गाँधी जी के जीवन की एक घटना है। बात चंपारण जिले की है। गाँधी जी उस क्षेत्र में असहयोग आँदोलन का वातावरण बनाने के लिए गाँव−गाँव घूम रहे थे।
एक गाँव में उन्होंने पशुबलि का जुलूस निकलते देखा। देवी को बकरा चढ़ाने एक समूह गाता−बजाता जा रहा था।
गाँधी जी ने दृश्य देखा, तो उन्होंने एकत्रित लोगों को वैसा न करने के लिए समझाया। न माने तो नया प्रस्ताव रखा। पशु के रक्त से मनुष्य का रक्त उत्तम ही होगा। तुम लोग अपने देवता पर मेरी बलि चढ़ा दो। उन्होंने सिर नीचे झुका लिया और वहाँ जा खड़े हुए, जहाँ बकरा कटना था। सन्नाटा छा गया। ग्रामीण लौट गए। वस्तुस्थिति समझी गई और उस क्षेत्र से बलि प्रथा सदा के लिए बंद हो गई।
गैरीबाल्डी इटली के महान् सेनानी थे। एक दिन उनके मित्र एडमिरल उनके घर पहुँचे। उनके घर में प्रकाश की कोई व्यवस्था न थी, सो दीवार से टकराए और चोट लग गई। एडमिरल व्यंग्य तथा झुँझलाहट के स्वर में बोले, क्यों गैरीबाल्डी तुम प्रकाश का भी प्रबंध नहीं रख सकते? उसे चोट लगी जानकर गैरीबाल्डी ने प्रकाश का प्रबंध करना चाहा, परंतु वहाँ एक मोमबत्ती तक न थी। वह उठा और उँगली पकड़कर घर में ले आया फिर कहा−मित्र क्षमा करेंगे, युद्ध मंत्री से सेनापति का दायित्व प्राप्त करते समय भोजन के अतिरिक्त मोमबत्तियों की व्यवस्था के लिए कोई धन मिलने की बातचीत नहीं हुई थी। खैर कोई बात नहीं, हम लोग अँधेरे में भी बात−चीत कर सकते हैं।
भेंट−वार्त्ता करने के बाद एडमिरल तत्कालीन युद्ध मंत्री के पास पहुँचे तथा गैरीबाल्डी के लिए पर्याप्त धन पहुँचा दिया। अगले दिन पत्नी ने पूछा कि क्या इन पैसों से कुछ मोमबत्तियाँ खरीद ली जाएँ। गैरीबाल्डी ने शाँत स्वर में उत्तर दिया, बिलकुल नहीं। हमें इस राशि से अपने लिए मोमबत्ती खरीदने का कोई आदेश नहीं मिला है। सारा धन सैनिकों में बँटवा दिया गया। ऐसी होती है प्रामाणिकता की कसौटी पर कसी गई नीतिनिष्ठा।