भक्ति अर्थात् अंदर के आनंद की खोज और उसका विस्तार

October 2001

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पूज्यवर द्वारा शाँतिकुँज परिसर में अक्टूबर, 1975 में दिए गए प्रवचन का साराँश

गायत्री मंत्र हमारे साथ−साथ

ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्!

देवियों, भाइयो! ज्ञानयोग और कर्मयोग इन दो योगों के संबंध में कल और परसों आपको हमने बताया कि आपको ज्ञानयोगी और कर्मयोगी होना चाहिए। ज्ञानयोग अर्थात् आपको ऐसा आदमी होना चाहिए, जिसे दूरदर्शी और विवेकवान कहते हैं। कर्मयोग अर्थात् आपको अपने कर्तव्यों और फर्जों को पूरा करने वाला होना चाहिए, जैसे कि कर्मठ, बहादुर और जिम्मेदार आदमी हुआ करते हैं। ज्ञानयोग और कर्मयोग के बाद में एक और सबसे बड़ा योगाभ्यास रह जाता है, जिसका नाम है ‘भक्तियोग‘। चिंतन में यही योग काम करता है। जीवन में इसका समावेश होना चाहिए । वे योग अलग है, जिनमें किसी तरह के अभ्यास किए जाते हैं। वह योगाभ्यास कहलाते हैं, जैसे—प्राणायाम वगैरह। उस योगाभ्यास की बात मैं आपसे नहीं कह रहा हूँ। मैं तो आपसे उस योग की बात कह रहा हूँ, जो कि इन्सान को भगवान् के साथ जोड़ने में सहायक होता है। आदमी का आत्मज्ञान इन्सान और भगवान् को जोड़ देने में समर्थ होता है। कर्मयोग अर्थात् कर्त्तव्यपालन भी इन्सान को भगवान् के साथ जोड़ देता है। तीसरा है ‘भक्तियोग‘ जिसके संबंध में ही आज आपके निवेदन करना है।

भक्ति का अर्थ भावोन्माद नहीं

भक्ति किसे कहते हैं? ‘भक्ति’ शब्द मैं जानबूझकर उपयोग नहीं करूंगा, क्योंकि भक्ति के संबंध में इतनी ज्यादा गलतफहमियाँ लोगों में छा गई हैं कि मैं क्या कहूँ। लोगों की संवेदनाएँ, भावनाएँ उभर आएँ और वह केवल रोने लगे, नाचने लगे, उचकने लगे, मस्तक झुकाने लगे, बस हो गई भक्ति? नहीं, यह भक्ति नहीं है। यह तो एक तरीके से भावोन्माद है, भाव संवेदना है, जो कइयों को, ढेरों आदमियों को होता है। लोग बात−बात पर हँस जाते हैं। बहुत−सी औरतें ऐसी होती हैं कि जरा−सी बात हुई, गलत बात हुई और वे रोने लगती हैं कि जरा−सी बात हुई, गलत बात हुई और वे रोने लगती है। यह भावुकता है। सामूहिक भावुकता भक्ति की निशानी नहीं है। जैसे कि आमतौर से लोग समझते हैं। देवी−देवताओं के सामने नाक रगड़ना, गिड़गिड़ाना, आँसू बहाना, उछलना−कूदना, हल्ला−गुल्ला मचाना, उलटा पड़ जाना, सीधा बैठ जाना, नाचने लग जाना आदि बातों को करने वालों को लोग−बाग समझते हैं कि वह व्यक्ति बहुत बड़ा भक्त है। नहीं मित्रो ! ये भावुकताएँ हैं। भावुकता की दृष्टि से तो ये क्रियाएँ ठीक हो भी सकती हैं, लेकिन जहाँ तक आध्यात्मिक उन्नति का संबंध है, इस तरह की भक्ति का योग से कोई सीधा संबंध नहीं है और न सीधे भगवान् से ही। यह भक्तियोग नहीं है।

