चलता−फिरता एक सर्वोपयोगी

October 2001

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(समापन किस्त)

आम प्रचलन में ध्यान बैठकर करने की परंपरा है, पर बौद्ध मत में चलता−फिरता सचल ध्यान भी काफी लोकप्रिय है। इसे कोई भी कहीं और कभी भी कर सकता है, किंतु इसके लिए एकाँत जरूरी है। आरंभिक अभ्यास के बाद मन जब उस साँचे में ढलकर नियंत्रण में आ जाता है, तो फिर जन−संकुलता उसमें बाधक नहीं बनती और उसे चहल−पहल वाले स्थान में भी कर पाना कठिन नहीं रह जाता।

ध्यान वस्तुतः एक विशिष्ट मनोदशा का नाम है। जब मन को हर ओर से मोड़कर उसे एक केंद्र−बिंदु पर एकाग्र कर दिया जाता है, तो वह ध्यान बन जाता है। ध्यान के लिए शारीरिक स्थिरता अथवा एक स्थान पर साधक का बैठना−यह कोई आवश्यक शर्त नहीं, जो जरूरी है, वह यह कि साधक अपनी चेतना को बाह्य संसार से हटाकर अंतर्मुखी बना ले। दैनिक जीवन में इसे हम कितनी ही बार अनुभव करते हैं कि चलते−फिरते किसी विशिष्ट भावधारा या उधेड़−बुन में इस प्रकार खो जाते हैं कि आस−पास का भी ज्ञान नहीं रहता। साधक की स्थिति में यह खो जाना ही ध्यान बन जाता है, पर सर्वसाधारण और साधक के खोने में अंतर है। साधक जब खोता है, तो वहाँ दिव्यता घटित होती है, वह परमसत्ता से मिलन का एक सोपान बन जाता है, किंतु सामान्य व्यक्ति में जब इस प्रकार की कोई क्रिया दृश्यमान होती है तो इसका यह अर्थ हुआ कि वह भौतिकता के दलदल में फँसा हुआ है। यह भौतिक चिंता और चिंतन का परिणाम ही है, जो उसे चरम लक्ष्य से दूर ले जाता है। ध्यान उस दूरी को घटाने और चिंताओं एवं उलझनों से ग्रसित मन को शाँति का शीतल अनुभव कराने का एक माध्यम है।

चलता−फिरता ध्यान यों कहने− सुनने में कुछ अटपटा प्रतीत होता है, पर यह सत्य है कि चलते हुए भी ध्यान किया जा सकता है। बैठकर ध्यान करने के लिए किसी एकाँत स्थान का चयन करना पड़ता है। अस्थिर ध्यान की प्रक्रिया कुछ दूसरी है। उसमें व्यक्ति टहलता रहता है, आँखें खुली होती हैं, किंतु मन कुछ विशिष्ट बिंदुओं पर स्थिर होता है। वह स्थिरता ही यहाँ अभीष्ट है। शरीर गतिशील हो, अंग−अवयव हिलते−डुलते रहें, किंतु मन अचंचल रहे। यह मानसिक अचंचलता हर कदम के साथ जुड़ी हुई हो और हर चरण शाँति और आनंद की अनुभूति से ओतप्रोत हो, इसकी उपलब्धि ही इस ध्यान का वास्तविक उद्देश्य है। दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि इसके माध्यम से व्यक्ति को एक बार फिर से चलना सिखाया जाता है, ऐसा चलना, जो तनाव और अशाँति को भगाता हो और प्रफुल्लतादायक हो। बचपन में बालक जब चलना प्रारंभ करता है, तो उसके कदम लड़खड़ाते हैं और पाँव धरती पर मजबूती से नहीं टिक पाते। ध्यान की इस प्रक्रिया में व्यक्ति दृढ़तापूर्वक चलता तो है, पर उसका मन डगमगाता रहता है। इस असंतुलन को दूर कर योगी जैसी मनः स्थिति प्राप्त करना ही इसका मुख्य प्रयोजन है।

