कर्मयोग के अभ्यास बिना संन्यास सधेगा नहीं

November 2002

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युगगीता की विगत कड़ी में बताया गया था कि साँख्य (संन्यास) और कर्मयोग दोनों एक ही हैं, अलग-अलग नहीं। ‘साँख्ययोगौ पृथग्बालाः प्रवदंति न पंडिताः’ के गीता में इस अध्याय के चौथे श्लोक के पूर्वार्द्ध के उद्धरण के साथ वह बताने का प्रयास किया गया था कि समझदार लोग, ज्ञानी व्यक्ति साँख्य व योग दोनों को एक-सा फल देने वाला ही मानते हैं, जबकि अज्ञानी, नासमझ व्यक्ति संन्यास व कर्मयोग को भ्रांतिवश अगल-अलग मान लेते हैं। आज के युगधर्म को ही कर्मयोग का पर्याय बताते हुए यह कहा गया था कि यही हम सबके लिए किया जाना वाला कर्तव्य है। भगवान कृष्ण तीसरे श्लोक में कह चुके हैं कि उसी कर्मयोगी को संन्यासी मानना चाहिए, जो न किसी से द्वेष करता है, न राग रखता है, क्योंकि ऐसा व्यक्ति तो सहज ही बंधनमुक्त हो जाता है। जो इन द्वंद्वों में उलझ जाता है, वह न केवल मनोरोगी बनता है, बंधनों में बँधकर अपनी आध्यात्मिक प्रगति को भी अवरुद्ध कर लेता है। राग द्वेष से मुक्त होना ही संन्यासी मनःस्थिति में प्रवेश करना है। चौथे श्लोक में पंडितों (ज्ञानीजनों- विद्यावानों) एवं बालक की तरह आचरण करने वाले मूर्ख नासमझों के बीच का अंतर योगेश्वर बताते हैं कि जो दोनों को समान फल देने वाला मानकर एक में भी पूरी तरह से निमग्न होकर उसे जीवन में उतार लेता है, वह दोनों का ही फल प्राप्त कर लेता है। (एकमपि स्थितः सम्यक् उभयोः विन्दते फलम) कर्त्ताभाव का मिट जाना ही संन्यास की स्थिति में मनुष्य को प्रविष्ट करा देता है। आज वेश के नाम पर छाई विडंबना व संन्यास वंश की दुर्गति का जिक्र विगत अंक में किया गया। अब आगे बढ़ते हैं।

योग साधन है, साँख्य लक्ष्य

श्री भगवान इस तथ्य को स्थापित करने जा रहे है कि योग साधन है एवं साँख्य (संन्यास की मनःस्थिति) हम सबके लिए लक्ष्य। भोक्ताभाव को हम त्यागें एवं कर्त्ताभाव में प्रवेश करे। भोक्ताभाव को त्यागने के लिए राग-द्वेष से मुक्त हो, मन को तनावरहित बनाएँ, ग्रंथिमुक्त बनाएँ। आसक्ति त्यागें व जिनको हम अपने कर्मों को संपादित करने में बाधक मानते है, उन सभी गतिविधियों से बचें। अहं का त्याग होते ही हमें अंदर विद्यमान ज्योतिर्मान आत्मा की अनुभूति होने लगती है, जो हमें चिरस्थायी शाँति प्रदान करती है। इस प्रकार क्रम हुआ- कर्मयोग, कर्मों में शुचिता, दत्तचित्त होकर निरासक्त भाव से कर्म करना और फिर अपने इस योग की अंतिम परिणति साँख्य में, कर्म संन्यास में करके स्वयं को संन्यासी की मनःस्थिति में ले जाकर परमशाँति-उल्लास व ईश्वरानुभूति की पराकाष्ठा पर ले जाना। कितना सुँदर आध्यात्मिक प्रगति का राजमार्ग योगेश्वर श्रीकृष्ण अर्जुन को समझा रहे है। जीवन जीने की शैली का ज्ञान करा रहे है, एवं उसे मुक्ति के पथ की ओर प्रशस्त कर रहे है। अपनी इस बात को कि किसी भी एक मार्ग का अनुसरण करने से साधक को इष्ट की सिद्धि हो जाएगी, अहंभाव से मुक्ति मिल जाएगी, वे अगले पाँचवें श्लोक में और भी अच्छी तरह स्पष्ट करते हुए कहते है-

