अंतः ऊर्जा जागरण के विशिष्ट सत्र इसी माह से

October 2001

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अंतः भूमि का परिमार्जन इस स्तर का जहाँ दिव्य विभूतियों का अवतरण हो सके, वे स्थिर रूप से निवास कर सकें तथा समर्थ मार्गदर्शन की उपलब्धि, यह दो अनुदान जिस किसी को भी प्राप्त होते हैं, वे आत्मिक प्रगति के पथ पर सुनिश्चित गति से सफलतापूर्वक चल पड़ते हैं। परमपूज्य गुरुदेव को दोनों ही उपलब्धियाँ मिली एवं वे तप के आधार पर एक विराट् संगठन खड़ा कर सके।

अपनी एकवर्षीय हिमालय साधना में बीच में विराम लेकर परमपूज्य गुरुदेव फरवरी 1972 में एकाएक कुछ दिनों के लिए शांतिकुंज हरिद्वार वापस लौटे एवं परिजनों ने अप्रैल 1972 की ‘अखण्ड ज्योति’ के संपादकीय में पढ़ा ‘गुरुदेव क्यों आए? क्यों चले गए?’ तब उन्हें विदित हुआ कि हमारी गुरुसत्ता की यह साधना और उसके लीला उपक्रम के पीछे छिपे गूढ़ रहस्य क्या हैं! परमवंदनीया माताजी की वेदना पूज्यवर से देखी नहीं गई। बिना तार के, संदेश के परावाणी से भेजी पाती उन तक पहुँची एवं उनके हृदयावरोध के कष्ट के दौरान वे शाँतिकुँज कुछ दिनों के लिए आ गए। कई विषयों पर उन्होंने परमवंदनीया माताजी से चर्चा की, जो अपने आराध्य के आते ही स्वस्थ हो गई थी। परिजनों को जिज्ञासा थी, क्योंकि पूज्यवर पुनः वापस चले भी गए थे कि क्या−क्या निर्देश वे दे गए हैं। इसी को दृष्टिगत रख मई 1972 का पूरा अंक इसी को समर्पित हो प्रकाशित हुआ कि इस संक्षिप्त−सी अवधि में क्या−क्या निर्धारण हुआ।

प्राण−प्रत्यावर्तन सत्रों की वह निराली शृंखला

इस मई अंक में यह महत्त्वपूर्ण निर्धारण प्रस्तुत किया गया कि अब शाँतिकुँज से अनुदान वितरण, शक्ति हस्ताँतरण, प्राण−प्रत्यावर्तन का क्रम आरंभ होगा। प्रत्यावर्तन शब्द तब नया था। कई उसका अर्थ भी नहीं जानते थे। इसी मई अंक में समझाया गया कि अपनी शक्ति को दूसरे में सीधे प्रविष्ट करा देने की प्रक्रिया ही वस्तुतः प्रत्यावर्तन है। लोगों ने उसे पढ़ लिया, इसकी व्याख्या समझ ली, पर जब उनके पास जुलाई 1972 की अखण्ड ज्योति पहुँची व उसमें उनने ‘अपनों से अपनी बात’ के रूप में पढ़ा। “प्रत्यावर्तन की पात्रता विकसित की जाए” तब उन्हें गंभीरता समझ में आई। यह भी जानकारी मिली कि गुरुदेव बीच−बीच में आते रहेंगे एवं अब कुछ विशिष्ट होने जा रहा है। उसमें परमवंदनीय माता जी ने लिखा कि “युगनिर्माण अभियान यों एक आँदोलन सरीखा दिखता है, पर वस्तुतः वह युग−साधना है। यदि आध्यात्मिक दृष्टि से देखा जाए तो उसे विशुद्ध योग−साधना एवं तपश्चर्या ही कहा जा सकता है। बड़े आदमी बनने की फसल चली गई। अब अमीरी को बड़प्पन के रूप में देखना बेकार है। अब समय महानता की गौरवगरिमा बढ़ने का आ गया है। इसे कार्यरूप में परिणत कैसे किया जाए, उसी का मार्गदर्शन युग−साधना करती है। प्रत्यावर्तन की पात्रता और पृष्ठभूमि यही है।” (पृष्ठ 63-64)

