चेतन की शिखर यात्रा - भागवत भूमि का सेवन- (3)

November 2002

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सर्पदंश की चेतावनी

ध्यान में बैठने से पहले वे शिवालय जाते थे। वहाँ दर्शन कर आम पेड़ के नीचे बैठे ही थे कि यह अनुभूति हुई। दर्शन कर नीचे उतर रहे हैं। मन में भाव आया कि आसन का स्थान अभी चौबीस-पच्चीस पग दूर है। वस्तुस्थिति तो आसन पर बैठने की है, लेकिन मन का लय होने के बाद मानस पटल पर वह दृश्य चल रहा है। शिवालय के नीचे उतरते हुए पाँव के नीचे किसी कोमल वस्तु का आभास हुआ। देखा तो एक सर्प दब गया है। क्षणभर में ही कुपित सर्प ने अपना मुंह घुमाया और पाँव पर डस लिया। इस घटना से हतप्रभ श्रीराम कुछ समझे, इससे पहले सांप ने पहले पिंडली में और फिर कमर के नीचे डसा।

कहीं सुन रखा था कि साँप सिर्फ एक बार ही डसता है। साथी ने रोका तो श्रीराम ने कहा लेकिन यह अनुभव हो रहा था। ध्यान में बैठे-बैठे ही लग रहा था। दंश के बाद शरीर गिर गया। पता नहीं क्या क्या उपचार किया गया। वह सब दिखाई दे रहा था। इस तरह दीख रहा था जैसे किसी दूसरे व्यक्ति को यह सब हो रहा है। सर्प विष चढ़ने लगा, तो नींद के तेज झोंके आने लगे। आस-पास बैठे लोग मुंह पर पानी के छोटे मार रहे थे। वैद्य जी आ गए। उन्होंने कुछ औषधियां मँगाई। तब तक माँत्रिक भी आ गया। वह मंत्र पढ़ते हुए थाली बजाने लगा। थाली की आवाज लयात्मक थी। उसके संगीत में मन डूबने-उतराने लगा। माँत्रिक थाली पीटने के साथ मंत्र भी पढ़ता जा रहा था। वैद्य जी की मंगाई औषधि आ जाने के बाद काढ़ा तैयार किया गया। काढ़ा पिया, उससे आराम मिलने के बजाय पीड़ा और बढ़ गई। लगा जैसे जगह-जगह साँप डस रहे है। उनके दांतों की तीखी चुभन, जलन अनुभव होती है, फिर कुछ देर के लिए वह जगह सुन्न हो जाती है और कुछ ही पलों बाद चुभन फिर तीक्ष्ण हो जाती है।

प्राण कब छूट गए? कुछ पता ही न चला। होश आया तो देखा कि जटा जूटधारी एक सौम्य संन्यासी अपना शरीर नदी से खींचकर बाहर ला रहे थे। मृत जानकर परिवार के लोगों ने शरीर को शायद नदी में प्रवाहित कर दिया था। सर्पदंश से मृत्यु को प्राप्त हुए व्यक्ति का शव जलाया नहीं जाता। उसके भौतिक कारण जो भी हों, आध्यात्मिक मान्यता के अनुसार सर्प काल का प्रतीक है। जिसे काल ने स्वयं ही चुन लिया हो, उसके शरीर या अस्तित्व में ऐसा कुछ नहीं बचता, जिसे विसर्जित किया जाए। उन संन्यासी ने श्रीराम के शरीर को नदी से खींचकर बाहर निकाला और जमीन पर लिटाया। अचेत काया के पास बैठकर संन्यासी ने कुछ देर ध्यान लगाया। उन संन्यासी की सौम्य मूर्ति को पास बैठा अनुभव करते हुए चेतना धीरे-धीरे लौटने लगी। उन्होंने स्नेह से थपथपाया और कहा, “उठो घर जाओ। माता-पिता परेशान हो रहे होंगे।”