यत्साड्ख्यैः प्राप्यते स्थानं तद्योगैरपि गम्यते।

एकं साड्ख्यं च योगं च यः पश्यति स पश्यति॥ 5/5

ज्ञानयोगी जिस परम पद को प्राप्त करते है, कर्मयोगियों द्वारा भी वही प्राप्त किया जाता है, इसलिए जो पुरुष ज्ञानयोग (साँख्य) और कर्मयोग के संपादन को एक ही देखता है, उनका फल एक ही मानता है, वही यथार्थ देखता है।

यः पश्यति स पश्यति,

चौथे श्लोक की पुष्टि बड़े सुँदर ढंग से यहाँ की गई है। ज्ञान व कर्म एक-दूसरे के पूरक के रूप में देखे जाने चाहिए, यह भगवान का मत है। दोनों का ही समापन अहंभाव के विसर्जन में होता है। अहंभाव जाते ही भोक्ताभाव समाप्त हो जाता है और इसी के साथ कर्त्ता का भाव भी तिरोहित हो जाता है। इसी के तुरंत बाद साधक को अपने भीतरी आनंद में अभिवृद्धि की अनुभूति होने लगती है और उसे इन दोनों कथनों का महत्व स्वतः ही दिखाई देने लगता है, ‘यः पश्यति स पश्यति।’ जो यह जानता है कि जो पद साँख्य योगी को प्राप्त होता है (यत्साँख्यते प्राप्यते स्थानं), कर्मयोगी भी वहाँ अपने कर्म का संपादन करते-करते यथासमय पहुँच जाते है (तद्योगैरपि गम्यते) वही वास्तव में द्रष्टा है, मनीषी है, ज्ञानी है।

कर्मयोग की महिमा भगवान द्वितीय अध्याय से ही गाते चल आ रहे हैं। वे उसे संन्यास के समकक्ष ठहराते हैं। श्रीरामकृष्ण परमहंस निष्काम कर्मयोग के संबंध में स्पष्ट कहते हैं, “ईश्वर के साथ किसी तरह से जुड़कर कर्म करते हुए जीना, यही कर्मयोग है। दो मार्ग हैं- कर्मयोग और मनोयोग। जो लोग आश्रम में हैं, उनका योग कर्म के द्वारा होता है- ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास। संन्यास लोग काम्यकर्म छोड़ दें, किंतु नित्यकर्म कामनाशून्य होकर करें। दंड धारण, भिक्षाटन, तीर्थयात्रा पूजा जप आदि कर्म बिना किसी कामना के करते हुए योग की संसिद्धि को प्राप्त हों।” बड़ा ही स्पष्ट निर्देश है एवं पूरे श्लोक की समुचित व्याख्या भी है। भगवान स्पष्ट कर रहे है कि कर्म के द्वारा ईश्वर के साथ संयोग ही कर्मयोग है। जिस कर्म में भगवान से संबंध स्थापित नहीं होता, वह मात्र कर्म है, कर्मयोग नहीं।

