यम−नियम अष्टाँग योग के प्रारंभिक चरण हैं। जिस तरह अक्षर−ज्ञान के बिना बालक के लिए पुस्तकों का पठन−पाठन असंभव है, उसी प्रकार योगाभ्यासियों के लिए यह दो अतीव महत्त्वपूर्ण सोपान हैं। इसमें प्रशिक्षित हुए बिना प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधि जैसी उच्चस्तरीय कक्षाओं में प्रवेश शक्य नहीं। इसलिए साधकों को सर्वप्रथम स्वयं को इनमें प्रशिक्षित करना पड़ता है, तब कहीं आगे के विकास की बात बनती है।
यम पाँच है, अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह। अहिंसा को आमतौर से किसी प्रकार की जीव−हत्या न करना माना जाता है, पर यहाँ अहिंसा का अर्थ इससे कहीं अधिक व्यापक और सूक्ष्म है। किसी प्राणी को मन, वचन या कर्म से किसी प्रकार पीड़ा पहुँचाना भी हिंसा है, अतएव योगमार्ग के साधकों को इन विधि−निषेधों का कठोरतापूर्वक पालन करना पड़ता है। योगसूत्र में व्यास जी ने कहा भी है—
“अहिंसा सर्वथा सर्वदा सर्वभूतानामनभिद्रोहः।”
अर्थात् सभी प्राणियों के प्रति हर प्रकार से विद्रोह भाव का परित्याग करना अहिंसा है। यह अहिंसा जाति, देश या काल के कारण सीमाबद्ध हो सकती है। उदाहरण के तौर पर मछुआरे को लिया जा सकता है। मछली मारना उसका धँधा है और जीविकोपार्जन का साधक भी, अतएव इसमें जीव−हिंसा होते हुए भी वह उसे नहीं छोड़ सकता, पर अन्य किसी प्रकार की हिंसा में वह लिप्त न हो, तो उसकी यह अहिंसा जातिगत कारणों द्वारा सीमाबद्ध हुई मानी जाएगी। अनेक लोग केवल तीर्थों में जाकर इस नियम का पालन करते हैं, जबकि अन्य जगहों पर हिंसा का त्याग नहीं कर पाते। ऐसी अहिंसा देश द्वारा सीमाबद्ध होती है। कई लोग पर्व−त्यौहारों के दिन ही यह अनुबंध अपनाते हैं इसलिए यह काल द्वारा सीमाबद्ध अहिंसा हुई। इसके अतिरिक्त भिन्न−भिन्न अवसरों पर अपनाई गई अहिंसा भी सीमाबद्ध हो सकती है, यथा सैनिकों द्वारा युद्ध−मोरचे को छोड़कर अन्यत्र इसका परिपालन करना, किसी व्यक्ति द्वारा आत्मरक्षार्थ अथवा दूसरे की रक्षार्थ बन पड़ी हिंसा के अतिरिक्त और समय में इससे परहेज करना आदि, किंतु जो साधक हैं और साधना मार्ग पर सफलतापूर्वक बढ़ना चाहते हैं, उनके लिए संपूर्ण अहिंसा व्रत का अनुपालन करना ही अभीष्ट होना चाहिए। इससे उनमें एक विशिष्ट सिद्धि आ जाती है। पातंजल योगसूत्र में लिखा है,
“अहिंसाप्रतिष्ठायाँ तत्सन्निधौ वैरत्यागः।” (2/35)
अर्थात् अहिंसा की पूर्णता और स्थिरता होने पर साधक के संपर्क में आने वाले सभी प्राणियों की हिंसा−बुद्धि दूर हो जाती है।
मन, वचन और कर्म में एकरूपता को ‘सत्य’ कहते हैं। यह सत्य भी समय और परिस्थिति को देखते हुए ही बोलने का निर्देश है। देश के रक्षक यदि गोपनीय सूचनाओं को शत्रुओं समक्ष प्रकट कर दें, तो इससे राष्ट्र−रक्षा को गंभीर खतरा पैदा हो जाएगा, अस्तु ऐसे सत्य को न प्रकट करना ही सबके हित में है।,
कथा प्रसिद्ध है कि एक बार एक कसाई अपनी बूढ़ी गाय को ढूंढ़ते हुए एक निर्जन स्थान से गुजरा। वहाँ एक ब्राह्मण वेद पाठ कर रहा था। कसाई ने उससे अपनी गाय के बारे में पूछा, तो उसने वस्तुस्थिति को भाँपते हुए उसका गोलमोल उत्तर दिया। कहा, जिसने देखा है, वह बोलती नहीं और जो बोलती है, उसने देखा नहीं। इससे एक साथ दो प्रयोजन सधे। गाय की प्राण−रक्षा हो गई, जो कि सत्य बोलने से शायद न हो पाती और दूसरा उसके मिथ्या न बोलने के संकल्प का निर्वाह हो गया।
