संगठन की धुरी अपनत्व भरी पाती

October 2001

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अधिक मास बीत चला। नवरात्रि की बेला है। इसी संधिवेला में प्रायः आरोग्य विशेषज्ञ जीवन−शैली बदल लेने की सलाह देते हैं। आहार−विहार, खान−पान, अपने आस−पास के परिसर की सफाई से लेकर सभी पक्षों पर ध्यान देने को कहा जाता है। ज्यों ही नवदुर्गा समीप आती हैं, चारों ओर सात्विक हो जाता है। अंतरंग का परिशोधन प्रकृति स्वयं कराने लगती है। जैसे ही नवरात्रि बीतती हैं, दशहरा व फिर दीपावली सारे घर के कूड़े−कबाड़े की सफाई की बारी लेकर आती है। कोई घर में सफेदी कराता है, तो कोई वर्ष भर की गंदगी को बुहार कर लक्ष्मी को घर में आमंत्रित करने की क्रिया करता दिखाई पड़ता है। यह सारी प्रकृति की दिनचर्या ठंडक आने तक चलती है एवं फिर स्वास्थ−संवर्द्धन के लिए सही अवधि भी आ जाती है।

पाठकगण जब ये पंक्तियाँ पढ़ रहे हैं, वे समझ रहे होंगे कि नवरात्रि से लेकर शरद एवं शिशिर तक के मौसम का वर्णन किया जा रहा है। नहीं, इतना मात्र नहीं है। यहाँ हम गुरुसत्ता द्वारा लिखा एक पत्र, जो 28 अक्टूबर, 1943 को उनके द्वारा श्री धर्मपाल सिंह (अलीगढ़) को प्रेषित किया गया, उद्धृत कर रहे हैं। कैसे उपर्युक्त अनुशासन की अवज्ञा किसी को भी व्याधिग्रस्त बना सकती है, बनती रहती है व इस समय विशेष का कितना महत्त्व है, यह इसे पढ़कर समझा जा सकता है। पत्र है—

“हमारे आत्मस्वरूप,

टिकटों सहित आपका पत्र मिला। वृत्त जाना। बीमारी का इन दिनों देशव्यापी प्रकोप है। गैस और बारूदों ने जो वायुमंडल दूषित कर दिया है, उसकी पीढ़ी मनुष्यजाति को सहन करनी पड़ रही है। इधर भी बुखार बड़े जोरों से है। ऐसा मालूम पड़ता है कि बाणासुर ने शंकर के गण ज्वरों को पूर्वकाल में जिस उग्र रूप में फैलाकर सृष्टि का संहार किया था, उसकी पुनरावृत्ति हो रही हो। हम लोग बहुत ही संयम और सादगी से जीवन बिताने वाले हैं, पर पंद्रह दिन से सारा परिवार चारपाइयाँ तोड़ रहा है, हम स्वयं भी नहीं बच सके। बुखार तो चला गया, पर कमजोरी बेहद है। आप लोगों को बीमारी ने बहुत कष्ट दिया। अब ईश्वर की कृपा से आप लोग स्वस्थ रहते हैं, यह संतोश की बात है।”

पत्र की भाषा कितनी सरल है। बीमार धर्मपाल जी भी थे। तो उन्हें दिलासा दी कि तुम्हारा क्या हमारा भी इन दिनों यही हाल है। अपनी बीमारी की स्वीकारोक्ति एवं बड़ा प्यारा वर्णन किस तरह वायरल बुखार या मलेरिया फैलाता है, इसमें आया है। द्वितीय विश्वयुद्ध की वेला थी, तो वायुमंडल दूषण का भी जिक्र है। नवरात्रि की पूर्व बेला की कहीं चर्चा नहीं है, पर वर्णन उन्हीं दिनों (अठारह अक्टूबर से पूर्व का) का है। यह पत्रलेखन एक दिलासा देता है कि बीमारी किसी को भी जकड़ सकती है एवं दुर्बल बना सकती है। जरूरी है, तो उसके प्रति निज का दृष्टिकोण। एक आध्यात्मिक पुरुष के नाते गुरुवत् पूछी गई राय का उत्तर मित्रवत् दिया गया है। यही सबसे बड़ी विशेषता है परमपूज्य गुरुदेव की लेखनी की कि एक साधारण−सा पत्र उनके व्यक्तित्व के कई बहुआयामी पक्षों को खोल देता है। इसी पत्र में आगे वे एक मार्के की बात कहते हैं।

