विधि का विधान

October 2001

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पुनर्जन्म भारतीय संस्कृति का मुख्य आधार है। भारतीय दर्शन शरीर को नश्वर एवं आत्मा को अमर मानता है। साँख्य के प्रथम सूत्र के अनुसार पुनर्जन्म के कारण ही आत्मा शरीर, इन्द्रियों तथा विषयों से संबन्ध जुड़ते रहते हैं। न्याय दर्शन के अनुसार जीव को सुख-दुःख के भोगों के लिये बार-बार एक शरीर से दूसरे शरीर में भटकना पड़ता है। इसलिये आद्य शंकराचार्य ने कहा है- पुनरपि जननं पुनरपि मरणं पुनरपि जननी जठरे शयनम्। आत्मा अपने पूर्व जन्म के प्रबल संस्कारों को लेकर पुनः शरीर धारण कर लेती है। इसी को पुनर्जन्म कहते हैं। मुक्तात्मा के अलावा शेष समस्त जीवों के लिये यह नियम लागू होता है। विगत संस्कार की प्रबलता ही अगले जन्म में प्रतिशोध, हिंसा अथवा सहयोग या प्रेम में परिलक्षित होती है।

तीव्र प्रतिशोध की दहकती ज्वाला जन्म-जन्मान्तरों तक सुलगती रहती है और इसका पीछा करती है। सन् 1950 की बात है। वाराणसी के शिवालाघाट मुहल्ले में भुवन मोहन गाँगुली रहते थे। गाँगुली महाशय उच्च कोटि के तंत्र साधक थे। उनके एक मित्र थे राखाल बाबू जो विधुर थे। उनकी इकलौती संतान था शशाँक। वह आसाम के चाय बागान में नौकरी करता था। शशाँक का विवाह एक सुन्दर सुशिक्षित कन्या नमिता से हुआ। शशाँक अपनी नौकरी में व्यस्तता के कारण केवल तीन बार ही वाराणसी आया था। नमिता स्वभाव से शाँत, सौम्य, सरल तथा धर्मपरायण थी। उसके इस गुण के कारण राखाल बाबू नमिता को अपनी बेटी के समान चाहते थे। पहले वे एक किराये के मकान पर रहते थे परन्तु नमिता के आग्रह पर उन्होंने उसी किराये के मकान को खरीद लिया। मकान इकतल्ला था उसमें कुल चार ही कमरे थे। दो सामने दो पीछे व बीच में बड़ा सा आँगन।

मकान पहले किसी मुसलमान सज्जन का था, परन्तु राखाल बाबू की इस मकान को खरीदने के पीछे एक और मंशा थी। उन्होंने कहीं से सुन रखा था कि मकान में अपार संपत्ति गड़ी हुई है। इस बात की पुष्टि गाँगुली महाशय ने भी कर दी थी। फिर क्या था योजनाबद्ध तरीके से अमावस्या की रात्रि को समस्त ताँत्रिक क्रियाओं को संपन्न करने के पश्चात् खुदाई शुरू की गई। लगभग दस-बारह फुट गहराई तक खोदे जाने के बाद पुरानी ईंटों की बनी सीढ़ियाँ दिखाई पड़ीं। वह सीढ़ी जहाँ खत्म होती थी वहाँ पत्थर के चौकोर चबूतरे पर कब्र बनी थी। इसके पास ही एक गुप्त दरवाजा दिखाई दिया जो कीलों और पेंचों से कसकर बंद कर दिया गया था। दरवाजा को तोड़ने पर पाँच फुट लंबा एवं चौड़ा एक कमरा मिला जो नमिता के कमरे के ठीक नीचे बना था। उस कमरे में लोहे का भारी संदूक रखा हुआ मिला। उसमें संपत्ति के नाम पर जादुई वस्तुएँ, बंदर का पंजा, खोपड़ी, काठ के भयंकर पुतले, ताँबे-पीतल की कुछ ताबीज आदि।