ऐसे ही कठोर सत्य को न बोलने का निर्देश है। यदि अंधे को अंधा और लँगड़े, को लँगड़ा कह दिया जाए, तो यह सत्य होते हुए भी अपमानजनक संबोधन है। इसे गाली समझा जाता है, अतः ऐसे वचनों का शास्त्रों में निषेध किया गया है।
साधनाकाल में जो साधक इस सत्य तत्त्व पर पूर्णरूपेण प्रतिष्ठित हो जाता है, उसकी वाणी साधारण नहीं रह जाती, वह फलदायी हो जाती है। ऐसा व्यक्ति जो कुछ भी सोचता, विचारता या बोलता है, वह फलिता होने लगता है अर्थात् वह वाक्सिद्ध हो जाता है। इसी की ओर संकेत करते हुए पातंजल योगसूत्र कहता है, ‘सत्यप्रतिष्ठायाँ क्रियाफलाश्रयत्वम्।’ (2/36) अर्थात् सत्य की प्रतिष्ठा होने पर वाणी और विचारों में क्रियाफलदान की शक्ति उत्पन्न हो जाती है।
दूसरे की वस्तु को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष किसी भी रूप में पाने की आकाँक्षा न करना—’अस्तेय’ है। इससे व्यक्ति की लोभ−लिप्सा पर अंकुश लगता और मन इतना अनुशासित बनता है, किसी बिगड़ैल घोड़े को साधने के समान है। इसलिए साधना पथ के पथिकों के लिए अस्तेय की महत्ता कम नहीं, अपितु सर्वाधिक है। देखा गया है कि अनेक बार अनेक साधक सिर्फ इसलिए मार्ग−च्युत हो जाते हैं कि उनका मन निरंकुश होता है। वह किसी वस्तु के प्रति कई बार इस कदर पागल हो उठता है कि उसकी प्राप्ति ही उसके लिए सर्वप्रमुख बन जाती है, जबकि साधना, जीवन का प्रधान लक्ष्य होते हुए भी गौण बनी रहती है। इस प्रकार साधक शनैः−शनैः साधना पथ से दूर हटते हुए अंततः उससे विलग हो जाता है। योगमार्ग से वह विलगाव ही योगभ्रष्टता है। इसी कारण से ऐसे साधक योगभ्रष्ट कहलाते हैं। शांडिल्योपनिषद् में अस्तेय को परिभाषित करते हुए कहा गया है,
‘अस्तेयं नाम मनोवाक्कायकर्मभिः परद्र्रव्येष निःस्पृहता।’ (अं. 1/1)
अर्थात् शरीर, मन और वाणी द्वारा दूसरों के द्रव्य की इच्छा न करना अस्तेय कहलाता है।
अस्तेय तत्त्व पर आरुढ़ साधकों में जो सिद्धि प्रकट होती है, उस बारे में पातंजल योगसूत्र का कथन है, ‘अस्तेय−प्रतिष्ठायाँ सर्वरत्नोपस्थानम्।’ (2/37) अर्थात् अस्तेय की स्थिरता होने पर साधक के पास सर्वदेशस्य रत्न आ उपस्थित होते हैं।
मन को ब्रह्म या ईश्वरपरायण बनाए रखना ही ब्रह्मचर्य है। योगसूत्र (व्यासकृत) में कहा गया है, ‘ब्रह्मचर्य गुप्तेन्द्रियस्योपस्थस्य संयमः।’ अर्थात् गुप्त इंद्रिय के संयम को ब्रह्मचर्य कहते हैं। शांडिल्योपनिषद् इसकी और सूक्ष्म व्याख्या करते हुए कहती हैं,
“ब्रह्मचर्य नाम सर्वावस्थासु मनोवाक्कायकर्मभिः सर्वत्र मैथुनत्यागः।”
अर्थात् सर्वावस्था में सर्वत्र शरीर, मन, वाणी द्वारा मैथुन का त्याग ब्रह्मचर्य कहलाता है।
शास्त्रों में मैथुन के आठ प्रकार बताये गए हैं—
स्मरणं कीर्त्तनं केलिः प्रेक्षणं गुह्यभाषणम्। संकल्पोऽध्यवसायश्च क्रियानिष्पत्तिरेव च॥ एतन्मैथुनमष्टाँगं प्रवदन्ति मनीषिणः। विपरीतं ब्रह्मचर्यमनुष्ठेयं मुमुक्षुभिः॥
