आत्म−उपदेश
परिवर्तन संसार की जान है। जिसको मौत समझते हो वही जीवन है। मिनट में तुम करोड़ों के वारिस और क्षणभर में लावारिस बन जाते हो। मेरा−तेरा, छोटा−बड़ा, अपना−बेगाना दिल से मिटा दो। ख्याल से हटा दो। फिर सब तुम्हारा है और तुम सबके हो। न यह जिस्म तुम्हारा है, न तुम इस जिस्म के हो। यह आग से बनता है और यह आग में मिल−जुल जाता है। मिट्टी से बनती है और मिट्टी में मिल जाता है। यह पानी से पैदा होता है और पानी में समा जाता है। यह हवा से भरा हुआ है और हवा में भर जाता है। न हड्डी रहती है, न जबान, कान, आँख का निशान बाकी रहता है, मगर फिर भी तुम्हारा वैभव वैसे−का−वैसा ही रहता है। फिर तुम सोचो कि तुम क्या हो?
—अखण्ड ज्योति, पृष्ठ 8, अप्रैल 1960