कर्मणा न्यासः इति कर्मसंन्यासः

October 2001

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सम्राट विजयकीर्ति की चहुँओर कीर्ति थी। उनके दान के सुसमाचार चारों दिशाओं में प्रसारित हो रहे थे। उनकी विनम्रता, त्याग, सादगी, सरलता आदि विविध गुणों की प्रशंसा करते लोग थकते न थे। इस अतुलनीय प्रशंसा का खाद-पानी पाकर उनके अंतर्मन में अहंकार का बीज अंकुरित हो चला था। हर रोज उनका विविध विधि पोषण होने से उसकी बढ़ोतरी का अन्त नहीं था। अब तो स्थिति यह थी कि परमात्मा से जितनी दूरी पर कोई मनुष्य हो सकता था, उतनी ही दूरी पर स्वयं सम्राट विजयकीर्ति खड़े थे।

सच्चाई यही है, मनुष्य की दृष्टि में ऊपर उठना जितना आसान है, परमात्मा के निकट पहुँचना उतना ही कठिन है। जो मनुष्यों की दृष्टि में ऊपर उठने का आकाँक्षी होता है वह अपने आप ही अनिवार्यतः परमात्मा की दृष्टि में नीचे गिर जाता है क्योंकि जो उसके बाहरी जीवन में दिखता है- ठीक उसके विपरीत ही उसके अंतस् में होता है। पर सामान्य जनों के चर्मचक्षु वहाँ तक नहीं पहुँच पाते। इसी कारण से वह आत्मवंचना में पड़ जाता है।

ऐसे में जरूरत स्वयं अपनी अंतःदृष्टि की होती है। क्योंकि इसके बिना सामान्य जनों की आँखों में बनने वाली अपनी प्रतिच्छवि का कोई मूल्य नहीं है। मूल्यवान तो बस वही प्रतिच्छवि होती है,जो स्वयं की अंतःदृष्टि के सामने अनावरित होती है। मनुष्य की वही मूर्ति और भी स्पष्टतर रूप में परमात्मा के दर्पण में प्रतिबिम्बित होती है। अत्यन्तिक रूप से व्यक्ति जो स्वयं के समक्ष है, ठीक वही वह परमात्मा के समक्ष भी होता है।

सम्राट विजयकीर्ति अपने यश की धुँध से घिर कर अपनी अंतःदृष्टि पूरी तरह से गंवा चुके थे। अब तो जैसे स्वयं के बारे में उनका कोई मत ही नहीं रह गया था। लोग जो कह रहे थे, उसी को वह सुन रहे थे, समझ रहे थे और मान भी रहे थे। सम्राट विजयकीर्ति की इस यश गाथा के बोझ तले उनकी आत्मा दबती गयी और दम तोड़ती गयी। कीर्ति बढ़ती गयी और आत्मा सिकुड़ती गयी। उसकी शाखाएँ फैल रही थी और जड़े निर्बल हो रही थी।

सम्राट विजयकीर्ति का एक अनन्य मित्र भी था। वह मित्र नगर का ही नहीं समूचे देश का धनकुबेर था। दूर-दूर से जैसी नदी, नाले, सागर की ओर दौड़ते हुए जाकर मिल जाते थे, वैसे ही धन की सरिताएँ उसकी तिजोरियों में। श्रेष्ठी विमलेन्दु के नाम से वह हर कहीं जाना जाता था। धनपति होने के बावजूद वह अपने सम्राट मित्र के ठीक विपरीत था। दान के नाम पर एक कानी कौड़ी भी उससे नहीं छूटती थी। उसकी बड़ी अपकीर्ति थी।

सम्राट विजयकीर्ति और श्रेष्ठी विमलेन्दु दोनों अब वृद्ध हो चले थे। एक अभिमान से भरा था, दूसरा आत्मग्लानि से। अभिमान सुख दे रहा था, जबकि आत्मग्लानि प्राणों को छेदे डालती थी। जैसे-जैसे सम्राट को मृत्यु निकट दिखाई पड़ती थी, वह अपने अहंकार को कस कर पकड़ते जाते थे। लेकिन धनपति की आत्मग्लानि अन्ततः आत्मक्रान्ति बनती जा रही थी। आखिर वह सहारा तो थी नहीं, उसे तो छोड़ना ही था।

