बुँदेलखंड के एक साधारण जैन परिवार में जन्मे गणेश प्रसाद वर्णी शिक्षा प्राप्त करने के उपराँत परिव्राजक जीवन व्यतीत करने लगे। यों उनका समुदाय पूजा-पाठ को ही सब कुछ मानता था, पर वर्णी जी ने देश की स्थिति का सूक्ष्म अन्वेषण करते हुए यह निष्कर्ष निकाला कि इन दिनों शिक्षा प्रचार ही सबसे बड़ा धर्म-कर्म है।
उन्होंने सागर में दिगंबर जैन विद्यालय की स्थापना की, पर पीछे वे अपना यति स्वरूप यथावत बनाए रहते हुए भी जनसाधारण में शिक्षा प्रचार करने लगे। उनके प्रयत्न से कितने ही यति परिव्राजकों ने अध्यापन कार्य सँभाला और गाँव-गाँव विद्यालयों की स्थापना करने में जुट गए।
अंधविश्वासी व्यक्ति यति को मोक्ष प्रयासों से कुछ हटकर काम करते देखकर नास्तिक तक कह बैठते थे, पर उनके विवेक ने जो उचित समझा, उसी पर जीवनभर डटे रहे। वे कभी भी तथाकथित धर्माचार्यों के आक्षेपों, उपालंभों से विचलित नहीं हुए। अंततः उनके प्रयासों को जन प्रशस्ति मिली। लोगों ने धर्म का सही अर्थ समझा।