जीवन जीने के लिए कलात्मक प्रयासों की परिणति

November 2002

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आर्ट ऑफ लिविंग या जीने की कला आज एक बहुप्रचारित तथ्य है। इसकी व्याख्या-विवेचना के लिए इन दिनों विश्व भर में नित्य-प्रति अनेकों व्याख्यान-मालाएँ आयोजित होती हैं। दुनिया भर के लेखक एवं प्रकाशक इस विषय पर प्रतिमास बड़ी संख्या में पुस्तकें लिखते और प्रकाशित करते हैं। सामान्य जन में भी इस विषय पर सुनने या पढ़ने की लालसा बढ़ी है। ये सब जीवन के प्रति बढ़ती हुई जिज्ञासा एवं बढ़ रही समझ के शुभ संकेत हैं। आर्ट ऑफ लिविंग के बारे में इन दिनों जो कुछ भी सत्प्रयास हो रहे हैं, वे सभी इस बात पर जोर देते हैं कि जीवन को अनगढ़ या बेतुके ढंग से जीने की बजाय कलात्मक रीति से जिया जाना चाहिए।

इस तत्त्वदर्शन का आधारभूत सत्य मनुष्य जीवन स्वयं है। जो कि अखिल-विश्व ब्रह्मांड को रचने वाले अप्रतिम कलाकार परमेश्वर की सर्वश्रेष्ठ कलाकृति है। प्रभु ने अपनी कला की प्रत्येक सूक्ष्मता एवं समूचे सौंदर्य को इसमें समाहित किया है। तभी तो विश्व के सभी प्रज्ञावानों ने एक स्वर से इस तथ्य का प्रतिपादन किया है कि मनुष्य जीवन से श्रेष्ठ, सुन्दर तथा अनोखी सम्भावनाओं से पूर्ण अन्य कुछ भी नहीं है। ‘न हि मानुषात् श्रेष्ठतरं किंचन’ के व्यास वचन विभिन्न देशों की विभिन्न भाषाओं में एक लय से गाए गए हैं। इतना ही नहीं धरती के हर भाग में जीवन की श्रेष्ठता, सुन्दरता एवं अपूर्व सम्भावनाओं को प्रकट करने के लिए शोध-अन्वेषण भी होते रहे हैं।

धर्म एवं संस्कृति इन्हीं शोध-अनुसन्धानों का सार निष्कर्ष है। यह जीवन जीने के कलात्मक प्रयासों का प्रमाण है। हिमालय की गहन उपत्यिकाओं में स्वरित हुए वेदमंत्र हो या फिर कुरान की आयतें अथवा बाइबिल के वचन सभी का उद्देश्य जीवन के श्रेष्ठ एवं सुन्दर तत्त्वों के साथ उसकी सम्भावनाओं को प्रकट करना रहा है। प्रत्येक धर्म एवं संस्कृति के विकास का उद्देश्य अपने स्थान-विशेष की परिस्थितियों के अनुरूप जीवन जीने की कला का शिक्षण रहा है। हर एक धर्म के प्रवर्तक एवं उसकी संस्कृति के संवाहक महापुरुषों ने अपना जीवन इसी महत्त्वपूर्ण उद्देश्य के लिए समर्पित किया है। जीवन को कलात्मक रीति से जीना सिखाने के लिए प्रत्येक धर्म में अपनी परिस्थिति एवं परिवेश के अनुरूप कई तरह के प्रयोगों एवं तकनीकों का भी विकास हुआ है। परन्तु धीरे-धीरे यह क्रम शिथिल पड़ता गया। वैज्ञानिक अभिवृत्ति के अभाव में ‘धर्म’ शब्द परम्परा एवं रूढ़ियों का पोषक बनकर रह गया। इसी तरह ‘संस्कृति’ सुसंस्कारिता से पूर्ण परिष्कृत के स्थान पर मात्र कुछ ललित कलाओं तक सिमट कर रह गयी।

ऐसे में पुरातन नव अन्वेषण युग की सामयिक माँग बन गया है। आर्ट ऑफ लिविंग इसी सामयिक माँग की पूर्ति है। इसे धर्म के सनातन तत्त्व का नव जन्म भी कहा जा सकता है। विश्व भर में फैले इसके व्याख्याकार इसे अनेकों तरह से परिभाषित करते हैं। एफ.बी. बेकर के अनुसार- ‘यह जीवन की सम्भावनाओं का जागरण है।’ एम.आर. बारोनी इसे जीवन की अन्तर्निहित शक्तियों के विकास के रूप में परिभाषित करते हैं। एस. कोभान के शब्दों में ‘यह मनःस्थिति की परिस्थिति पर विजय है।’ सी. मारकुस कूपर इसे सफलता के राजमार्ग के रूप में परिभाषित करते हैं। ‘द सेवन हैबिट्स ऑफ हाइली इफेक्टिव पीपुल’ नाम के विख्यात ग्रन्थ के रचनाकार स्टीफेन आर. कोवे इसे जीवन के रूपांतरण के सशक्त पाठ के रूप में निरूपित करते हैं।