भक्ति किसे कहते हैं? भक्ति का सीधा−सादा अर्थ होता है, प्यार और मोहब्बत। प्यार और मोहब्बत आदमी के भीतर की एक ऐसी विशेषता है, जो जिस आदमी के भीतर होगी, उसको आरंभ से ही स्नेह से लबालब, खुशहाल बनाए रखेगी। प्यार के बिना आदमी तो कहीं है ही नहीं। आनंद की तलाश में जीवात्मा इधर−उधर घूमती रहती है। कभी इसके पास जाता है, कभी उसके पास जाता है। कभी वहाँ जाता है कि कहीं तो इसको आनंद मिल जाए, कहीं सुख मिल जाए और वह जीवन का आनंद उठा ले। वस्तुतः लोग समझते हैं कि वस्तुओं में आनंद होता है, जैसे कि खाने−पीने की चीजों में लोग समझते हैं और कहते हैं कि आज तो बड़ा आनंद आया। खाने को मिठाई मिली, नमकीन मिली, कचौड़ी मिली। क्या यही आनंद है? नहीं यह आनंद नहीं है। यह तो संवेदना है, आदमी की जीभ का जायका है। यह स्थाई नहीं हो सकता। जितनी देर तक आपका पेट नहीं भरा है, उतने समय तक के लिए तो यह भी हो सकता है कि आपको खाने के लिए जायकेदार चीजें मिलें। लेकिन वह तो क्षणिक हुआ न।

इसी प्रकार दूसरी तरह की चीजें हैं, जैसे आँखों से कोई दृश्य देखना है, तो आप थोड़े समय तक ही तो उसे देखेंगे। दो−ढाई घंटे में सिर घूमने लगेगा और आपकी आँखें खराब होने लगेंगी। आप कितनी देर तक बैठेंगे सिनेमा में? ज्यादा देर तक नहीं बैठ सकते। यही बात कामवासना के संबंध में है। कामवासना का कितनी देर तक का सुख होता है? कुछ सैंकड़ों का सुख होता है और उसके बाद में वही बातें बड़ी बुरी मालूम होने लगती हैं।

भीतर की मोहब्बत ही है आनंद

मित्रो!आनंद उस चीज का नाम है जो इंद्रियों से ताल्लुक नहीं रखता, वरन् जीवात्मा से ताल्लुक रखता है। जीवात्मा का आनंद किस तरीके से मिल सकता है, इसका एक ही उत्तर है और एक ही जवाब है। क्या उत्तर है? यही कि आदमी के भीतर की मोहब्बत का ही दूसरा नाम आनंद है। उसी का नाम प्यार है। उसी का नाम प्रसन्नता है, उसी का नाम उत्साह है, उसी का नाम उल्लास है। उसी का नाम भाव−संवेदना है। यह सब प्यार के ऊपर टिका हुआ है। आपने देखा है न कि आप प्यार किसी चीज को करते है? जो अपना है, जिसको आप अपना समझते हैं, उसी से तो प्यार करते हैं। जैसे आपकी साइकिल है, तो उसी भर से आप प्यार करते हैं, अन्यथा उस साइकिल स्टैंड पर इतनी सारी साइकिलें रखी हैं कि उनमें से किसी में छेद हो रहा है, तो कोई धूप में पड़ी है, लेकिन आपको तो केवल अपनी साइकिल की ही फिक्र है कि इसे लेकर हमको चलना चाहिए। जब तक कोई मोटर आपकी है, तब तक तो आपको ख्याल है कि इसकी मरम्मत होनी चाहिए। जब कोई बच्चा इसको छूने लगता है, तो आप उसे भगा देते हैं, लेकिन अगर पड़ोसियों की मोटरें खड़ी हों। बस स्टैंड पर मोटरें खड़ी हों, तो तब आपको उनसे क्या लेना−देना? जो चीजें अपनी हैं, केवल वही चीजें प्यारी लगती हैं।

मित्रो! वस्तुतः यह प्यार ही खुशी की आवाज होती है। आप हर चीज को अपनी मानना शुरू कीजिए, फिर देखिए कि वह आपको प्यारी लगेगी कि नहीं? अपना बच्चा काला कुरूप होता है, नाक टपकती रहती है, पेट भी बढ़ा हुआ होता है, बहुत−सी बुरी आदतें भी होती हैं, फिर भी आप उसे गोदी में लिए फिरते हैं, क्योंकि वह हमारा है। लेकिन अगर पड़ोसी का बच्चा मचलता रहे और आपकी गोदी में आने की कोशिश करे, तो आप उसे धमकाकर भगा, देते हैं। क्योंकि बच्चे तो सब एक से होते हैं। नहीं साहब! वह हमारा है, इसलिए प्यारा है। ‘हमारा होने से’ जो कोई भी चीज हमारे पास है या होगी, बड़ी अच्छी मालूम पड़ेगी, खुशनुमा मालूम पड़ेगी, प्यारी मालूम पड़ेगी और उसकी उपस्थिति में भी आपको आनंद मिलेगा। जिनको साथ मिलने में कितना आनंद आता है। जिनको आप अपना मित्र मानते हैं, यदि वे आपके घर आ जाते हैं, तब कितनी खुशी होती है। क्यों? इसलिए कि आप उसको अपना मानते हैं।

