नेमिकुमार जी प्रसिद्ध जैन मुनि हुए हैं, तब युवा थे। विवाह हो रहा था। बंधु−बाँधवों एवं अभ्यागतों से भरे−पूरे घर में महोत्सव की घोषणा की जा रही थी। बारात निकाली जा रही थी। वहीं वर महाशय जी अपनी जीवनसंगिनी राजुल की सुखद कल्पना में खोए हुए थे। एकाएक पशुओं की चीत्कार सुनकर स्वप्न भंग हुआ और सारथी से पूछा, खुशी के इस क्षण में यह आर्तनाद कैसा? सारथी ने बताया, “कुमार! विवाह में शामिल म्लेच्छ राजाओं के भोज के लिए पशुओं का वध होना है, सो ठहात्, उन्हें बलपूर्वक लिए जाया जा रहा है।”
कुमार ने यह सुनकर आहत अनुभव किया। रथ रुकवाया उतरे और खुद पशुओं के पास जाकर उनके बंधन खोलने लगे। अपने हाथ का कंगन भी खोल डाला और वहाँ से निकल पड़े। बारातीगण मूकद्रष्टा बने रहे। अब वे बाहर−भीतर की सारी गाँठें खोलकर परम निर्ग्रथ हो गए। भोग से योग की ओर उन्मुख हो गए। सौभाग्यशाली राजुल भी दुल्हन का शृंगार उतारकर श्वेत वस्त्र पहने मुनि नेमिकुमार का अनुसरण कर जीवन के चरम फल की प्राप्ति के लिए गिरनार पर्वत की ओर बढ़ चली।