ईसा की विदाई का अंतिम दिन था। उस रात उन्होंने अपने प्रमुख शिष्यों को बुलाया और सभी को अभिवादन किया।
शिष्यों ने उस पर आश्चर्य व्यक्त किया, तो वे बोले, “जो तुम्हें पूजें, उनके प्रति तुम भी पूज्य भाव रखना, क्योंकि वे ही तुम्हें श्रेय प्रदान करते हैं। ऐसा न हो कि सम्मान पाकर इतराओ और अहंकार के दबाव से अपनी श्रद्धा गँवा बैठो।”
पौधे में संवेदनशील सिद्ध करने वाले जगदीश चंद्र वसु अपने प्रतिपादन को सही सिद्ध करने के लिए इंग्लैंड गए। उनका प्रदर्शन वैज्ञानिकों की भरी सभा में होने वाला था। एक पौधे को इंजेक्शन लगाकर वे उस विष के कारण पौधे पर होने वाली प्रतिक्रिया सिद्ध करना चाहते थे।
इंजेक्शन लगाया गया, पर पौधे को कुछ नहीं हुआ। वह जैसे का तैसा बना रहा। इस पर आत्मविश्वासी वसु ने कहा, यदि पौधे पर यह इंजेक्शन काम नहीं कर सकता, तो मेरे ऊपर भी नहीं करेगा। यह कहकर उसी तरह की दूसरी सुई अपनी बाँह में लगा ली, सभी स्तब्ध थे। जहर का इंजेक्शन लगाने पर क्या दुर्गति हो सकती है, यह सभी जानते थे।
वसु को भी कुछ नहीं हुआ। इस पर इंजेक्शन की जाँच−पड़ताल की गई। पता लगा कि गलती से विष के स्थान पर निर्विष इंजेक्शन का प्रयोग हो गया है।
दूसरी बार सही सुई लगाई गई। पौधे पर तत्काल प्रतिक्रिया हुई। अपनी खोज वे पूरी गंभीरतापूर्वक करते थे और प्रतिपादन से पूर्व प्रामाणिकता की भली−भाँति जाँच−पड़ताल कर लेते थे। आत्मविश्वास इसी कारण उपलब्ध हुआ था।