गृहस्थ योगी

श्यामाचरण लाहिड़ी का एक प्रसंग है। वे एक क्लर्क मात्र थे, किंतु उच्चस्तरीय सिद्धि प्राप्त योगी थे। वे प्रसिद्ध संन्यासी-सिद्ध योगी तैलंग स्वामी के पास मिलने आए, तो तैलंग स्वामी खड़े होकर उनको सम्मानास्पद स्थान देकर मिले। तैलंग स्वामी एक अवधूत थे, दिगंबर थे एवं बड़े सिद्ध स्तर के संन्यासियों में उनकी गिनती होती थी। बहुत बड़ा उनका संप्रदाय था, ढेरों शिष्य थे। शिष्यों ने यह दृश्य देखा, तो पूछ बैठे कि आप किसी धोती-कुरताधारी को क्यों खड़े होकर मिले और उन्हें आपने नमन किया, तो तैलंग स्वामी बोले, “जिस कार्य के लिए मुझे लंगोटी पहनकर वर्षों तप करना पड़ा, कठोर साधनाएँ करनी पड़ी, उसे इसने कर्मयोग करते-करते धोती-कुरता पहने ही प्राप्त कर लिया है। इसने कर्मयोग से ही उस कौशल की, सर्वोच्च पद की सिद्धि हासिल कर ली, जिसके लिए संन्यासी वर्षों तप करते रहते है। कठोर तप-तितिक्षा के मार्ग से गुजरते है।” यह उदाहरण बताता है कि साधना से सिद्धि का यह दो नामों वाला एक ही मार्ग है। कोई भी किसी भी एक का अनुसरण कर ले, तो वह परम लक्ष्य का पा लेगा। वह द्रष्टा (यः पश्यति स पश्यति) बन जाएगा।

योगीराज श्यामाचरण जी लाहिड़ी के कई प्रसंग परमपूज्य गुरुदेव की लेखनी से हिमालय के प्रसंगों में, साधना संबंधी गुह्य विवेचनाओं में एवं सुप्रसिद्ध पुस्तक ‘एक योगी की आत्मकथा’ (एन ऑटोबायोग्राफी ऑफ योगी- स्वा. योगानंद परमहंस) में पढ़ने को मिलते है। रानीखेत (उत्तराँचल) के आगे दुर्गम हिमालय के ऊपरी क्षेत्र में वे मात्र संकल्प से सूक्ष्मशरीर से पहुँच जाते थे एवं ढेरों व्यक्तियों को उनने योग के मार्ग पर प्रशस्त किया था। उनने कर्म को कौशलपूर्वक संपन्न कर अपने अंदर वह शक्ति जाग्रत् कर ली, जो किसी को सब कुछ छोड़कर मिलती है। परमपूज्य गुरुदेव लिखते है कि मनः स्थिति योगी की होनी चाहिए, बहिरंग कैसा भी हो, अंतरंग परिष्कृत होना चाहिए।

नाग महाशय

श्री रामकृष्ण परमहंस के दो शिष्य थे, एक नाग महाशय (डॉ. दुर्गाचरण नाग) जो गृहस्थ थे एवं दूसरे स्वामी विवेकानंद जो संन्यासी थे। नाग महाशय गृहस्थ में भी संन्यासी का जीवन जीते थे। स्वयं स्वामी विवेकानंद जो कि माता के दबावों-परिजनों के आग्रहों के बाद भी जन्म से ही संन्यासी रहे, संन्यास की स्थिति में ही एक आदर्श जीवन जीकर, संक्षिप्त-सा जीवन जीकर गए, अंत तक नाग महाशय को सबसे बड़ा संन्यासी-योगी मानते रहे। वे कहते थे कि नाग महाशय डॉक्टर भी है, इलाज भी करते है, गृहस्थ भी है, पर उससे भी ऊपर सबसे बड़े योगी है। उनकी जो उपलब्धियाँ है, वे बिरले संन्यासी ही प्राप्त कर पाते है, ऐसा उनका मत था। इससे स्पष्ट होता है कि लक्ष्य प्राप्ति में कोई संदेह नहीं होना चाहिए। कर्म कैसे किए जाएँ बस यही समझ लेना जरूरी है। कैसे उनमें ‘परफेक्शन’ लाया जाए यही मर्म समझ में आ जाए तो सिद्धि सुनिश्चित है।