लेकिन इस सम्बन्ध में एक सत्य यह भी था। कि आत्मग्लानि भी अहंकार का ही उल्टा रूप है। और इसलिए वह भी छूटती कठिनाई से ही है। प्रायः तो यह सीधी होकर स्वयं ही अहंकार बन जाती है। इसी कारण भोगी-योगी बन जाते हैं, लेकिन बुनियादी रूप में उनकी आत्माओं में कोई क्रान्ति कभी नहीं होती।

लेकिन श्रेष्ठी विमलेन्दु इस सबसे अलग आत्मक्रान्ति से गुजर रहा था। और इन्हीं पलों में वह अपने सद्गुरु के पास गया। उसने वहाँ जाकर कहा, मैं अशान्त हूँ, मुझे शान्ति चाहिए।

सद्गुरु उसकी दशा से परिचित थे। उन्होंने उससे कहा, जो धन तुम्हें शान्ति नहीं दे सका, उसे व्यर्थ क्यों ढो रहे हो।

श्रेष्ठी ने संकेत को समझा और अपने धन को लोकहित के कार्यों में लगा कर उल्टे पाँव लौट आया।

लेकिन सद्गुरु भी अद्भुत थे। उन्होंने उस दरिद्र श्रेष्ठी को अपने झोंपड़े से बाहर निकाल दिया। श्रेष्ठी विमलेन्दु चकित थे। वह सोच रहे थे कि पहले धन का संग्रह व्यर्थ था और अब उसका त्याग भी व्यर्थ गया।

वह उस रात्रि निराश्रित एक वृक्ष के नीचे सो रहा। उसका अब कोई सहारा न था, न साथी, न घर। न उसके पास संपदा थी, न शक्ति थी। न संग्रह था, न त्याग था। सुबह जागने पर उसने पाया कि वह अनिर्वचनीय शान्ति में डूबा हुआ था। सचमुच ही निराश्रित चित्त अनायास ही परमात्मा के आश्रय को पा लेता है।

वह भागा हुआ सद्गुरु के चरणों में गिरने को गया। पर यह यया समर्थ सद्गुरु तो पहले से ही उसे गले से लगाने के लिए द्वार पर खड़े थे।

सद्गुरु ने उसे हृदय से लगाते हुए कहा- पुत्र! धन छोड़ना आसान है, त्याग छोड़ना कठिन है। किन्तु जो त्याग का त्याग करता है, वही वस्तुतः धन भी छोड़ता है। धन का आश्रय हो, या त्याग का, आत्मग्लानि का आश्रय हो या अभिमान का। संसार का आश्रय हो या फिर संन्यास का। वस्तुतः जहाँ तक आश्रय है, वहीं तक परमात्मा तक पहुँचने में अवरोध है। सभी आश्रयों के टूटते ही परमात्मा का परम आश्रय उपलब्ध होता है।

सद्गुरु के इन वचनों को श्रेष्ठी से साधक बने विमलेन्दु ध्यानमग्न हो सुन रहे थे। सद्गुरु कह रहे थे- धन में आश्रय खोजा जाय अथवा फिर त्याग में। जब तक भी किसी आश्रय की खोज है- वह वस्तुतः अहंकार की ही रक्षा की खोज है। आश्रय मात्र छोड़ते ही, निराश्रय और असुरक्षित होते ही चित्त स्वयं की मूल सत्ता में निमज्जित हो जाता है। यही है शान्ति। यही है मोक्ष। यही है निर्वाण।

वह व्यक्ति जो न अब धनपति था, न दरिद्र था, उसे परम शान्ति के इन पलों में अपने मित्र सम्राट विजयकीर्ति का स्मरण हो आया। सम्राट इस समय मृत्यु शय्या में पड़े थे। श्रेष्ठी से साधक बने विमलेन्दु ने अपनी अनुभूति को सम्राट से कहा। बातें सम्राट की आत्मा को छू गयी। दीप से दीप जल उठा। अहंकार के पाश कटे। अब तक अहंकार के पाश में कसे बंधे सम्राट, इन पाशों के कटते ही परम शान्ति का अनुभव करने लगे।

अब दोनों मित्रों का अनुभव समान था। वे दोनों ही एक साथ कह उठे- दरअसल पाने के ख्याल में ही भूल है। हम दोनों ही उसके कारण ही खोए हुए थे। जो पाता है- वह तो पाया हुआ ही है। और अधिक पाने की इस बेवजह दौड़ में यही नित्य प्राप्त खो गया था। अब तो जो है, वही शान्ति है, वही परमात्मा है, वही मोक्ष है।


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