प्रस्तुत भूमिका इसीलिए दी जा रही है कि हमारे आज के परिजन युग−साधना को, इस हीरक जयंती वर्ष में चल रहे साधना आँदोलन को तथा शाँतिकुँज के इतिहास के एक मील के पत्थर को आज अट्ठाइस वर्ष बाद पुनः समझ सकें, आज की आवश्यकता से अवगत हो सकें कि वैसी ही इसी स्तर की पुनरावृत्ति की आवश्यकता क्यों आ पड़ी है। मई 1973 की अखण्ड ज्योति में प्राण−प्रत्यावर्तन साधना की सत्र−शृंखला का विस्तृत विवरण छपा तथा जून 1973 का पूरा अंक प्राण−प्रत्यावर्तन−साधना विशेषाँक के रूप में प्रकाशित हुआ। यह साधना निताँत मौन एकाकी साधना थी। चार दिनों में प्रतिदिन छह घंटे की साधना सभी से कराई गई। साधक अंतर्मुखी हो सकें, इसके लिए उन्हें छोटी कोठरियाँ सुलभ कराई गई। उपासनापद्धति में शिथिलीकरण मुद्रा, उन्मनी मुद्रा, खेचरी मुद्रा, गायत्री जप, सोऽहम् साधना, बिंदुयोग, लययोग, तत्त्वबोध, नादयोग, दो बार के दस साधनाक्रमों का समावेश किया गया। अंतः करण की भावभूमिका को उच्चस्तरीय बना देना ही इसका प्रधान लक्ष्य था। आत्मशोधन की प्रायश्चित प्रक्रिया को प्रथम दिन महत्वपूर्ण स्थान दिया गया, जिसे पूज्यवर स्वयं व्यक्तिगत परामर्श के लिए मिले 15 मिनट के समय में संपन्न करते थे। बीच में दर्पण−साधना के दौरान भावभरे गीत टेपरिकॉर्डर से साधकों को सुनाए जाते थे तथा इन्हें सुनकर वे हलके ही नहीं होते, आत्मबोध की साधना भी कर पाते थे। एक घंटे का प्रवचन दो खंडों में सुनाया जाता था। इस समग्र दस सूत्री साधनापद्धति से भरा शिक्षण यद्यपि कुछ साधक (तीस से चालीस अधिकतम) पूरे शाँतिकुँज में रहकर करते रहे, पर जिनने भी इसमें भागीदारी की, वे आज तक अपना सौभाग्य सराहते हैं, उन दिनों की याद करते हैं। उन दिनों शाँतिकुँज छोटा था, पर्यटकों को आने की सख्त मनाही थी एवं कमरे भी गिने−चुने थे। सारा वातावरण साधनामय था। कुछ माह यह क्रम चलने के बाद सौभाग्यशाली एक हजार प्राणवान साधकों को प्राण अनुदान वितरण करने के बाद अन्य अनेक प्रकार के सत्र यहाँ चलने लगे, भवन का विस्तार होता चला गया एवं आज की इस स्थिति में आ पाया, जहाँ हम शाँतिकुँज का एक विराट् विस्तार देखते हैं।

नए निर्धारण—अंतः ऊर्जा जागरण सत्र

अब इस हीरक जयंती वर्ष में पुनः साधना आँदोलन को गतिशील करने के लिए उसी स्तर की क्रियाप्रणाली अपनाने हेतु विशिष्ट ‘अंतः ऊर्जा जागरण सत्रों’ की एक शृंखला 26 अक्टूबर 2001 नवरात्रि समापन के अगले दिन से आरंभ की जा रही है। ये शिविर पाँच दिवसीय होंगे एवं लक्ष्य एक ही होगा कि इसमें भागीदारी करने वाले प्राणवान−विभूतिवान बनकर समाज के लिए उपयोगी बन सकें, नवयुग की वेला में सच्चे साधक बनकर नेतृत्व कर सकें। सही अर्थों में अगले दिनों वे ही मार्गदर्शक कहलाएँगे, लोग उनकी ही सुनेंगे, जो सबसे पहले साधक होंगे। इसी उद्देश्य से प्राण−प्रत्यावर्तन स्तर की यह साधना अंतः ऊर्जा जागरण के पाँच−पाँच दिवसीय सत्रों के रूप में आरंभ की जा रही है। कुल उपलब्ध कक्ष 70 हैं, जिन्हें इस साधना के लिए विशेष रूप से तैयार किया गया है। प्रत्येक में एक साधक अकेले रह सकेंगे। इनमें स्पीकर लगाए गए हैं। प्रज्ञापेय, सात्विक आहार आदि की व्यवस्था भी प्रत्येक के कक्ष में ही की जा रही है। कुल 72 कक्षों की (जिनमें शौच−स्नान आदि की सुविधा अलग से कमरों के साथ ही है। त्रिपदा की नवनिर्मित इस पूरी बिल्डिंग को साधनामय वातावरण दिया जाएगा। दो कक्ष केयर टेकर्स, समस्याएँ आने पर संदेशवाहक के रूप में वरिष्ठ बंधुओं तक चिट्ठी पहुँचाने एवं साहित्य, पूजन सामग्री आदि के लिए सुरक्षित रखे गए हैं।