संन्यासी का यह आदेश सुनकर उठने का उपक्रम किया, तो अगला संदेश यह आया, अब दोबारा यहाँ मत आना। घर में बैठकर ही ध्यान लगाना। पूछना चाहा था कि महात्मा आप कौन हैं? लेकिन डर के मारे पूछ नहीं सका। संन्यासी ने शायद मन की बात समझ ली, बिना पूछे ही उत्तर दे दिया, “हम इस चराचर जगत् से मुक्ति का मार्ग खोज रहे एक साधक हैं बच्चा। कोई सिद्ध-महात्मा मत समझना। एक साधारण संन्यासी भर हैं।”

अब कहने का साहस हुआ। इच्छा उभरी और तुरंत निवेदन भी कर दिया, “आप हमारा मार्गदर्शन कीजिए न पूज्यवर।” संन्यासी ने कहा, “नहीं, हम स्वयं पथिक हैं, लेकिन तुम्हारी मार्गदर्शक सत्ता तुम पर बराबर दृष्टि लगाए हुए है। उपयुक्त अवसर आने पर वह तुम्हारे पास पहुँचेगी। यह मत पूछना कि कब? हम सिर्फ यही कह सकते हैं कि जल्दी ही। आश्वस्त रहना और किसी को अपना गुरु बनाने की जल्दबाजी मत करना।”

संन्यासी आगे कुछ और भी कह रहे थे। क्या कहा, यह याद नहीं रहा। अंत में सिर्फ इतना ही सुनाई दिया कि उठ, अब जा और आँख खुली, तो सामने पिता को विचित्र स्थिति में विलाप करते हुए देखा। उठकर उन्हें प्रणाम किया। बाद में जो हुआ, वह सभी को मालूम है।

पिता ने समझा कि यह घटना भागवत कथा सुनाने के कारण हुई। मोह माया के कारण थोड़ी देर तक तरह-तरह के संकल्प-विकल्प मन में उठते रहे। फिर कहा, प्रभु को जो स्वीकार है, वही होगा। श्रीराम के लिए ईश्वर ने कुछ नियत कर रखा है, तो हम लोगों में से कोई भी क्या कर सकता है? संतोष करना चाहिए। कुछ देर मन को ढाढ़स बँधाते, फिर वापस पुत्र मोह में डूब जाते। यद्यपि वे अच्छी तरह जानते थे कि उनका पुत्र माता-पिता को छोड़कर कहीं जाने वाला नहीं है, लेकिन यह मोह भी तो बड़ा विलक्षण भाव है। मन को कहीं स्थिर तो नहीं ही होने देता, उसे बाँधकर हिलाता डुलाता भी रहता है।

पंडित जी ने उसी क्षण निश्चय कर लिया कि वे पुत्र को भागवत कथा नहीं सुनाएँगे, साधु-संतों और वैरागियों के बारे में नहीं बताएँगे, उन्हें पास फटकने भी नहीं देंगे। इस निश्चय के बाद पिताश्री ने भागवत शास्त्र का विसर्जन करने की ठानी। जब भी कोई उपदेशक कथा-प्रवचन से विराम लेना चाहता है, तो पूर्णाहुति का आयोजन करता है, यह परंपरा अब लुप्तप्राय है, लेकिन जिन्होंने गुरु से दीक्षा लेकर शास्त्र का उपदेश किया, वे इस मर्यादा को जानते हैं। शरीर से अशक्त होने पर, वृद्धावस्था में, वैराग्य होने पर, परिव्राजक संन्यासी बन जाने के बाद कई शास्त्री कथा आयोजन से भी मुक्ति पा लेते हैं। शरीर इस योग्य नहीं रहता अथवा कथा आयोजकों के लिए आवश्यक ताम-झाम नहीं जुटता, इसलिए वे साधनों और विधियों का त्याग कर देते हैं।

पिताश्री ने वंश-परंपरा में असमय संन्यास का उदय होते देख भागवत की पोथी का विसर्जन करना चाहा। उसके लिए इक्कीस ब्राह्मण बुलाए, यज्ञ आयोजित किया और पूर्णाहुति के रूप में भागवत शास्त्र वासुदेव मंदिर में स्थापित कर दिया। जिस दिन मंदिर में शास्त्र की स्थापना की और भगवान से निवेदन किया कि अब शास्त्र प्रवचन से विराम लेते है, उसी दिन बल्कि उस निवेदन के बाद ही पिताश्री की वाणी ने भी विराम ले लिया। उनका बोलना बंद हो गया। लोगों ने कहा कि पंडित जी की वाचा भगवद् गुणगान के लिए ही खुली थी। कथा से विराम लिया, तो स्वर भी चले गए।