हम स्वयं कई स्थानों पर आज के इस कलियुग में देखते है कि लोगों में गौरिक वस्त्रधारी संन्यासीजनों के प्रति बड़ा ‘क्रेज’ है। इस हद तक पागलपन है कि वे कर्म को गौण समझकर वेश को ही सब कुछ मान उनके जीवन को न देखकर उनसे सिद्धि की आकाँक्षा रखने लगते है। कुछ प्राप्ति के प्रलोभन में ‘स्वामी जी’ के स्पर्श की वस्तु, उनके पाँव की धोवन, उनके हाथ से स्पर्श किया कोई भी पदार्थ स्वीकारने में झिझकने नहीं। स्वयं कुछ कर्म या पुरुषार्थ करना नहीं चाहते। वे किसी चमत्कार की अपेक्षा रखते है। ‘जो स्वयं बहुत निर्बल हो, औरों को वह क्या देगा’ की काव्यपंक्ति के अनुसार वक्तृता की कला में माहिर मात्र संन्यासी वेशधारी व्यक्ति जो निज के जीवन की दुर्बलताओं को नहीं मिटा पाया, औरों को क्या कुछ दे सकेगा, यह सोचना चाहिए। कर्मयोग को तुलाधार वैश्य की तरह, रैक्व की तरह, सदन कसाई की तरह हम ऐसा प्रखर बनाएँ, भगवद् भक्ति इतनी प्रगाढ़ स्तर की बना ले तो स्वतः हम साँख्य-संन्यास से प्राप्त होने वाली सिद्धियाँ पा सकते है।

क्या हो हमारा आदर्श

परमपूज्य गुरुदेव ने जीवनभर एक संन्यासी की मनःस्थिति में रहकर प्रचंड पुरुषार्थ किया, एक सद्गृहस्थ का जीवन जिया व औरों के लिए एक मार्गदर्शक जीवन जीकर वे पथ प्रशस्त कर गए। वे कहते थे कि वास्तव में यदि हम युग साधना करते है, तो जो कर्म हम करते है- उनमें पूरी ईमानदारी बरतें। कर्मयोग का आदर्श किसी भी सार्वजनिक-राष्ट्रोत्थान को समर्पित संस्था का क्या होना चाहिए? इस पर पूज्यवर कहते थे, हमारा आदर्श लोकमान्य तिलक होना चाहिए, शहीद भगत सिंह, राम प्रसाद बिस्मिल, चंद्रशेखर आजाद, सुभाष चंद्र बोस होना चाहिए। जो इस तरह युगधर्म का पालन करता है, तो वह व्यापारी हो अथवा अधिकारी पूरी तरह साँख्या में प्रतिष्ठित हो अपने लक्ष्य की सिद्धि तक पहुँच जाता है। स्वार्थ और अहं को त्यागकर अपना सर्वस्व राष्ट्र व समाज के लिए निछावर करने वाला व्यक्ति महामानव पद पाता है। जो युग की चुनौती को स्वीकार करे और अपने-पराये का मान रखकर कर्म करे, तो वह आत्मिक प्रगति स्वयं करता चला जाता है।

परमपूज्य गुरुदेव कहते थे कि जो यह देखता है कि कौन मेरा है, कौन पराया तो वह राग-द्वेष से ग्रसित हो जाता है। राग आया, मोह आया तो फिर परिग्रह आ जाता है, फिर कर्म दूषित होने लगते है। जिन्हें सब अपने दिखाई देते है, वे अपनी, अपने रिश्तेदारों की मोह वाली जिंदगी नहीं जीते। परमार्थपरायण जीवन जीते है, लोकहितार्थाय अपना समग्र पुरुषार्थ करते है। आत्मकल्याण व लोककल्याण का जिसमें सच्चा समन्वय है, वह कर्मयोग का मार्ग ही है, जिसकी विशद् चर्चा भगवान पाँचवे के बाद अब छठे श्लोक में करने जा रहे है।

सर्त्यासस्तु महाबाहो दुःखमाप्तुमयोगतः। योगयुक्तो मुनिर्ब्रह्म नचिरेणाधिगच्छति॥

हे अर्जुन, कर्मों के संपादन के बिना कर्मों का त्याग (संन्यास) संभव नहीं है, अर्थात् मन, इंद्रिय और शरीर द्वारा होने वाले संपूर्ण कर्मों में कर्त्तापन का त्याग प्राप्त होना कठिन है। योग के आचरण से शुद्ध हुआ भगवत्स्वरूप को मनन करते रहने वाला कर्मयोगी परब्रह्म परमात्मा को शीघ्र ही प्राप्त हो जाता है।