उसमें सुनहरे फ्रेम में जड़ी एक छोटी सी तस्वीर भी मिली। यह तस्वीर किसी तीस-पैंतीस वर्ष के नवयुवक की रही होगी। उस रहस्यमय संदूक के दूसरे दराज में चौड़ी सी एक डिबिया भी पायी गयी। उसके भीतर एक भोज पत्र में उर्दू में कुछ अंकित था। उसका भावार्थ था-जब तक कब्र में मेरी लाश की आखिरी कतरा तक सड़ गल कर मिट्टी में नहीं मिल जाएगी तब तक मेरी प्रबल इच्छा शक्ति का प्रभाव इस मकान में बना रहेगा। मुझे पूरा विश्वास है कि मेरी इसी प्रबल इच्छा शक्ति के प्रभाव से आकर्षित होकर शकीला इस मकान में किसी न किसी रूप में अवश्य आएगी। खुदाई के समय उस कमरे में मनोहारी सुगन्ध फैल गई थी। परन्तु इन समस्त रहस्यों का कोई समाधान नहीं मिल पाया और यह बातें रहस्यमय ही रही। कब्र पर मिट्टी डालकर सारे रहस्य को दुबारा दफना दिया गया।

इस घटना के तीन महीने बाद ही भयंकर वज्रपात हुआ। शान्त, सुशील स्वभाव वाली नमिता आत्महत्या कर बैठी और दफनाये सारे रहस्यों को अपने लिखे एक पत्र में छोड़ गई। नमिता के पत्र में उस घटना को कुछ इस तरह से व्यक्त किया गया था-सन् 1950 के मार्च माह में मकान खुदाई के समय मेरे कमरे में गुलाब जैसी सुगन्ध फैली और मैं मदहोश हो गई। अचानक रात्रि के समय मेरे पति शशाँक के आने से मेरा उत्साह द्विगुणित हो गया। वे अपने साथ एक लिफाफा तथा फल एवं मिठाइयाँ भी लाए थे, परन्तु वे दिन को कहीं अचानक गायब हो जाते थे एवं रात्रि को आते। यह क्रम चलता रहा। कुछ समय के पश्चात् मुझे मालूम हुआ कि ये मेरे पति नहीं हो सकते, परन्तु मैं अवश थी। एक रात एक डिब्बे में बेहद कीमती मोतियों का सुन्दर सा हार लेकर आये। मैं उस रात सजग हो उन्हें पूछ बैठी तो वह बताने लगा-मैं ही तुम्हारा पति हूँ। इसके पिछले जन्म में मैं ईरान का शाहनवाज था और तुम मेरी पत्नी थी। मैं तुम्हें याने शकीला को बहुत प्यार करता था। शकीला के कहने पर ही मैं उसे साथ लेकर हिन्दुस्तान घूमने आया। ठीक उसी दौरान मेरे एक मित्र अब्दुल कादिर से मेरी बीबी शकीला को प्यार हो गया। मैं इससे तंग आकर वाराणसी के इसी मकान को खरीद कर रहने लगा। कादिर भी शकीला के साथ वाराणसी आ गया। उन दोनों ने मेरी एक षड्यंत्र के तहत हत्या कर दी। मरते समय मैंने दृढ़ प्रतिज्ञा कर ली थी कि इस हत्या का बदला मैं शकीला से अवश्य लूँगा। इधर अब्दुल कादिर भी शकीला को छोड़कर चला गया। अन्त में वह वहाँ मर गई। शकीला को दफना दिया गया। उसकी कब्र वाराणसी के कब्रिस्तान में आज भी विद्यमान है।

नमिता आगे लिखती है-अपनी कथा सुनाने के बाद उस आत्मा ने मुझे हीरे-मोती और नीलम का बहुमूल्य हार उपहार स्वरूप देने के पश्चात् कहा कि-मेरा बदला पूरा हुआ। यह मेरी अंतिम भेंट है। इसके बाद परिस्थितियाँ अप्रत्याशित ढंग से परिवर्तित हुई। मानसिक प्रताड़ना का कुछ ऐसा सघन दौर आया कि मुझे यह आत्मघाती कदम उठाना पड़ा। मृत्यु के बाद नमिता के पास सचमुच ही वह कीमती हार बरामद हुआ। और यह बात भी प्रमाणित हुई कि यह नमिता ही पूर्व जन्म में शकीला थी। जिससे उस आत्मा ने अपना बदला चुकाया।