पिताश्री का महाप्रयाण

यज्ञ संपन्न होने की रात को ही पंडित जी की हालत बिगड़ी। बोली बंद होने के बाद उनका चलना-फिरना भी बंद हो गया। वे बिस्तर पर ही पड़े रहने लगे। इशारों से बात करते और होठों में कंपन होता रहता, जैसे द्वादश अक्षय मंत्र का जप कर रहे हों। अगले दिन उन्होंने भोजन लेने से मना कर दिया। स्वजनों ने आग्रह किया, तो इशारे से कहने लगे कि अब वक्त आ गया है। भोजन के द्वारा शरीर की जबरदस्ती आगे नहीं खीचना है।

दो एक दिन में ही पंडित जी के बीमार होने और देह त्याग का संकल्प लेने की सूचना स्वजन संबंधियों में फैल गई। वे कुशल-क्षेम जानने के लिए आने लगे। घर में लोगों की भीड़ रहने लगी। पंडित जी सबको देखते, हाथ जोड़कर उनका अभिवादन करते। कुछ कहते तो नहीं बनता था, लेकिन चेहरे के भाव जैसे कहते थे कि जाने अनजाने अब तक जो भी गलतियाँ हुई हों, अपने किसी व्यवहार से दुःख हुआ हो, तो उसके लिए क्षमा माँगता हूं। भावों की इस अभिव्यक्ति के बाद आगंतुक भी अभिवादन का उत्तर देते, तो पंडित जी का चेहरा जैसे खिल उठता। शुक्ल पक्ष की दशमी का उदय होते ही पंडित जी ने अपने बड़े और दुलारे पुत्र श्रीराम को बुलाया। संकेत से ही कहा कि उठाकर बिठा दे। उन्हें बिठाया गया। पंडित जी ने फिर अपने आप पालथी लगाई। आसन लगाया, दोनों हाथ गोद में रखे, आंखें बंद की और कुछ पल निश्चय बैठे रहे। पाँच-सात मिनट तक ध्यान मुद्रा में बैठे रहने के बाद उनके मुँह से ‘नमो भगवते वासुदेवाय’ का मंत्र निकला।

पुत्र से उन्होंने कहा कि मूल भागवत का पाठ करें। श्रीराम ने मूल चार श्लोकों का पाठ शुरू किया, ‘अहमेवासमेवाग्रे नान्यद् यत् सदसत्परम्। पश्चादहं यदेतच्च्......॥’ पाठ के बाद वहाँ उपस्थित लोगों के समझाने के लिए अर्थ भी सुनाया, “भगवान कहते है कि सृष्टि के आदि में केवल मैं ही था। सत्, असत्, स्थूल, सूक्ष्म तथा कारण प्रकृति भी नहीं थी। सृष्टि के पश्चात् भी मैं ही हूँ। वह विश्व जो दृष्टिगोचर हो रहा है, वह भी मैं ही हूँ। प्रलय में जो शेष रहता है, वह भी मैं ही हूँ। यह ब्रह्म का स्वरूप कहा गया है। आत्मा में असत्, दुर्बलता और दुःख की जो प्रतीति होती है, सत्-चित् और आनंद आदि की प्रतीति नहीं होती, उसे भी मेरी (भगवान की) ही माया जानो।”

‘पंच महाभूत जिस तरह छोटे-बड़े सभी जीवों में प्रविष्ट होते है और कारण रूप से पृथक रहने के कारण अप्रविष्ट भी है, वैसे ही मूल भौतिक पदार्थों में मेरा प्रवेश है और नहीं भी है। आत्मतत्व के जिज्ञासु पुरुष को जानना चाहिए कि अन्वय और व्यतिरेक से जो सब जगह और सर्वदा रहे, वही आत्मा है। अन्वय का अर्थ है- कार्य के कारण का संबंध और व्यतिरेक का अर्थ है-संबंध का अभाव।’ अर्थ और भाव पूरा होते होते तक पंडित जी ने शरीर से व्यतिरेक कर लिया। उनकी आत्मचेतना विराट् चेतना में लीन हो गई। जो पद्मासन लगाकर वे बैठे थे, उसके बारे में शास्त्रों ने कहा है कि साधक अपने इष्ट में ही लय होता है। पंडित जी की अवस्था उस समय सड़सठ वर्ष थी। उनके जाते ही घर में रोना-धोना मच गया, लेकिन श्रीराम गंभीर थे, जैसे कुछ सोच रहे हो या समझने की चेष्टा में हो।