पहले कर्मयोग का अनुष्ठान करें

कर्मयोग एवं साँख्ययोग अविभाज्य है, एक-दूसरे के पूरक है, तब भी योगेश्वर बार-बार एक ही बाम कह रहे है- विशुद्ध रूप से यज्ञीय भाव से नियत कर्मों का संपादन करो। सीधे साँख्य मार्ग पर जाने की तुलना में यह मार्ग श्रेयस्कर है एवं श्रीकृष्ण द्वारा अनुमोदित है। इस श्लोक में वे कहते है कि पहले कर्मों का संपादन करो, आसक्ति छोड़कर करो, तब तुम्हारे अंदर वह शुचिता जन्म लेगी, जिससे तुम ध्यानयोगी बन सको, ताकि परमात्मा की प्राप्ति का लाभ प्राप्त कर सको, इसीलिए वे कहते हैं कि निष्काम कर्म के अनुष्ठान के बिना संन्यास दुःख प्राप्ति का मार्ग बनकर रह जाता है (संन्यासस्तु दुःखमाप्तुम् अयोगनः)। जो दुःख दे, कष्ट दे, प्रचंड द्वंद्वों-झंझावातों में उलझा दे, वह मार्ग अपनाया ही क्यों जाए। आगे वे कहते है, योगयुक्त - निष्काम कर्मयोगी मुनिजन (ज्ञानी-साँख्ययोगी-मौन संन्यासी-मनन करने वाले ध्यानयोगी) ‘न चिरेण’ अर्थात् शीघ्र ही ‘ब्रह्म अधिगच्छति’ अर्थात् ब्रह्मपद को प्राप्त करते है।

प्रस्तुत श्लोक बड़ी मार्मिक व्याख्या करता है आज के हर जिज्ञासु के लिए, अध्यात्मपथ के पथिक के लिए। जो भोक्ताभाव के त्याग का अभ्यास न कर पाए। उसके लिए तो कर्त्ताभाव का त्याग अत्यधिक कठिन है, इसलिए निष्काम कर्मयोगी बन भीतर की वासनाओं का क्षय करते हुए विवेक-बुद्धि को सतत परिष्कृत कर जीना चाहिए। जब तक आँतरिक गड़बड़ी ठीक नहीं होगी, बाहर का संन्यास किस काम का? आँतरिक गड़बड़ी ठीक करने के लिए यथाशक्ति कर्मयोग का संपादन, लक्ष्य के प्रति समर्पण, साँस्कृतिक उत्थान के लिए निज का नियोजन होना चाहिए। यही सच्चा योगानुशासन है एवं योगयुक्त एक संगठित व्यक्तित्व बनाने की कार्यशाला है। ऐसा करते-करते साधक ध्यान मार्ग में प्रवेश करने का अधिकार पा लेता है एवं अनंत ब्रह्म से साक्षात्कार का पूर्ण आनंदमय अनुभव प्राप्त करता है।

यह संन्यास किस काम का

भगवान स्पष्ट कहते है कि कर्मयोग का दीर्घकाल तक अभ्यास किए बिना (अयोगतः) व्यक्ति के लिए संन्यास दुःख देने वाला ही सिद्ध होगा। लक्ष्य के प्रति समर्पित भाव से जीना, यज्ञीय भाव से कर्म करते रहना हर मनुष्य के लिए बताया गया भगवान का एक अनुशासन है। एक नरपशु तो संकीर्ण स्वार्थपरता का, वासना पूर्ति का जीवन जीता है, किंतु पूर्णतः विकसित मानव, ध्यानयोग में अधिष्ठित कर्मयोगी अपने दिव्य स्वरूप को पहचान कर दिव्य कर्मों में ही लीन हो जीवन जीता है। इस तरह योग की महिमा सर्वोपरि है, फिर संन्यास की बात आती है। यह सरल व श्रेयस्कर मार्ग है। योग के बिना संन्यास की कल्पना भी कैसे की जाए? कर्मयोग इस प्रकार पहले, फिर संन्यास की बात। परमपूज्य गुरुदेव यही कहा करते थे कि यदि छप्पन लाख बाबाजी लोगों ने कर्मयोग अपना लिया होता, तो विगत पचास वर्षों में देश कहाँ का कहाँ पहुँच गया होता। सभी ऐसे होते है यह बात नहीं, पर अधिकाँश ऐसे है जो मजबूरी में, आवश्यकतावश, किसी लालच के कारण, बिना किसी उद्देश्य या लक्ष्य के इस वेश को धारण कर उसे बदनाम करने पर तुले है, जबकि यह स्थान समाज का शीर्ष-सर्वोपरि कहा जाता रहा है एवं देश ही नहीं, विश्व के मार्गदर्शक संत इस परंपरा से निकलते रहे है, चाहे हम उन्हें संत ज्ञानेश्वर के रूप में जाने, एकनाथ या निवृत्तिनाथ के रूप में अथवा समर्थ गुरु रामदास, महर्षि दयानंद एवं स्वामी विवेकानंद के रूप में।