इन विविध परिभाषाओं की विविधरूपता के बावजूद इसमें निहित सत्य एक ही है- जीवन की श्रेष्ठता, सुन्दरता के साथ इसकी उच्चतम सम्भावनाओं को प्रकट करना। वेदमन्त्र, उपनिषदों की श्रुतियाँ, षड्दर्शन के विविध सूत्र इसी को पाने के विविध उपाय सुझाते हैं। इन उपायों को यदि कुछ बिन्दुओं में समावेशित या समाहित किया जाय, तो इनमें से प्रथम बिन्दु होगा, अपने जीवन के वर्तमान स्वरूप का साक्षात्कार। सामान्य क्रम में लोग आत्मतत्त्व के साक्षात्कार की बातों को कहते व सुनते हुए मोहक कल्पनाओं में खोये रहते हैं। ऐसे लोगों में बहुसंख्यक अपने जीवन के वर्तमान सत्य से या तो विमुख होते हैं अथवा फिर अनजान होते हैं।

‘अपने जीवन के वर्तमान स्वरूप का साक्षात्कार’ आर्ट ऑफ लिविंग या जीवन जीने की कला का प्रारम्भिक बिन्दु है। इसका अर्थ यह है कि हम जो हैं, जैसे हैं, उसे उसी रूप में जाने, अनुभव करें। अपनी कमियों, कमजोरियों को जानने के साथ अपनी सम्भावनाओं को पहचानें। यह काम आसान दिखता हुआ भी आसान नहीं है। इसके लिए नित्य प्रति नियमित अभ्यास की आवश्यकता है। सामान्य तौर पर हममें से प्रायः सभी एक गहरी आत्मवंचना में जीने के आदी हो गए हैं। हमारे लिए सबसे ज्यादा महत्त्वपूर्ण यह हो गया है कि हम दूसरों की दृष्टि में क्या हैं? जबकि महत्त्वपूर्ण यह है कि हम स्वयं की दृष्टि में क्या हैं? अपने द्वारा अपने को देखना नितान्त आवश्यक है। क्योंकि उसके बाद ही जीवन साधना की किसी वास्तविक दिशा में कदम उठाए जा सकते हैं।

इस क्रम में दूसरा महत्त्वपूर्ण बिन्दु है, संकल्पवान जीवन। जे.डी. फिशर के अनुसार संकल्पवान जीवन के बारे में प्रायः लोग भ्रमित रहते हैं। क्योंकि वे संकल्प को हठ या जिद का पर्याय मान लेते हैं। जबकि संकल्प विवेकपूर्ण चारित्रिक दृढ़ता है। मनीषी फिशर के अनुसार संकल्प का उपयोग दोषों के त्याग एवं गुणों के सम्वर्धन के लिए किया जाना चाहिए। लम्बे समय तक के प्रयासों से अपने आप को जानकर आर्ट ऑफ लिविंग के अभ्यासी को अपनी कमियों-कमजोरियों एवं अपनी उच्चतम सम्भावनाओं की अलग-अलग सूची बना लेना चाहिए। इस सूची का अनुसरण करके प्रति सप्ताह किसी एक कमी कमजोरियों को दूर करने एवं किसी एक सम्भावना को जाग्रत् करने का संकल्प लेना चाहिए।

संकल्पवान जीवन के लिए अनुशासन को फिशर महत्त्वपूर्ण मानते हैं। उनके अनुसार संकल्प एवं अनुशासन एक ही सत्य के दो महत्त्वपूर्ण पहलू हैं। अनुशासित हुए बिना संकल्पवान नहीं बना जा सकता है। इसी तरह संकल्प के बिना अनुशासन का ठीक-ठीक पालन सम्भव नहीं है। जे.डी. फिशर का कहना है। संकल्प एवं अनुशासन के ठीक-ठीक प्रयोग से जीवन की अन्तर्निहित क्षमताएँ जाग्रत् होने लगती हैं। इस तरह अनेकों उच्चतम सम्भावनाओं का अंकुरण एवं पल्लवन होने लगता है।

इस भाव दशा में जीने की कला के अगले बिन्दु का प्रारम्भ होता है। यह बिन्दु है- स्वयं की क्षमताओं का स्वार्थ रहित होकर उच्चतर उद्देश्यों के लिए नियोजन। इसका सही-सही अनुपालन होने पर जीवन का रूपांतरण घटित होता है। क्षुद्रताएँ अपने आप ही व्यापकताओं में बदल जाती है। स्व में विराट् की अनुभूति होती है। ज्यों-ज्यों हम अपनी क्षमताओं को श्रेष्ठ एवं सर्वहित के कार्यों में नियोजित करने लगते हैं। शान्ति एवं सन्तोष की मात्रा भी बढ़ती जाती है। जीवन के सार्थक होने की सच्ची अनुभूति जन्म लेने लगती है। जीने की इसी कलात्मक शैली में जीवन के श्रेष्ठ एवं सुन्दर तत्त्व प्रकट होते हैं। अन्तर्निहित क्षमताएँ एवं सम्भावनाएँ अपने सम्पूर्ण सौंदर्य के साथ अभिव्यक्त होती हैं। परमेश्वर की श्रेष्ठतम कलाकृति मानव जीवन में सर्वोत्तम कलात्मकता प्रकट होती है।


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