एक बार की बात है−एक विद्वान् लेखक जो नेता भी थे, गाँधी जी के आश्रम में आए। गाँधी जी से भेंट−परामर्श एवं शिष्टाचार संपन्न कर जब जाने लगे तो औपचारिकतावश कहा, “मेरे लायक कोई काम हो तो अवश्य बताएँ।” उनका अभिप्राय लेखक होने के कारण लेख आदि भेजने से था।
गाँधी जी ने कहा, “आश्रम को सेवाभावियों की बड़ी जरूरत है। यदि आपको अभी सेवा का समय हो तो काम बताऊँ?” उस सज्जन ने हामी भर दी। इस पर गाँधी जी उन्हें अपनी चक्की के पास ले गए और गेहूँ पीसने में लग जाने का संकेत किया और कहा, “सेवा के लिए मस्तिष्क ही काफी नहीं, उसमें शारीरिक श्रम का भी योगदान चाहिए।”