआकर कि भगवान् मुझे कोई साम्राज्य न दे। क्योंकि सम्राट तो मैं अभी हूँ। साम्राज्य मिलने पर भी क्या कोई सम्राट रह पाता है?

उसकी बातों ने सम्राट समुद्रगुप्त को हैरान कर दिया। समुद्रगुप्त की हैरानी भाँप कर वह युवक कहने लगा- सम्पत्ति से नहीं स्वतन्त्रता से व्यक्ति सम्राट होता है। और सिवाय स्वतंत्रता के मेरे पास और कोई सम्पदा नहीं है। मैं सोचता हूँ, भला मेरे पास ऐसी कौन सी मौलिक वस्तु नहीं है, जो सम्राट के पास है। प्रकृति के अद्भुत सौंदर्य को निहारने के लिए मेरे पास आँखें हैं। परमात्मा के स्वरूप के बारे में चिन्तन करने के लिए मेरे पास मन है। प्रभु भक्ति करने के लिए मेरे पास निर्मल हृदय है। सूरज जितनी रोशनी मुझे देता है, उतनी ही वह सम्राट को देता है। चाँद भी मुझ पर अपनी उतनी ही चाँदनी बरसाता है, जितनी की सम्राट पर। प्रकृति के आँगन में खिले खूबसूरत फूलों की सुगन्ध भी मुझे सम्राट से कम नहीं मिलती। फिर सम्राट के पास ऐसा क्या है, जो मेरे पास नहीं है?

हाँ मेरे पास कुछ बेकार की चीजें जरूर नहीं है। जिन्हें बेचारा सम्राट ढोता रहता है। मेरे पास नहीं हैं, चिन्ताएँ और मैं ये चाहता भी नहीं हूँ। पर इनके बदले मेरे पास ऐसा बहुत कुछ है, जो सम्राट के पास नहीं। जैसे मेरे पास है- मेरी स्वतंत्रता, मेरा आनन्द, मेरा प्रभु प्रेम। सम्राट समुद्रगुप्त ने उस युवक की बातें सुनकर कहा, ‘प्यारे युवक! तुम यथार्थ कहते हो। अपने गाँव में जाकर सबसे कहना कि स्वयं सम्राट समुद्रगुप्त भी तेरे इस सत्य से पूर्णतया सहमत हैं।’


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