हमें एक संन्यासी महाराजश्री के आश्रम में एक उपाधि-पुरस्कार हेतु आमंत्रित किया गया। वहाँ पर उनके जन्मदिवस व भंडारे के उपलक्ष्य में आयोजित अवसर पर ढेर सारे बाबाजी पहुँच गए। सभी गाँजा पीकर, सुलफे की चिलम चढ़ाकर नारे लगा रहे थे कि उन्हें और पैसे दिए जाएँ। महाराज जी ने प्रत्येक को एक सौ रुपये देने का क्रम बनाया था, पर तथाकथित संन्यासी वेशधारी बाबाजी लोगों की नारेबाजी चालू थीं कि हमें 51 रुपये चाहिए। वे किसी तरह उनके बीच से निकलकर आए, तो बोले, मैं महाभूतों की पंचायत में से किसी तरह निकलकर आया हूँ, क्योंकि मुझे तो इन्हीं के बीच रहना है, वैराग्य धर्म का पालन करना है। इन्हें साथ लेकर चलना ही होगा। हमने कहा कि जो अकर्मण्य है, नशा करते है एवं नारेबाजी करते है, उन्हें साथ लेकर चलने से क्या लाभ? ये तो भिक्षुक मात्र हैं। हमारे गुरुदेव ने तो हमें सद्गृहस्थों की फौज के बीच बिठा दिया है, जो पूर्णतः कर्मयोगी हैं। आपको नहीं लगता कि आपको क्राँति करनी चाहिए। इनमें मुक्ति पानी चाहिए, इस संन्यास धर्म का उद्धार करना चाहिए। स्वामी जी का कहना था कि यह तो शिवजी की बारात है। हमें इनको साथ लेकर चलना ही होगा। इनसे कोई परिवर्तन की अपेक्षा तो हम नहीं रखते।

जब हमारी गाड़ी स्वामी जी के आश्रम से निकल रही थी, तो वे विशुद्ध रूप से वे गालियाँ दे रहे थे, जो सभ्य समाज में सुनना भी पाप है। कह रहे थे अपने मेजबान से कि सब इन्हीं को दे दो, इन्हीं पर लुटा दो, हमें मत दो, हम देख लेंगे तुम्हें। हमें यह दृश्य देखकर स्वामी जी की दयनीय स्थिति अनुभव कर बड़ा दुःख हुआ एवं मन में विचार भी आया कि यह किन विडंबनाओं में उलझ गए आज के तथाकथित बैरागी-संन्यासी। परमपूज्य गुरुदेव की बात याद आई कि इस युग का नवसंन्यास परिव्राजक धर्म है। गृहस्थ धर्म का पालन करते हुए देव परिवार का निर्माण करो, अपने वासनाओं को क्षय करते हुए समाज की सेवा करो, यही आज का युगधर्म है। सारा गायत्री परिवार इसी कार्य में लगा है एवं सच्चे कर्मयोगी की तरह कार्य कर आँतरिक सुख की अनुभूति करता है। आज के संन्यास की यह दुर्गति योगेश्वर श्रीकृष्ण के छठे श्लोक में बताई गई बात के अनुपालन न करने से हुई है, वह है पहले कर्मयोग, फिर संन्यास। (क्रमशः)।


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