युग-पीर (kavita)

October 2001

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खा गया है बहुत से इतिहास−पृष्ठों को अहं। और काले कर गया है, कई पृष्ठों को अहं॥

अन्यथा इतिहास को मिलते मनीषी और भी। त्याग के इतिहास को मिलते दधीची और भी। दे गया, कुछ रक्त प्यासे−क्रूर दुष्टों को अहं॥

पृष्ठ गौतम और गाँधी के न फिर से जुड़ सके। शिवा, राणा और भामाशाह फिर कब मिल सके। दे गया जयचंद्र, मानसिंह से निकृष्टों को अहं॥

हुए श्रद्धानंद, भगतसिंह फिर न पैदा राष्ट्र में। लक्ष्मी, दुर्गा, कमलापति सी वीरभद्रा राष्ट्र में। कर गया पैदा विलासी कई धृष्टों को अहं॥

राष्ट्र पुरोहित आदि शंकर, दयानंद से फिर नहीं। रुक गया क्यों, राष्ट्र जाग्रत बनाने का क्रम कहीं। जनक है पाखंडियों का और भ्रष्टों का अहं॥

अन्यथा इतिहास ही कुछ और होता राष्ट्र का ब्रह्मवर्चस, छात्रबल सिरमौर होता राष्ट्र का। कर गया चट, त्याग, तप, उत्सर्ग रिश्तों को अहं॥

व्यक्तिगत सारा अहं अब हो समर्पित राष्ट्र को। चंद्रगुप्त चाणक्य का हो युग्म अर्पित राष्ट्र को। राष्ट्रहित में गल, गला दे सब अनिष्टों को अहं॥

—मंगल विजय (विजयवर्गीय)

*समाप्त*


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