अगर ऐसा न मानें तब? कोई भिखारी आ जाए तब? कोई ऐसा मेहमान आ जाए, जो आपका समय खराब करने चला आए, जिससे आपको कोई फायदा नहीं है, जिससे आपकी कोई जान−पहचान नहीं है, तब क्या आप उसको पसंद करेंगे? स्वागत करेंगे? चाय पिलाएँगे? घंटों बातचीत करेंगे? नहीं, ऐसा नहीं हो सकता। आपसे कोई कामकाज की बात भी होगी, तो दो मिनट में बात करने के बाद उसे आप भगा देंगे। कहेंगे कि भाई! समय मत खराब कीजिए। ऐसा क्यों? एक मित्र जो आपके नजदीक आया था, उसका आप इतना स्वागत कर रहे थे, घंटों घुल−मिलकर बात कर रहे थे। अपना काम भी हर्ज कर रहे थे। दूसरा भी तो आदमी था, उससे क्यों नहीं की? क्योंकि वह हमारा नहीं था।

डालें प्यार की, आत्मीयता की टार्च

मित्रो! अपने और पराये का जो यह फर्क है, वह बहुत बड़ा फर्क है। अपना घनिष्ठ होता है। आपने देखा है न कि जब कभी आप टार्च जलाते हैं, तो जितनी चीजों के ऊपर टार्च का प्रकाश पड़ता है, उतनी दायरे की चीजें चमकती हैं, लेकिन जहाँ टार्च का प्रकाश नहीं पड़ता, वहाँ अंधकार छाया रहता है। आप प्यार की टार्च, आत्मीयता की टार्च जहाँ कहीं भी डालेंगे, जिस किसी पर भी डालेंगे, वही चीज खुशनुमा मालूम पड़ेगी। हर तरीके से अच्छी−अच्छी बातें मालूम पड़ेगी, सुँदर मालूम पड़ेंगी, बढ़िया मालूम पड़ेंगी, लेकिन जिसको आप पराया मान लेंगे, वह कैसा ही सुँदर क्यों न हो, कैसा ही लुभावना क्यों न हो, आपको उससे कोई खास लगाव नहीं हो सकता। लैला और मजनू का किस्सा सुना होगा आपने। लैला स्याह काले रंग की थी, बिलकुल काली कलूटी, लेकिन मजनू उसके ऊपर इतना फिदा था कि उसने अपनी सारी जिंदगी को तबाह कर डाला। उसने कहा कि मैं लैला के बिना जिंदा नहीं रह सकता।

मित्रो! शकल−सूरत कैसी भी काली−कुरूप, भोंड़ी क्यों न हो, लेकिन जिस किसी के साथ भी आदमी अपनापन जोड़ लेता है, वह बहुत अच्छा मालूम पड़ता है, बड़ा आनंददायक मालूम पड़ता है। जो पराई चीजें होती हैं, डरावनी वही मालूम पड़ती हैं। शेर के बच्चे शेरनी के साथ खेलते रहते हैं, दूध पीते रहते हैं, क्योंकि वे समझते हैं कि ये हमारी है। शेरनी अपने बच्चों को देखकर प्रसन्न होती है। नाराज भी नहीं होती, लेकिन अगर लोमड़ी के बच्चे आ जाएँ, खरगोश के बच्चे आ जाएँ, तब शेरनी उनका सफाया कर देती है, क्योंकि वे पराये हैं। अपने और पराये में बहुत फर्क है।