मत्स्यावतार की तरह विराट् रूप ले रहे इस मिशन गायत्री परिवार के कई परिजन ऐसी साधना में भागीदारी करना चाहेंगे। हम 26 अक्टूबर से आरंभ कर 10 अप्रैल 2002 तक मात्र तैंतीस सत्र 5-5 दिन के चला पाएँगे। इस बीच 17 फरवरी 2002 के वसंत पर्व के कारण संभव है एक शिविर स्थगित भी करना पड़े। किंतु नियमित रूप से नवंबर, दिसंबर (2001), जनवरी, फरवरी, मार्च (2002) में 1 से 5, 3 से 10, 11 से 15, 16 से 20, 21 से 25, 26, से 30 की अवधि में दो ही सत्र हो पाएँगे। चैत्र नवरात्रि 13 अप्रैल से आरंभ हो जाएगी। इस प्रकार तैंतीस हुए तो कुल 2310 एवं बत्तीस सत्र (वसंत के वैकल्पिक अवकाश के कारण) हुए तो कुल 2240 साधक ही भागीदारी कर पाएँगे। शेष सभी सत्र 1 से 1, 11 से 19, 21 से 29 के नौ दिवसीय संजीवनी साधना सत्र, 1 से 29 की अवधि में चलने वाले एक मास के युगशिल्पी कार्यकर्त्ता सत्र, परिव्राजक सत्र, रचनात्मक प्रशिक्षण सत्र, विशिष्ट व्यक्तित्व परिष्कार सत्र यथावत् चलते रहेंगे, इसलिए स्थान वृद्धि की कोई गुँजाइश नहीं है। यही क्रम 2002 की आश्विन नवरात्रि के बाद 16 अक्टूबर से आरंभ कर 2003 की 31 मार्च तक चलाएँगे। इसमें भी तैंतीस या बत्तीस (6 फरवरी 2003 की बसंत पंचमी के कारण) सत्र ही हो पाएँगे। यह शृंखला आगामी चार वर्ष तक चलती रहेगी एवं दस हजार से अधिक प्राणवान कार्यकर्त्ताओं को प्राणवान−ऊर्जावान बनाती रहेगी। संभव है तब स्थान और अधिक बढ़ जाए, संख्या बढ़ाई भी जा सकती है।

अपेक्षाकृत गंभीर साधना उपक्रम है यह

स्थान सीमित, संख्या निर्धारित एवं पूरे पाँच दिन निताँत मौन, यह क्रम बनने पर विशेष निरीक्षण, जाँच−पड़ताल के बाद ही सत्रों में प्रवेश दिया जा रहा है। 16 अगस्त 2001 के पाक्षिक में परिजन विस्तार से पढ़ चुके होंगे कि इन सत्रों का क्रम व दिनचर्या आदि क्या होगी? प्रस्तुत शिविर उच्चस्तरीय सूक्ष्मशक्ति−प्रवाह से साधकों को जोड़ने एवं उनके अंदर की आध्यात्मिक ऊर्जा को जगाने के लिए आयोजित किए जा रहे हैं। आत्मशक्ति परिष्कृत होगी, तो ही वह शक्ति−प्रवाह उनके अंदर अवतरित हो सकेगा। इसीलिए अपेक्षाकृत गंभीर साधनात्मक अभ्यास इसमें रखे गए हैं। यहाँ साधकों को प्रायश्चित कर्म अपनी ही भाव−भूमिका में करना है। साक्षी सूक्ष्म रूप में विराजमान गुरुसत्ता को बनाना है। अपनी पापकर्मों का लेखा−जोखा प्राण प्रत्यावर्तन की तरह लिखकर नहीं देना है। परमपूज्य गुरुदेव एवं परमवंदनीया माताजी स्तर की दिव्य शक्तिमान सत्ता ही उन्हें झेल पाती थी। शाँतिकुँज एक जाग्रत् चैतन्य तीर्थ है, लाल मशाल हम सबकी मार्गदर्शिका है, संघ शक्ति के हम प्रवर्त्तक हैं। अतः कोई भी इन सत्रों को पूर्व के प्राण−प्रत्यावर्तन सत्रों से न जोड़े। प्रेरणा उन सत्रों से अवश्य ली गई है, पर अनुशासन अपने स्तर पर आज की परिस्थितियों के अनुरूप बनाए गए हैं।