यह पला अवसर था जब श्रीराम ने शरीर और आत्मा का संबंध विच्छेद होते देखा हो। रोना धोना मचने लगते ही श्रीराम पिता के पास आसन लगाकर बैठ गए। उसी तरह जिस तरह पंडित जी बैठे थे। ताई जी ने बेटे को इस तरह बैठते देखा तो वे जोर से रो उठी। उन्हें न जाने क्यों लगा कि पुत्र भी पिता का अनुकरण कर रहा है, उन्हें छोड़कर जा रहा है। वे वैधव्य को स्वीकार करने वाली प्रतीकात्मक क्रियाएँ संपन्न करने के स्थान पर पुत्र को झिंझोड़ने लगी। श्रीराम फिर भी अविचल बैठे रहे। ताई जी को घर के लोगों ने समझाया। बाकी क्रियाएँ संपन्न करने के लिए कहा। घरवालों के हिसाब से श्रीराम अपनी सहज वृत्ति के अनुसार मृत्यु की इस घटना को अपने ढंग से समझ रहे थे। करीब बीस मिनट तक अविचल ध्यान मुद्रा में बैठे रहकर श्रीराम अपने आप उठा गए और परिवार के लोगों के साथ पिताजी के पार्थिव शरीर की विदाई में जुट गए।

अंत्येष्टि और मरणोत्तर संस्कार के बाद परिजनों में विचार चला कि पिताजी की विरासत को कौन सँभाले। जमीन जायदाद की जिम्मेदारी से श्रीराम ने अपने आपको तुरंत यह कहते हुए अलग कर लिया कि वे सिर्फ पिता की भागवत परंपरा का पालन करेंगे। स्वयं को भगवान के लिए ही रखेंगे और उन्हें ही अपना बनाएँगे। स्वजनों ने यह सुना और समझ लिया कि मृत्यु के पूर्व पंडित जी ने सात दिन तक जो कथा सुनाई थी, उसी का प्रभाव है। जिम्मेदारियाँ सिर पर आएँगी तो सब सँभल जाएगा। परिवार की वर्तमान पीढ़ी में सबसे बड़े ज्योतिप्रसाद के सिर पर पगड़ी बँधी। रिवाज के अनुसार दूसरे लोगों को भी उनका दायभाग मिला। श्रीराम अंत तक यही कहते रहे कि वे घर-गृहस्थी और जमीन जायदाद सँभालने के लिए नहीं हैं। हमें अपने धर्म कर्त्तव्य का पालन करना है।

कुछ घटनाएँ

पिता के नहीं रहने के बाद श्रीराम अपने आपको अकेला अनुभव करने लगे। घर के और सदस्य भी थे, लेकिन उनका रुचि खाने कमाने की विद्याओं में ज्यादा थी। खेती बाड़ी, व्यापार और लगान वसूली के अलावा वे कोर्ट कचहरी के कामों में भी व्यस्त रहते। उन सदस्यों की ज्योतिष, आयुर्वेद प्रशासन और समाज सेवा के क्षेत्र में अच्छी पैठ थी। योग, ध्यान, अध्यात्म आदि में श्रीराम की ही विशेष र्सत थी।