पुनर्जन्म और प्रतिशोध की एक और घटना वाराणसी में घटी। अवधबिहारी शर्मा की एक लड़की थी उषा। उषा इकलौती लड़की थी। वह सुँदर, आकर्षक एवं मृदुभाषिणी थी। ऊषा एम.ए. प्रथम श्रेणी में पास की थी। 22 साल की उम्र में उनका विवाह सुरेन्द्र कुमार पाण्डेय से हो गया। सुरेन्द्र मुम्बई विश्वविद्यालय में प्राध्यापक था। शादी के तीसरे दिन वह मुम्बई वापस चला गया था। आवास के अभाव में अन्य आवश्यक कारणों से वह एक साल तक वाराणसी न आ सका। एक दिन अचानक ऊषा को तेज बुखार हो गया। इस घटना के बाद ऊषा को उसके कमरे में किसी से जोर-जोर से बातें करने की आवाजें आती थीं। ऊषा की माँ लीलावती देवी इस परिवर्तन से परेशान हो उठीं। ऊषा का शरीर भी पत्तों सरीखा पीला पड़ने लगा और वह हमेशा मुरझायी एवं उदासी सी रहने लगी।

ऊषा को वाराणसी के प्रसिद्ध तंत्र साधक भवानी शंकर भादुड़ी को दिखाया गया। भवानीशंकर ने ऊषा की इस विचित्र घटना को पुनर्जन्म से संबंधित बताया। एक जिन्नात किसी खास कारण से ही ऊषा के पास आता है। प्रेत को उर्दू में जिन्न कहते हैं। संभवतः यह जिन्नात ऊषा को परेशान करता है। एक रात ऊषा एक खण्डहर में चली गई तथा एक कब्र में लिपटकर रोने लगी।

उस समय कब्रिस्तान का एक बूढ़ा चौकीदार अब्दुल मजीद वहाँ मौजूद था। उसने ऊषा के घरवालों को जो बातें बतायीं वह चौंकाने वाली थी। करीब सौ साल पूर्व अपने जमाने के बड़े विलासी प्रकृति के कमाल साहब रहते थे। उनके पिता के पास बेशुमार दौलत थीं तथा इसके वे इकलौते वारिस थे। अपनी विलासी प्रवृत्ति के कारण कमाल साहब ने दालमण्डी की एक नर्तकी चमेली बाई पर अपनी सारी दौलत लुटा दी। परन्तु सब लूट लेने के बाद चमेली बाई ने भी कमाल साहब को छोड़ दिया। इसी मानसिक तनाव व दुरावस्था के बीच उनकी दर्दनाक मौत हो गई। इस घटना का जिक्र करते समय मजीद का ध्यान अपने कमरे में टँगे चमेलीबाई की फोटो की ओर गया जो ऊषा की चेहरे से एकदम मिलती थी। लगता था यह ऊषा की ही फोटो हो। भवानीशंकर ने तथ्य को स्पष्ट करते हुए कहा-कमाल साहब की प्रेतात्मा ही ऊषा से अपना प्रतिशोध ले रही है। उन्होंने बताया कि कर्मफल का अटल विधान ही पुनर्जन्म की प्रक्रिया को संचालित करता है। जीव अपने कर्मों के भुगतान के लिए बार-बार जन्म-मृत्यु के चक्र से गुजरता है। इससे छुटकारा तो तभी संभव है, जब वह सभी राग-द्वेष से ऊपर उठकर ईश्वर परायण जीवनयापन करें। आध्यात्मिक साधना ही जन्म एवं जीवन का एकमात्र समाधान है।


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