विशिष्ट सत्रों के कड़े अनुशासन

सभी साधक जिन्हें पूरी जाँच के बाद स्वीकृति भेजी जाएगी, प्रत्यक्ष साक्षात्कार में उपयुक्त पाया जाएगा, निर्धारित सत्र की पूर्व संध्या में पहुँचकर अपना स्थान ले लेंगे, विधिवत साधना संकल्प प्रातः 5 से 6.30 कराया जाएगा, ताकि रात्रि देर से आने वाले भी भागीदारी कर सकें। जो पूर्व संध्या को आ जाएँगे, वे आवश्यक सामग्री प्राप्त करेंगे, साधना निर्देश पुस्तिका पढ़ेंगे, पंजीयन कराएँगे एवं अपने निर्धारित कक्ष में पहुँच जाएँगे। साधना प्रारंभ होने से समापन तक साधकों को मौन, एकाँत सेवन करते हुए अंतर्मुखी रहना होगा। मात्र अखण्ड दीपक−दर्शन एवं यज्ञ के समय वे कक्ष के बाहर निकल सकेंगे। साधना−स्वाध्याय हेतु निर्धारित पुस्तकें ही दी जाएँगी। शेष समय अंतः चेतना की गहराइयों में उतरने एवं अंतर्मुखी गहन चिंतन−मनन हेतु लगाना होगा। पढ़ने के लिए पूरी साधनावधि तक समाचार पत्र, अन्य कोई साहित्य उपलब्ध नहीं होगा। भोजन, गंगाजल एवं प्रज्ञापेय साधना कक्षा में ही दोनों समय पहुँचा दिए जाएँगे। भोजन में हविष्यान्न की एक रोटी, औषधियों की चटनी एवं साधक की इच्छानुसार चावल या दलिया की सब्जी मिश्रित खिचड़ी दी जाएगी। अन्य कोई पदार्थ सेवन नहीं कर सकेंगे। जप की संख्या पर कोई प्रतिबंध न होगा। संख्या की जगह सामूहिक ध्यान सहित उसकी गहराई और बढ़ाने, भावविह्वल होकर जप करने पर अधिक जोर दिया जाएगा।

लगभग छह घंटे विशिष्ट साधनाओं में, दो समय के 30-30 मिनट के प्रवचन में तथा 30-30 मिनट के इसी विषय पर मनन−चिंतन में लगेंगे। औसत दो घंटे स्वाध्याय−मनन−चिंतन हेतु होंगे। साधक अपनी विशिष्ट अनुभूतियों को लिख सकेंगे। बाद में इस आधार पर परामर्श एवं जिज्ञासा−समाधान भी पत्र द्वारा प्राप्त कर सकेंगे। समापन पर वे युगधर्म के परिपालन के क्रम में अपने अंदर उभरे संकल्प भी लिखकर देंगे। इनका भी विधिवत संकल्प कराया जाएगा। साधना समाप्ति के बाद कुछ ही घंटों में स्थान खाली कर देना होगा, ताकि वह अगले सत्र के साधकों को उपलब्ध कराया जा सके। रुकना अनिवार्य हो तो पूर्व अनुमति लेकर आश्रम में कहीं और स्थान प्राप्त कर सकेंगे। वे अपने साथ किसी ऐसे साथी को भी नहीं लाएँगे, जिसे अलग न ठहराया जा सके या उसकी देखभाल की चिंता अलग न ठहराया जा सके या उसकी देखभाल की चिंता करनी पड़े। गंभीर व्याधि से पीड़ित कोई परिजन आवेदन न भेजें। जो साधक निर्धारित अनुशासन न निभा सकें, अकेले अपने कार्य स्वयं न कर सकें तथा एक कक्ष में अकेले न रह सकें, वे आवेदन न करें।

आवेदन कैसे भेजें

आवेदन पत्र में अपना नाम, पूरा पता, फोन नंबर आदि, जन्मतिथि, शिक्षा एवं योग्यता, दीक्षा कब−कहाँ ली, उपासना−साधना का नियमित क्रम, शाँतिकुँज, गायत्री तपोभूमि मथुरा में किए गए सत्र (सभी का स्मृति के अनुसार विवरण), अपने स्तर पर किए गए अनुष्ठान, समयदान एवं अंशदान का क्रम तथा समयदान के अंतर्गत किए गए उल्लेखनीय सप्त आँदोलनपरक या अन्य कोई सेवाकार्यों का विवरण लिख भेजें। साथ ही एक वर्तमान समय का पासपोर्ट साइज का फोटो भी भेजें। अनुमति मिलने पर ही आएँ।