आज का जीवन कितना जटिल है, उसमें कितनी उलझनें और अशाँति है, उसमें कैसी−कैसी तकलीफें और मुश्किलें हैं, वह किस कदर तनावयुक्त है और कितना विद्रूप हो चला है। यदि किसी को दिव्य दृष्टि मिल सकी होती, तो वह देख पाता कि मनुष्य का हर कदम पीड़ा की कैसी अकुलाहट से भरा है, वह अपने ही पदचिह्नों में किस प्रकार उसके निशान छोड़ रहा है, उस निशान में कितनी निराशा, कितना भय, कितना संत्रास और कैसी व्याकुलता है, इसे वह भली भाँति पहचान पाता। इसलिए यह आवश्यक है कि हमारा हर पग प्रसन्नता का प्रतीक बन जाए, उसमें पीड़ा का अंश−अवशेष न बचे। इसके लिए हमें चलना सीखना पड़ेगा और वह विधा समझनी पड़ेगी कि अपने प्रत्येक कदम के साथ चिंतामुक्त और तनावरहित कैसे बनते चलें और दिव्य शाँति एवं समरसता को किस भाँति प्राप्त करें। सचल ध्यान इसी रहस्य को उजागर करने वाली एक प्रणाली है। इसकी प्रक्रिया क्या है? इसे समझाते हुए थिकन्हाट हान्ह अपनी पुस्तक ‘ए गाइड टु वाकिंग मेडिटेशन’ में लिखते हैं कि सर्वप्रथम इसके लिए एक उपयुक्त स्थान का चुनाव करना पड़ता है। यह कोई आवागमनरहित रोड, पार्क, उपवन, वन, समुद्री किनारा, नदी तट या मकान की छत हो सकता है। इस प्रकार की जगहें ऐसे अभ्यास के लिए आदर्श मानी जाती हैं, किंतु जहाँ इनमें से कोई उपलब्ध न हो, वहाँ सुविधानुसार शाँत, एकाँत स्थान का चयन किया जा सकता है। स्थान−निर्धारण के संबंध में जिस एक बात का विशेष ध्यान रखना पड़ता है, वह यह है कि वह बहुत अधिक ऊबड़−खाबड़, चढ़ाई युक्त या ढलवाँ स्थान न हो। वह समतल और सपाट होना चाहिए।

समय के संबंध में इतना ही कहना पर्याप्त होगा कि आध्यात्मिक प्रयोजनों के लिए ब्राह्ममुहूर्त का समय सबसे अनुकूल माना गया है, फिर भी इस संदर्भ में किसी प्रकार का कोई दुराग्रह नहीं है। प्रातः का समय किसी कारणवश असुविधाजनक हो, तो सायंकाल को इसके लिए चुना जा सकता है। दोपहर की खुली धूप में एकाग्रता संबंधी कोई भी अभ्यास असंभव है, अतएव उक्त साधना के लिए कोई छायादार स्थान चुनना चाहिए, ताकि धूप की प्रचंडता या गरमी की उग्रता उसमें बाधक न बने।

अब टहलने की क्रिया शुरू करनी चाहिए। यह कार्य सामान्य भ्रमण से कुछ भिन्न है। टहलने में मुख्य उद्देश्य स्वास्थ्य−संवर्द्धन होता है, पर यहाँ उसका प्रयोजन सिर्फ ध्यान है, इसे हर अभ्यासी को हृदयंगम कर लेना चाहिए। कहना न होगा कि यहाँ भी स्वास्थ्य लाभ होता है, परंतु यह यहाँ गौण है। हमारा लक्ष्य हर हालत में केवल ध्यान होना चाहिए। चला धीमी रखें और मन को अपने कदमों पर एकाग्र करें। हर पग के प्रति हम सजग हों, इसका विशेष ध्यान रहे। सीधे आगे बढ़े। इस अग्रगमन के साथ प्रसन्नता और शाँति का भाव अविच्छिन्न रूप से जुड़ा हुआ हो। अब हर कदम के साथ धरती पर बनने वाले पदचिह्न की कल्पना करें। उसमें शीतलता, आनंद और उल्लास की झाँकी करें। हमारी चाल किसी महापुरुष की भाँति हो। जिस प्रकार महापुरुषों के रोम−रोम और कदम−कदम से उत्फुल्लता टपकती है, कुछ वैसा ही अनुभव यहाँ करना पड़ता है। यही जीवन है। तनावयुक्त पग तो हमें महामरण की ओर ले जाते हैं।