“आप उलझन और कठिनाइयों में भी धैर्य को पकड़े रहें। दिन नहीं रहा तो रात भी न रहेगी। ईश्वर सब मंगल करते हैं। अमंगल में भी मंगल की भावना करने से मन को एक अद्भुत शक्ति प्राप्त होती है।”

इन पंक्तियों को पढ़ें जीवन जीने की कला का शिक्षण लें। हम सब इन्हीं दैनंदिन जीवन की उलझनों में उलझकर ही तो अपने जीवन को अस्त−व्यस्त कर लेते हैं। हमारी गुरुसत्ता अपने सार्वजनिक आध्यात्मिक जीवन की बहुत ही पूर्व की आज से भी प्रायः साठ वर्ष पूर्व की अवधि में जो बहुमूल्य परामर्श देती है, वह आपके लिए, हमारे लिए, सबके लिए है, सर्वकालीन है।

परिजन इन पत्रों के माध्यम से पूज्यवर के साथ इतना घुल−मिल जाते थे कि मन की सभी बातें खोलकर रख दिया करते थे। विशेष रूप से साधना क्षेत्र में मार्गदर्शन लेने के लिए वे निरंतर पत्र डालते एवं आश्चर्यजनक ढंग से उन्हें हर पत्र का जवाब भी मिलता। ऐसा ही पत्र एक अनाम साधक को 11/8/1850 का लिखा यहाँ हम दे रहे हैं।

आपका पत्र मिला। साधना क्षेत्र में हमारे सहचर होने के कारण आप अब इतने घनिष्ठ आत्मीय हो गए हैं कि जब आपका पत्र आता है, तो मिलने के समान प्रसन्नता होती है। आप तपस्या की पूँजी एकत्रित करने में उतनी ही तत्परता एवं उत्साहशीलता रखें जितनी कि लोभी लोग धन जोड़ने में रखते हैं। समय ही बतायेगा कि करोड़पति बनने का स्वप्न देखने वाले सही रहा पर हैं या आप। पिछले जन्मों के शुभ संस्कारों का भंडार आपके पास इतना अधिक एकत्रित है कि आप अपना उत्साह और प्रयत्न इसी प्रकार जारी रखें, तो विश्वासपूर्वक यह कहा जा सकता है कि आप इसी जन्म में जीवन−लक्ष्य तक पहुँच जाएँगे। आवश्यकता केवल दृढ़ता की है। आपको हमारी सेवा−सहायता सदा उसी प्रकार प्राप्त होती रहेगी जैसी कि छोटे भाई को बड़े भाई की या पुत्र को पिता की प्राप्त होती है।”

पत्र की भाषा पर थोड़ा गहराई से ध्यान दें वह इन शब्दों पर चिंतन करें। आज हम ‘कौन बनेगा करोड़पति’ की रेलम−पेल में जी रहे हैं। हर किसी के मन में आज के उस उपभोक्तावादी जीवन में अधिक और अधिक पाने की कामना है। सारी अंधी नकल पश्चिम की हो रही है एवं हमारे घर में बैठा एक ‘बुद्धबाक्स’ हमें ललचाता रहता है। यहाँ पूज्यवर अपने अभिन्न मित्र, शिष्य, प्रिय सखा को बता रहे हैं कि तपस्या हेतु, योग−साधना हेतु किया जा रहा पुरुषार्थ उसी लगन से भरा होना चाहिए, जैसा कि मनुष्य धन जोड़ने या करोड़पति बनने के लिए करता है। पैसा कमाकर करोड़पति बनने वाले तो दिवास्वप्न ही देखते हैं, पर सही राह पर वही चल रहा है, जो अंतर्जगत् का पुरुषार्थ कर रहा है। ज्ञान की निधि हमारे चिरसंचित

