सबसे बड़ी भूल ‘मैं’ का होना है। ‘मैं’ से बड़ी भूल और कोई भी नहीं। परमात्मा के मार्ग में यही सबसे बड़ी बाधा है। साधना पथ का यही महा अवरोध है। जो इस अवरोध को पार नहीं करते, सत्य के मार्ग पर उनकी कोई गति नहीं होती।
सूफी फकीर बायज़ीद एक गाँव से होकर गुजर रहे थे। उनके एक मित्र साधु भी उन दिनों उसी गाँव में रह रहे थे। उन्होंने सोचा जब यहाँ से गुजर रहा हूँ, तो अपने मित्र से भी मुलाकात करता चलूँ। चलते-चलते पथ की थकान भी हो आयी थी। रात भी आधी हो चली थी। थकान भी मिटेगी, रात्रि विश्राम भी हो जाएगा और साथ ही मित्र से मुलाकात भी।
इसी चाहत में उन्होंने एक बन्द खिड़की से प्रकाश को आते देख द्वार खटखटाया। भीतर से आवाज आयी-”कौन है?” उन्होंने यह सोचा कि उन्हें तो अपनी आवाज से ही पहचान लिया जाएगा। कहा-’मैं’। लेकिन भीतर से कोई भी उधर नहीं आया। फकीर बायज़ीद ने बार-बार द्वार पर दस्तक दी, पर कोई उत्तर न आया।
अब तो ऐसा लगने लगा कि जैसे यह घर बिलकुल निर्जन है। उन्होंने जोर से कहा-”मित्र, तुम मेरे लिए द्वार क्यों नहीं खोल रहे हो और चुप क्यों हो गए?” भीतर से कहा गया-”भला यह कौन नासमझ है, जो स्वयं को ‘मैं’ कहता है; क्योंकि ‘मैं’ कहने का अधिकार सिवाय परमात्मा के और किसी को भी नहीं है।”
सूफी फकीर बायज़ीद को अपनी भूल का अहसास हो गया। उन्होंने तत्क्षण यह सत्य अन्तरतम की गहराइयों में अनुभव कर लिया कि जीवन की सबसे बड़ी भूल ‘मैं’ के सिवा और कुछ भी नहीं। प्रभु के द्वार हमारे ‘मैं’ का ही ताला है। जो उसे तोड़ देते हैं, वे पाते हैं द्वार तो सदा से ही खुले थे। ‘मैं’ मिटा कि प्रभु प्रकट हुए। ‘मैं’ की क्षुद्रता विलीन हुई कि परमात्मा की महानता आप ही अपनी सम्पदा बन गयी। इस सबसे बड़ी ‘मैं’ पन की भूल को जो सुधार लेता है वह जीवन के सत्य को पा जाता है।