बात उस समय की है, जब स्वर्गीय डॉ. जाकिर हुसैन जामिया मिलिया में उपकुलपति थे। उनके एक परिचित सज्जन एक ऐसे छात्र को लेकर उनके पास आए, जो नवीं कक्षा में लगातार दो वर्षों से अनुत्तीर्ण होते आ रहा था। वे सज्जन अनुनय−विनय करने लगे कि वे अपने विशेषाधिकारों का प्रयोग कर छात्र को उत्तीर्ण कर अगली कक्षा में दाखिल करा दें। डॉ. जाकिर हुसैन इस अप्रत्याशित आग्रह से ठगे से देखते रह गए। फिर बोले, “ठीक है आप चाहते हैं कि अपने खसूसी, अखत्यारात का गलत इस्तेमाल करूं, कोई बात नहीं है। वैसे आप दफ्तर से बी.ए. का एक फार्म ले आइए, मैं उसमें ही दाखिल करा देता हूँ, मेरे अख्त्यारात में यह भी है। गलत काम कराने आए ही हैं, तो बड़ा गलत काम क्यों नहीं कराते?” इस उलाहना भरे शब्द से वह सज्जन झेंप गए। छात्र सहित दोनों लज्जित हुए और क्षमा माँगकर फौरन अपनी राह ली।
श्री लालबहादुर शास्त्री जी ने अपनी निस्पृहता, सरलता, निःस्वार्थता, निष्कपटता और स्वयंसेवी वृत्ति के कारण अपनी एक अलग ही छाप लोगों पर छोड़ रखी थी। आत्मप्रशंसा से दूर रहते हुए आदर−सत्कार के कार्यक्रम को वे बराबर टाला करते। “आखिर आप टालते ही क्या रहते हैं?” अपने निकटस्थ मित्रों के यह पूछे जाने पर शास्त्री जी ने लालाजी (लाला लाजपतराय) बहुमूल्य संगमरमर पत्थर जिसका उपयोग गुँबज के लिए और यत्र−तत्र हुआ है, दूसरा एक नहीं। हमें जीवन में भी दूसरे प्रकार के पत्थर का ही अनुकरण करना चाहिए। अपनी प्रसिद्धि, प्रशंसा और आदर−सत्कार से हमेशा दूर रहकर सत्कर्म करते रहना चाहिए।” यही सीख मेरे जीवन में पेठ कर गई हैं और मैं उस नींव के पत्थर का अनुकरण करता रहता हूँ।