संस्कारों का फल हमें देती है। उसकी जानकारी गुरु को होती है कि वह किसके पास कितना है। यहाँ पूज्यवर अपने साधक−शिष्य को बोध करा रहे हैं कि यदि वे लगनपूर्वक लगे रहें, उसी तीव्रता व ललक के साथ, जो कोई क्या, हर कोई अमीर बनने के लिए करता है, तो वे जीवनलक्ष्य, बंधनमुक्ति, मोक्ष इसी जीवन में प्राप्त कर लेंगे। मित्रो, पाठको! आप−हम भी इसी निधि को लेकर जन्में हैं। उस अंतर्विभूति को पहचानना एवं उसे निरंतर बढ़ाते रहने का प्रयास करना हम सभी का परम ध्येय होना चाहिए। यदि इस पत्र की इस भाषा को हम अपने पर लागू करें, तो क्या कुछ प्रेरणा हमें नहीं मिल सकती?

कभी−कभी गुरुसत्ता के पास ऐसे पत्र भी आते थे, जिसमें पत्र न मिलने के उलाहने होते थे। कई−कई लोग तो टी.डी. एस. (चिकित्सा की भाषा में एक शब्द−दिन में तीन बार) पत्र डाल देते थे व अपेक्षा रखते थे कि उन सबका जवाब मिले। जवाब आता, पर चार−पाँच का एक साथ। नौ जुलाई 1951 को श्रीमोहनराज भंडारी के पत्र को इसी परिप्रेक्ष्य में पढ़ें।

“चि. मोहनदास स्नेह

तुम्हारा पत्र मिला। संभवतः अब आयु की दृष्टि से तुम बड़े हो गए होगे, पर जब मथुरा आए थे। तब छोटे थे। हमारे मस्तिष्क में तुम्हारा वही चित्र सदा रहता है। नंद के लिए कृष्ण सदा बालक ही थे। हमें अपने घर के बालकों की ही तरह सदा लगते रहते हो। चिट्ठी−पत्री आने−जाने में कभी देर−सबेर हो जाए, तो ऐसा नहीं समझना चाहिए कि पं. जी का स्नेह या स्मरण कुछ कम हो गया है। काम का झंझट बहुत रहता है, इसलिए प्रायः आगत पत्रों का उत्तर ही जा पाता है। अपनी ओर से पत्र तो कभी ही शायद किसी को लिख पाते हैं। तुम अपनी ओर से पहल करके पत्र व्यवहार का क्रम चला दिया करो।”

जिन्हें जानना हो कि मिशन कैसे बीज से वट वृक्ष बना, उन्हें पत्र पढ़ना चाहिए। जिन्हें यह पता लगाने की इच्छा हो कि गायत्री परिवार इतना विशाल कैसे बना तो उन्हें इस पत्र में छिपे मर्म को जानना चाहिए। यही वह आत्मीयता थी, स्नेह की निधि थी, अपनत्व था जिसने यह संगठन खड़ा किया।

यही नहीं संगठन के लिए कभी मृदु होना पड़ता है, तो कभी प्रशासक की तरह कठोर भी। 5 दिसंबर 1966 को बालाघाट के श्री प्यारेलाल श्रीवास्तव को लिखा एक पत्र यही बताता है।

“यज्ञ आयोजन का आपका विचार उत्तम है। छोटे आयोजन देशभर में हो रहे हैं, होने भी चाहिए, पर सबमें हमारा पहुँचना आवश्यक नहीं। इन दिनों हम शास्त्रों के अनुवाद, देशव्यापी संगठन एवं अपनी विशेष तप−साधना में संलग्न हैं। हमें तभी बुलाना चाहिए जब कोई विशेष कारण हो। साधारण प्रचार के लिए हमारा दुर्बल स्वास्थ्य सर्वथा अनुपयुक्त है।”

पत्र की भाषा स्वयं में बताती है कि संगठन निर्माता को कभी कठोर भी होना पड़ सकता है। आत्मीयता की दुहाई देकर कोई भावनात्मक शोषण करें एवं अपनी ही बात मनवाने पर तुल जाए, यह ठीक नहीं। ये पत्र हमारे लिए शिक्षण का कार्य करते हैं एवं सभी को बताते हैं कि संगठन का आधार न केवल प्यार−अपनत्व है, पर अनुशासन भी है। यही तो वह बात है, जो हमारी गुरुसत्ता को औरों से निराली बनाती है।


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