साथियों! ‘रस’ को आनंद कहा जाता है। यही बात हमारे शास्त्रों में बताई गई है, “रसौ वै सः” अर्थात् भगवान् क्या है? रस है। रस किसे कहते हैं? रस, आनंद को कहते हैं। आनंद कहाँ है? भगवान् में है। भगवान् कैसा होता है? आत्मीयता आप जिसके ऊपर आरोपित कर लेते हैं, वही आपके आनंद का माध्यम बन जाता है। भगवान् के ऊपर आप अपनेपन का आरोपण कर लें तो भगवान् की भक्ति का आपको बेहद आनंद आएगा, फिर आप कहेंगे कि वे हमारे हैं और हम इनके हैं। मीरा ने अपना संबंध भगवान् से स्थापित कर लिया कि यही हमारे पति हैं। गोपियों ने भी यह मालूम कर लिया था कि ये हमारे सबसे अजीज और प्यारे हैं। बस क्या था, भगवान् श्रीकृष्ण उनको प्यारे लगने लगे, अपने लगने लगे। अगर उन्हें यह मालूम पड़ता कि ये पराये हैं, तो क्या होता? आपने देखा नहीं, भगवान् श्रीकृष्ण के बारे में जरासंघ की, कंस की, दुशासन की, शिशुपाल की, और भी ढेरों आदमी थे, उनके प्रति क्या मान्यता थी। उनको न वे भगवान् मालूम पड़ते थे, न सुँदर मालूम पड़ते थे। वरन् उन्हें वे कुरूप मालूम पड़ते थे, खराब मालूम पड़ते थे, चालाक और विरोधी मालूम पड़ते थे।

ध्वनि की प्रतिध्वनि है प्यार−ममत्व

शिशुपाल ने भगवान् को बहुत गालियाँ सुनाई थीं। अर्जुन की तरह वह भी भगवान् की प्रशंसा क्यों नहीं करता था? शिशुपाल उनको अपना बैरी मानता था, विरोधी मानता था, पराया मानता था। मित्रो! इस दुनिया में न कोई सुँदर चीज है, न कोई बिना सुँदर अर्थात् खराब चीज है, न कोई आनंद की चीज है और न कोई बिना आनंद की चीज है। यहाँ सब वस्तुएँ माने वस्तुएँ, प्राणी माने प्राणी, मनुष्य माने मनुष्य। आपको किससे प्यार मिलेगा। जिससे आप करेंगे। प्यार नहीं होगा तो आनंद कहाँ से आएगा। आनंद और प्यार एक ही चीज हैं। अतः यदि आपको इस जीवन में आनंद पाना है तो आपको अपने प्यार का माद्दा बढ़ाना पड़ेगा। प्यार का माद्दा बढ़ाने से क्या मतलब है? प्यार का मतलब सामयिक शिष्टाचार नहीं है, दिखावट नहीं है। दावत खिलाना नहीं है। कोई प्रेम−उपहार देना नहीं है। वरन् प्यार का मतलब यह है कि हम यह मानकर चलें कि यह हमारा है, अपना है। फिर आप देखिए कितना आनंद आता है और उसके साथ में आप कितनी सेवा करते हैं और उसके नजदीक रहने में कितनी प्रसन्नता अनुभव करते हैं। पहले आप अपने अपनत्व का दायरा तो बढ़ाइए, अपने आपको प्यार तो कीजिए।

मित्रो! आपने अपने शरीर को प्यार किया है न। जरा−सी बात हो जाती है, नुकसान हो जाता है, तो उसको ठीक करने की कोशिश करते हैं। इसको कपड़ा पहनाते हैं, इसकी सजावट करते हैं, शृंगार करते हैं, इसके बाल बनाते हैं। इसके लिए और न जाने क्या−क्या करते हैं, क्योंकि इसे आप अपना मानते हैं। पड़ोस में जो दूसरे आदमी रहते हैं, उनका भी आप बाल बनाते हैं क्या? कभी नहीं साहब! उनका तो हम नहीं बनाते। उनको कपड़ा पहनाते हैं क्या? नहीं पहनाते। उनको आप क्यों नहीं पहनाते? इसलिए नहीं पहनाते, क्योंकि वे हमारे नहीं हैं। अगर बच्चे हमारे हैं, तो हम उनकी बराबर देखभाल करते हैं, उनको सुँदर बनाते हैं। उनको पढ़ाते हैं, शिक्षा देते हैं, क्योंकि वे हमारे हैं। हमारेपन का, अपनेपन का माद्दा इन्सान के पास एक ऐसी चीज है, जो जहाँ कहीं भी टक्कर खाता है, वहीं से लौटकर आपके पास आ जाता है। ठीक उसी तरह से जिस तरह से रबर की गेंद फेंककर जब मारते हैं, तो मारने के बाद वह जिधर से मारी गई थी, लौटकर उसी स्थान पर आ जाती है। ठीक इसी तरीके से जब हम प्यार और मोहब्बत किसी के ऊपर फेंककर मारते हैं, तो वह लौटकर हमारे पास आ जाती है। आप जिससे भी प्यार कीजिए, गुँबज की आवाज की तरह से, कुएँ की आवाज की तरह से उसकी प्रतिध्वनि लौटकर आपके पास आ ही जाती है।