समय विभाजन चक्र ऐसे होगा

प्रातः चार बजे जागरण के साथ ऊषापान का क्रम है। साउंड सिस्टम से कक्ष में ही यह व्यवस्था है। 4.05 से 4.15 आत्मबोध की साधना कैसेट द्वारा होती है 4.15 से 5.15 नित्य कर्म, व्यायाम, शिथिलीकरण निर्देशानुसार हलके वाद्य संगीत के साथ संपन्न होगा।

5.15 से 5.45 सामूहिक ध्यान पूज्यवर की वाणी में सभी अपने−अपने कक्ष में करेंगे। 5.45 से 6.00 प्राणसंचार प्राणायाम एवं 6 से 6.30 अमृतवाणी के साथ मनन−चिंतन का क्रम है।

6.30 से 7.00 कल्कसेवन कक्ष में एवं फिर पंक्तिबद्ध होकर मौन रहकर अखण्ड दीप दर्शन, पृथक यज्ञशाला में यज्ञ तथा फिर कक्ष में प्रज्ञापेय का क्रम है। मार्गदर्शक साथ रहेंगे।

8 से 8.45 मंत्र जप, सूर्यार्घदान, 8.45 से 9.30 सोऽहम् साधना तथा 9.30 से 10.00 नादयोग साधना का क्रम है। निर्देश कक्ष में ही मिलेंगे।

10 से 12 भोजन, विश्राम, कक्ष की स्वच्छता के लिए निर्धारित है। इस बीच वाद्य संगीत बजता रहेगा।

12 से 12.45 स्वाध्याय, मनन−चिंतन, 12.45 से अनुलोम−विलोम प्राणायाम, 13 से 13.30 जपयोग तथा 13.30 से 14.00 बिंदु योग अंतः त्राटक (दीपक की ज्योति) हेतु निर्धारित है।

14 से 14-45 आत्मदेव दर्पण साधना, 14.45 से 15.15 नादयोग की द्वितीय चरण की साधना के लिए है। 15.15 से 16.00 प्रज्ञापेय का अवकाश है, जो कक्ष में ही उपलब्ध होगा।

16 से 17 स्वच्छता−स्वाध्याय का क्रम रहेगा। अपना कक्ष साफ करेंगे, संगीत चलता रहेगा। 17 से 17.15 नाड़ी शोधन प्राणायाम 17.15 से 17.30 अमृतवाणी एवं 17.30 से 18 खेचरी मुद्रा का क्रम चलेगा।

12.00 से 19.15 से पुनः नादयोग की तृतीय चरण की साधना होगी। 18.15 से 19.00 भोजन के लिए सुरक्षित है। 19.00 से 19.30 सहज लयबद्ध श्वास−प्रश्वास का क्रम होगा।

19.30 से 20.15 स्वाध्याय, मनन−चिंतन हेतु रखा गया है तथा 20.15 से 20.50 तत्त्वबोध साधना (निर्देशों द्वारा) संपन्न होकर साधकों को योगनिद्रा एवं विश्राम में चले जाना है।

इसमें मात्र पहले दिन कल्पसेवन के पूर्व साधना संकल्प कराया जाना है। 8 से 8.30 जप, सूर्यार्घ्य तथा 8.30 से 9.00 निष्कासन तप अंतः की भावभूमिका में संपन्न होना है। 9 से 9.30 सोऽहम् साधना के बाद शेष क्रम यथावत् रहेगा। दूसरे, तीसरे व चौथे दिन निर्धारित क्रम वही रहेगा, जो ऊपर दिया गया। पाँचवें दिन प्रातः 8 से 10 समापन गोष्ठी आत्मप्रेरित संकल्पों का क्रम होगा। 10 से भोजन के बाद 12 से 1.00 के क्रम में परमवंदनीया माताजी के कक्ष में श्रद्धेय शैल जीजी से मिलेंगे। अपराह्न 1.30 पर साधना कक्ष खाली कर देंगे। इसी दिन अगले सत्र के साधक आएँगे, अतः स्वच्छ स्थिति में छोड़ेंगे।

समझा जाना चाहिए कि इन विशिष्ट सत्रों के फलितार्थ कितने विशेष परिणाम वाले होंगे। आशा की जाती है कि ढेरों प्राणवान साधक ऊर्जा का जागरण कर जाएँगे एवं अपने क्षेत्र को सेवा−साधना को आलोकित करेंगे।


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