इसके अगले चरण में साँस पर ध्यान दें। सजगतापूर्वक श्वास लेना उस साँस से बिलकुल भिन्न है, जो नैसर्गिक रूप से चलती रहती है और जिसके प्रति आदमी जागरुक नहीं होता। सावधान रहते हुए इस बात पर गौर करें कि साँस लेते समय कितने कदम चले गए और साँस छोड़ते समय कितने। श्वास−प्रश्वास को नियंत्रित करने की कोशिश न करें। उसे सहज रूप से चलने दें। इस प्रकार साँस और कदमों के मध्य एक संबंध स्थापित हो जाएगा। इस संबंध से दोनों पर एक साथ नजर रख सकना सरल हो जाता है और अभ्यासी दोनों के प्रति जागरुक बना रहता है। चेहरे की मद मुसकान इस प्रक्रिया को और अधिक सुखद और शाँतिदायक बनाता है। इस प्रकार कई दिनों के गंभीर अभ्यास के उपरांत चारों तत्त्वों−साँस, साँस की गिनती, पग तथा मुस्कान का संतुलित समन्वय हो जाता है। चारों मिलकर एक हो जाते हैं। यह ‘समचित्तता’ है, जो कठोर अभ्यास से ही आ पाती है। एक बार यह अवस्था प्राप्त कर लेने के बाद फिर आगे कठिनाई नहीं रह जाती और सब कुछ बड़ी सहजता से अनायास होता चलता है।

शुरू में नए−नए अभ्यासी को यह काफी कठिन प्रतीत होता है। ऐसा लगता है, मानो एकदम असंभव कार्य हो, पर जैसे−जैसे अभ्यास बढ़ता जाता है, वह आसान बनता जाता है और अंत में चरम अवस्था उपलब्ध हो जाती है। इस चरमावस्था की प्राप्ति ही यहाँ अभीष्ट है। इसके फलस्वरूप व्यक्तित्व में धैर्य, स्थिरता, शाँति, सहजता जैसे तत्वों का जो अवतरण होता है, उससे उसमें और अधिक गहराई आ जाती है, उथलापन समाप्त होता है एवं साधक की महानता की दिशा में बढ़ चलने की मनोभूमि तैयार हो जाती है। साधना की उच्चतर अवस्थाओं को प्राप्त करने के इच्छुक साधकों के लिए यह आरंभिक अभ्यास अतीव उपयोगी साबित हो सकता है, इसमें रत्ती भर भी संदेह की गुंजाइश नहीं।

आरंभ में पदों की गणना में संभव है कि सांसों पर से ध्यान हट जाए और श्वास पर ध्यान टिकाने से पग−संख्या विस्मृत हो जाए। इस समस्या का हल सतत अभ्यास है। इसके बाद ‘समचित्तता’ का आविर्भाव होता है। इसके उपलब्ध होने पर भीड़−भड़क्का, जनसंकुलता भी प्रायः उसमें बाधक नहीं बनती हैं और यह क्रिया किसी स्वसंचालित प्रक्रिया की तरह अपने आप चलती रहती है।

चलता−फिरता सचल ध्यान एक उपयोगी अभ्यास है। इसके माध्यम से वही लाभ हस्तगत किए जा सकते हैं, जो बैठकर ध्यान करने से प्राप्त होते हैं। यह बौद्ध परंपरा की अनूठी खोज है। इससे हम सबको लाभान्वित होना चाहिए।


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