सर्वत्र अपना आपा बिखरा मानें

मित्रों! इसी तरीके से अगर संसार में आप द्वेष बुद्धि से देखेंगे तो आपको द्वेष बरसता दिखाई पड़ेगा। आप लोगों की उपेक्षा करना शुरू कर दें, तो आपको चारों ओर उपेक्षा, उदासी छाई हुई दिखाई पड़ेगी। परायापन दिखाई पड़ेगा। सब माया और मिथ्या दिखाई पड़ेगा। परंतु यदि आप सब चीजों के प्रति आत्मीयता की भावना रखें, सर्वत्र अपना आपा ही बिखरा हुआ दिखाई पड़ेगा। तुलसीदास के “सियाराममय सब जग जानी” की अनुभूति होने लगेगी। संसार का जर्रा−जर्रा सिया से भरा है, राम से भरा है। अपनत्व विकसित होने पर आपको हर जगह राम दिखाई पड़ेंगे और हर जगह सीता जी दिखाई पड़ेंगी। कब? जब आप उसे अपना मानेंगे तब। आप सबको अपना मानना शुरू कीजिए। अपनेपन के दायरे को बढ़ा दीजिए। अभी तो आपके अपनेपन का दायरा शरीर तक है, इसलिए शरीर में सुख है, तो आप सुखी हैं, शरीर में दुःख है तो दुखी हैं। अभी तो आपने अपना दायरा अपने कुटुँब तक सीमित रखा है। कुटुँबियों को अच्छी नौकरी मिल गई, खाना मिल गया, इज्जत मिल गई, तो आप खुश हैं और अगर नुकसान हो गया तो आप नाखुश हैं। अतः आप एक काम कीजिए, अपने इस छोटे−से दायरे को बढ़ा दीजिए। आप अपने आपको सारे विश्व तक फैला दीजिए, तब सारी चीजें आपकी हो जाएँगी।

स्वामी रामतीर्थ अपने आपको रामबादशाह कहते थे। वे कहते थे कि मैं बादशाह हूँ। आप किसके बादशाह हैं? बादलों का बादशाह, नदियों का बादशाह, पहाड़ों का बादशाह। वे कहते थे कि मैं इनके ऊपर जा सकता हूँ और देख सकता हूँ। यह सब उनका ख्याल था, क्योंकि वे समझते थे कि सारी दुनिया मेरी है। मैं दुनिया का मालिक हूँ। वे अपने को बादशाह कहते थे। इसमें कोई रुकावट थी बताइए? कोई रुकावट नहीं थी? कोई नदी का पानी पीना चाहे तो उसे कौन रोक सकता है? सड़क पर चलना चाहे तो कौन रोकता है? बादलों को निहारना चाहे तो कौन रोकता है? किसी चिड़िया के आगे दाना फेंकते हैं तो कौन रोकता है। किसी की सेवा−सुश्रूषा करने लगे तो कौन रोकता है? केवल बुराइयों के संबंध में तो रोकथाम हो भी सकती है कि किसी के साथ में आप चोरी का व्यवहार करें, लड़ाई−झगड़े का व्यवहार करें, तो कानून भी आपको रोक सकता है। लेकिन आप किसी से मीठे वचन बोलें, किसी की मदद कर दें, किसी के काम आएँ, तब भला आपको कौन रोकने वाला है?