बचपन और किशोरावस्था की अनेक घटनाएँ है, जिनमें श्रीराम अत्यंत सहृदय और सहज ही विश्वास करने वाले गुणों से ओत प्रोत दिखाई देते है। गाँव में माताएँ बच्चों को दूध पिलाते ही मक्खन खिलाने पर विशेष ध्यान देती है। एक दिन श्रीराम ने गाय को दुहे जाते हुए देखा। छूटने से पहले बछड़े को गाय के पास ले जाते हैं। वह थनों में दूध उतारती है। फिर अपने उपयोग के लिए दूध दुहने लगते हैं। श्रीराम जब गाय को दुहे जाते देख रहे थे, तो बछड़े को हटाया गया। बछड़ा गाय की ओर देखता, वापस जाने की कोशिश करता और मचलता रहा। गाय भी अपने वत्स की ओर टुकुर टुकुर देखती रही। गाय और बछड़े का यह संबंध विछोह और विवशता देखकर श्रीराम दुखी हुए। वे अंदर गए और ताई जी से कहा कि आज के बाद दूध नहीं पिएँगे।

ताई जी ने और घर के लोगों ने समझाने की कोशिश की, दूध पीने से ताकत आती है, शरीर बलवान बनता है, रोगों से लड़ने की सामर्थ्य आती है। श्रीराम के पास सबका एक ही उत्तर था- बछड़े के मुँह का आहार लेकर अपना शरीर मजबूत नहीं बनाना। महीनों तक समझाने का क्रम चलता रहा। आखिर में समाधान यह निकला कि बछड़ा दूध पीते-पीते तृप्त हो जाए और अपने आप गाय से दूर चला जाए, तभी दूध दुहा जाए। वही दूध पीएँगे। इस शर्त पर दुहा गया दूध बहुत कम होता था, लेकिन पशुओं की आवश्यकता को ध्यान में रखना ज्यादा जरूरी समझा गया।

एक घटना गाँव के बाजार में ताला खरीदने की है। घर का काम नौकर चाकर कर दिया करते थे, लेकिन माँ ने सोचा कि बच्चे को घर परिवार और दुनियादारी का अभ्यास होना चाहिए। घर में रखी संदूक का ताला खराब हो गया था। दो तीन पाई में नया ताला मिल जाता। माँ ने पैसे देकर बाहर भेजा। दुकानदार ने ताले की कीमत तीन पैसे बताई। माँ ने जो कीमत बताई उससे यह चार पाँच गुना ज्यादा थी। श्रीराम ने कहा कि आप ज्यादा पैसे ले रहे हैं। दुकानदार ने कहा- वास्तविक कीमत यही है। कही भी पूछकर देख लो। इससे कम में मिल जाए तो......। दुकानदार अपनी बात पूरी करता, इसके पहले ही श्रीराम ने तीन पैसे निकाले और ताला यह कहते हुए उठा लिया कि बस-बस रहने दो। मुझे असल कीमत मालूम है, लेकिन आपको उतने ही पैसे दे रहा हूँ, जितने आपने बताए। आप पर भरोसा है।

घर में ताई जी ने छोटी-सी नसीहत दी और बात आई गई हो गई। इस घटना के बाद श्रीराम उस दुकान के सामने से कई बार निकले होंगे, लेकिन कभी नजर उठाकर देखा नहीं। दुकानदार जरूर उन्हें आते जाते देखता। जब भी देखता, उसे ख्याल आता कि श्रीराम अब रुके, तब रुके। दस बारह दिन तक कुछ नहीं हुआ। एक दिन दुकानदार ने श्रीराम को पुकारकर बुलाया और कहा, “मुझे पछतावा हो रहा है। मैंने तुमसे ज्यादा पैसे ले लिए। मेरे मन में उस समय पता नहीं कैसे लोभ इतना हावी हो गया कि वास्तविक कीमत से चार गुना ज्यादा पैसे ले लिए। ज्यादा लिए हुए पैसे अपने पास रख लो और मुझे माफ कर दो।”

श्रीराम यह सब चुपचाप सुनते रहे। दुकानदार ने पैसे वापस कर दिए और फिर भी पछताता रहा, तो बोले, “चाचा इसमें पछताने की क्या बात है? मैंने आपकी बात तब भी मान ली थी और अब भी मुझे कोई शिकायत नहीं है।” किशोर जीवन की यह घटना किसी पर भी अविश्वास नहीं करने की प्रवृत्ति दर्शाती है। इस आदत के कारण उन्हें आगे कई बार नुकसान भी उठाना पड़ा, लेकिन वे यही कहते कि विश्वास ही परिवर्तन लाता है। अविश्वास और संदेह से बुराई बढ़ती ही है, दूरियाँ भी।


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