इसलिए मित्रो? भक्ति न केवल भाव संवेदना से ताल्लुक रखती है, वरन् व्यक्ति के बहिरंग जीवन से भी उसका ताल्लुक है। भक्ति या मोहब्बत यह सिखाती है कि हमें दूसरों की मदद करनी चाहिए। आप जिससे भी मोहब्बत करेंगे, उसकी सेवा करने के लिए आप खुशी−खुशी तैयार हो जाएँगे। आपकी यदि अपनी साइकिल है, तो आप इसे झाड़ेंगे, पोछेंगे, उठाकर रख देंगे, तेल डालेंगे। आपका अपना बच्चा है तो उसे अपनी गोद में उठाएँगे, बैठाएँगे, पढ़ाएँगे, लिखाएँगे, शिक्षा देंगे। आप उनके माँ−बाप हैं, तो उनके लिए क्या कुछ करेंगे नहीं? आपकी धर्मपत्नी है तो क्या उनके लिए कुछ करेंगे नहीं? हम जिस किसी से भी आत्मीयता रखते हैं उसके लिए कुछ करने की इच्छा होती है। प्यार का वास्तविक स्वरूप यही है। प्यार का वास्तविक स्वरूप सेवा में निखरता है। आप किसके साथ में प्यार करते हैं और किसके साथ में प्यार नहीं करते, इसकी पहचान सिर्फ यही है कि जिसको आप प्यार करते हैं, उसकी आप सेवा करना चाहते हैं कि नहीं। प्यार सेवा करना सिखाता है। प्यार अनुदान सिखाता है। प्यार अपने प्यारे को सुखी बनाने के लिए स्वयं कष्ट उठाता है और सामने वाले प्रेमी को सुखी बनाता है। देश−भक्ति इसी का तो नाम है। विश्व−भक्ति इसी का तो नाम है। भगवान् की भक्ति इसी का नाम है कि भगवान् को आप प्रसन्न बनाएँ। इसके लिए योगदान करें। आप हैरान होते हों, तो हों, पर बच्चों को आप सुखी बनाएँ, देश को आप सुखी बनाएँ। ऐसी हैरानी में भी आदमी प्रसन्न रहता है।

भज् सेवायाम् ही है भक्ति

मित्रो! भक्ति न केवल मानसिक और भावनात्मक संपदा है, वरन् उसके आधार पर पुण्य करने और परमार्थ करने का मौका भी मिलता है। आप भक्ति कीजिए और सेवा भी कीजिए। प्यार का अर्थ जैसा कि आमतौर से आपने लगा रखा है, वह प्यार, प्यार नहीं हो सकता है। आपको खूबसूरत चीजों से प्यार है और बिना खूबसूरत चीजों से प्यार नहीं है। इसका क्या मतलब हुआ? खूबसूरत है तो क्या, बिना खूबसूरत है तो क्या? यह संसार एक बगीचा है। इसमें सभी तरह की चीजें हैं। हमारा सीमितपन क्यों हो? हम मोह के बंधन में क्यों बँधें? मोह और बंधन एक ही तरह से होते हैं। जिनसे हमको फायदा होता है, उसके साथ हमारी मोहब्बत होती है, लेकिन जिन लोगों के साथ हमारा फायदा नहीं होता। आमतौर से उन लोगों के साथ हमारी मोहब्बत नहीं होती। शंकर भगवान् के साथ उनके भक्त भूत−प्रेत भी रहते हैं। भूत−प्रेतों की भी वे सेवा करते हैं, मदद करते हैं। भक्ति है, तो हमसे गए−बीते हुए लोगों, पिछड़े हुए लोगों, गए−गुजरे हुए लोगों को भी सेवा करनी चाहिए। बच्चों को हम गोदी में लिए फिरते हैं, क्यों? जो हमसे इतने छोटे हैं, उनकी समझदारी भी कम होती है। जिनकी क्षमताएँ कम हैं, जो उठने में असमर्थ हैं, तो क्या उनकी सेवा नहीं करनी चाहिए? सेवा करनी चाहिए।

साथियों! सेवा और भक्ति दोनों एक ही चीज हैं। ‘भज् सेवायाम्’ संस्कृत में ‘भज्’ शब्द जो बना है, उससे भजन बना है, भक्ति भी बनी है। भक्ति का अर्थ क्या होता है? भक्ति का अर्थ सेवा होता है। कौन करेगा किसकी सेवा? वह करेगा और उसकी करेगा जिसको वह मोहब्बत करता है। तो आप अपनी मोहब्बत को बदल डालिए और उसका दायरा बढ़ाइए। बस यही भक्ति है। भक्ति का अभ्यास हम भगवान् से करते हैं। यह व्यायामशाला है। व्यायामशाला में हम प्रेरणा पाते हैं। कुश्ती लड़ना सीखते हैं। दौड़ लगाना सीखते हैं और जब दंगल होता है, प्रतियोगिताएँ होती हैं तब कमाल दिखाते हैं। आप भगवान् की कोठरी में बैठकर भक्ति किया कीजिए। किसकी भक्ति करें? सिद्धाँतों की भक्ति, आदर्शों की भक्ति। भगवान् क्या हैं? सिद्धाँतों का समुच्चय, आदर्शों का समुच्चय, श्रेष्ठताओं का समुच्चय ही भगवान् है। भगवान् व्यक्ति विशेष नहीं है, जिसको हम और आप मिठाई खिलाएँगे, लड्डू खिलाएँगे और उनको मुकुट पहनाएँगे, साड़ी पहनाएँगे। बेटे भगवान् कोई व्यक्ति थोड़े ही है। भगवान् तो एक सच है। भगवान् तो एक नियम है। भगवान् तो एक सत्ता है। भगवान् तो एक फायदा है, ऊँचे आदर्शों का समुच्चय है। उससे प्यार कीजिए, बस भक्ति का अभ्यास हो गया।

आदर्शों से असीम प्यार ही है भक्ति

भक्ति के लिए, पूजा−उपासना के लिए आपने कोई इष्टदेव की मूर्ति बनाकर रखी होगी तो कोई हर्ज नहीं, लेकिन उसको आप सिद्धाँतों का समुच्चय मानिए, आदर्शों का समुच्चय मानिए। उसे व्यक्ति विशेष मत कीजिए। अगर व्यक्ति विशेष मानेंगे तो भ्रम और जंजाल में घूम रहे होगे। आपने अगर शंकर जी को एक आदमी माना होगा, जो बैल की सवारी करता हुआ जहाँ तहाँ घूमता रहता है और बेल के पत्ते खाता है। आक के फूल और धतूरे के फल खाता है, तो आप गलती कर रहे हैं। शंकर ऊँचे आदर्शों का समुच्चय है। शंकर जी के सिर से गंगा जी निकलती हैं, जो आदर्शों की गंगा हैं। गले में मुँडों की माला डाले फिरते हैं, जिसका अर्थ है कि वे मौत और जिंदगी को एक मानते हैं। यह क्या है—सिद्धाँत है। उनके मस्तक पर चंद्रमा टिका हुआ है अर्थात् वे मानसिक संतुलन बनाए हुए हैं। भूत−प्रेतों को हमेशा साथ लिए फिरते हैं, इसका मतलब है कि वे गए−गुजरे और पिछड़े हुए आदमियों की बात करते हैं। श्मशान में रहते हैं अर्थात् वहाँ रहते हैं जहाँ कि अस्तव्यस्तता छाई हुई है, जहाँ नीरसता छाई हुई है। जहाँ कोलाहल छाया है, वहाँ पर रह करके अपनी विशेषता के कारण शाँति और भक्ति का वातावरण बना देते हैं। ये शंकर भगवान् की विशेषता है।

इस तरह शंकर भगवान् क्या हैं? सिद्धाँतों का समुचित हैं। ठीक इसी तरीके से भगवान् का प्रत्येक रूप सिद्धाँतों का एक समुच्चय है। चाहे वे गणेश जी हों, चाहे वे हनुमान जी हों, चाहे वे रामचंद्र जी हों, चाहे लक्ष्मण जी हों, कोई भी क्यों न हों। ये सारे के सारे देवी−देवता या भगवान् के अवतार एक तरीके से सिद्धाँतों के समुच्चय हैं श्रेष्ठता के दिव्य गुणों के उच्च आदर्शों के समुच्चय हैं। आप इनसे भक्ति करते हैं, इस कारण से होना यह चाहिए कि आप यह देखें कि उन सिद्धाँतों के प्रति क्या करते हैं। आप सिद्धाँतों के प्रति प्यार करना सीखिए। अगर सिद्धाँतों के प्रति आपकी आस्थाएँ बलवान होती चली गई, मजबूत होती चली गई, तो आप उन सिद्धाँतों को क्रियान्वित करने में भी हिम्मत दिखाएँगे और उनको काम में भी लाएँगे। भक्ति का पूजा−पाठ से जहाँ तक ताल्लुक है, तो वह यहीं खत्म हो जाता है कि हम सिद्धांतों के लिए अपनी निष्ठाओं को मजबूत करें। जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में यह मानकर चलें कि यह सारी सृष्टि ईश्वर की क्रीड़ास्थली है और सबमें वही समाया हुआ है। अतः जिस भक्ति को हम भगवान् के प्रति करते हैं, उसी भक्ति को जन जन के प्रति करने में समर्थ हो सकें। अगर आपने ऐसा किया तो आप भगवान् के सच्चे भक्त कहलाएँगे।

भक्ति की फलश्रुति

मित्रो! अगर आप सच्चे अर्थों में भगवान के भक्त हैं तो ध्यान रखिए कि इससे आपको क्या फायदा होगा और क्या फायदा नहीं होगा? स्वर्ग में आप जाएँगे कि नहीं जाएँगे? ये बाद की बातें हैं, लेकिन आपको अपने विचारों में एवं चहुँओर ऐसा नजारा दिखाई पड़ेगा, जिसको कि हम स्वर्ग कहते हैं। आँखों में आपको स्वर्ग नाचता हुआ दिखाई पड़ेगा। सारे लोग अपने ही दिखाई पड़ेंगे। बुरे आदमी भी? हाँ, बुरे आदमी भी। कोई व्यक्ति रोगी होता है, तो उसका इलाज करते हैं, उसकी जान बचाने की कोशिश करते हैं। बीमारी को मारते हैं, उसकी जान बचाने की कोशिश करते हैं। बीमारी को मारते हैं और बीमार को बचाते हैं। बीमार व्यक्ति को कौन मारता है? नहीं साहब! अमुक आदमी इस दुनिया में इसलिए नहीं है कि आप उनसे घृणा करें। हाँ, बुराइयों के प्रति आप घृणा कीजिए और उसे ठीक कीजिए। बुराइयों से लड़िए। बुराइयों से जद्दोजहद कीजिए। अपने बच्चे में भी कोई बुरी आदत है, तो कोशिश कीजिए कि बुरी आदत से उसको छुटकारा दिला दें, न कि उस बच्चे को ही मार डालने की कोशिश करें।

आज चारों ओर फैली हुए घृणा और नफरत की दुनिया में और अधिक की गुंजाइश नहीं है। आप प्यार के आधार पर भी लोगों का सुधार कर सकते हैं। आप यह मत सोचिए कि प्यार का हथियार कमजोर है। प्यार का हथियार कमजोर नहीं है। प्रह्लाद की बात आपको मालूम नहीं है? प्रह्लाद ने अपने पिता से प्यार−मोहब्बत की। लेकिन उसने उनका कहना नहीं माना और उनसे बराबर जद्दोजहद करता रहा। क्योंकि पिता जब गलती करते थे, तो उनको सुधारने में प्यार से लगा रहता था कि व्यर्थ के कामों में इनका श्रम क्यों जाए। इसे रोकने के लिए उसने पिता से असहमत होकर उनकी अवज्ञा करनी शुरू कर दी। आप भी इस मामले में किसी से भी लड़ाई−झगड़ा शुरू कर सकते हैं, लेकिन उसके पीछे प्यार का, मोहब्बत का माद्दा अवश्य होना चाहिए। आप प्यार की लड़ाई लड़िए। प्यार की लड़ाई भी बहुत अच्छी है, प्यार के अंजाम भी बहुत अच्छे हैं। यह सबके लिए अच्छा है, हमारे लिए भी और आपके लिए भी। इससे हमारे आनंद में हजारों गुना वृद्धि हो जाती है। हमारी खुशहाली में वृद्धि होती है और हम गरीबी में रहते हुए भी, अभावों में रहते हुए भी चारों ओर प्यार और मोहब्बत की नजर डालते हैं, तो हमारी खुशी का ठिकाना नहीं रहता। यह आपके हाथ में है कि आप खुशी अपनी मुट्ठी में रखें, सब ओर खुशी देखें, आनंद देखें और प्यार देखें। अगर आप अपनी भक्ति के लिए यह दृष्टिकोण बना सकें तो आपके लिए चारों ओर आनंद−ही आनंद है। आनंद आपके अंदर ही छिपा हुआ है, साथ−ही−साथ आपके चारों ओर अमृत−ही−अमृत बिखरा हुआ है। आप चाहें तो इसे समेट भी सकते हैं और चाहें तो पी सकते हैं और दूसरों को भी पिला सकते हैं, ऐसा मेरा विश्वास है। आज की बात समाप्त।

॥ ॐ शाँति ॥


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