अर्थात् काम भाव से स्त्री का स्मरण, उसके साथ क्रीड़ा, उसका स्पर्श, उसके साथ एकाँत में वार्त्तालाप, मैथुन का संकल्प, उस संकल्प को पूरा करने के लिए उपाय करना और क्रिया पूरी करना या संसर्ग करना, ये मैथुन के आठ प्रकार मनीषियों ने बताए हैं। इसके विपरीत इन सबका त्याग ही ब्रह्मचर्य है।
किसी महत्त्वपूर्ण यात्रा के आरंभ करने से पूर्व जिस प्रकार पूँजी जुटानी पड़ती है, ताकि मार्ग व्यय एवं आहार जैसी आवश्यकताओं की पूर्ति हो सके, ठीक उसी प्रकार कुछ विशिष्ट भौतिक एवं आध्यात्मिक प्रयोजनों की सफलता के लिए शक्ति−संचय की जरूरत पड़ती है। यह ब्रह्मचर्य पालन द्वारा ही शक्य है। इस दौरान यदि ऐसा नहीं किया गया, तो सफलता की संभावना क्षीण हो जाती और परिश्रम निरर्थक चला जाता है। अध्यात्म मार्ग में आगे बढ़ने और लक्ष्य प्राप्त करने के लिए तो यह निताँत जरूरी है कि इंद्रिय−संयम का पालन किया जाए, पर भौतिक कार्यों की सफलता में भी इसका योगदान असंदिग्ध है। इसके परिपालन से वाणी में ओज, चेहरे में तेज, आँखों में चमक, बुद्धि में प्रखरता, शरीर में शक्ति और कितनी ही प्रकार की अन्यान्य विभूतियाँ पैदा हो जाती हैं।
ब्रह्मचर्य सिद्ध कर लेने वाले साधकों के संबंध में पातंजल योगसूत्र कहता है,
‘ब्रह्मचर्यप्रतिष्ठायाँवीर्यलाभः’ (2/38)
अर्थात् ब्रह्मचर्य की प्रतिष्ठा होने पर साधक को वीर्यलाभ होता है। वीर्य लाभ होने से साधना के अनुकूल गुण समूह पैदा होते हैं, जिससे योगाभ्यासी को आत्मज्ञान प्राप्त होता है।
पूर्ण अपरिग्रह को प्राप्त साधक में काल−ज्ञान संबंधी सिद्धि आ जाती है। पातंजल योगसूत्र का इस संबंध में कथन है,
‘अपरिग्रहस्थैर्ये जन्मकथन्तासंबोधः।’ (2/39)
अर्थात् अपरिग्रह के स्थिर होने से जन्म−वृत्तांत का ज्ञान प्राप्त होता है। इसका अर्थ यह हुआ कि पूर्व जन्म में हम क्या थे? कैसे थे? इस जन्म की परिस्थितियाँ ऐसी क्यों हुई एवं हमारा भावी जन्म कब, कहाँ, कैसा होगा? इस ज्ञान का उदय होना अपरिग्रह साधना द्वारा ही संभव होता है।
यम यम−पंचक की चर्चा हुई। इसी प्रकार नियम भी पाँच हैं। शौच, संतोष, तपस्या, स्वाध्याय और ईश्वर प्रणिधान−ये पाँच नियम हुए।
शौच ‘पवित्रता’ को कहते हैं। बाह्य और आँतरिक सुचिता, यह दोनों ही इसके अंतर्गत हैं। साधक को बाहरी स्वच्छता की ही तरह भीतरी पवित्रता का भी ध्यान रखना पड़ता है। जैसे−जैसे यह सधती जाती है, वैसे−ही−वैसे उसकी आत्मोन्नति होती जाती है। योगसूत्र (व्यास भाष्य) में ऋषि कहते हैं—
शौंच मुज्जलादिजनितं मेध्याभ्यवहरणादि च बाह्मम् आभ्यंतरं चित्तमलानामाक्षालनम्।
अर्थात् मृत्तिका एवं जल आदि से स्नान तथा पवित्र आहार यह बाह्य शौच हुए। चित्त की मलिनता दूर करने को भीतरी शौच कहते हैं। प्राणायाम एवं जप−तप द्वारा इसे दूर करना पड़ता है। जिसमें यह शुद्धि पूर्णरूप से प्रतिष्ठित हो जाती है, उसमें आत्मदर्शन की योग्यता आ जाती है। पातंजल योगसूत्र का स्पष्ट उल्लेख है, ‘शोचात्स्वाँगजुगुप्सा परैरसंसर्गः।’ (2/40) अर्थात् शौच की स्थिरता होने पर निज अंग समूह के प्रति घृणा और परदेह संसर्ग की अनिच्छा होती है।
ईश्वरेच्छा से या प्रारब्धवश जब जो कुछ मिले, उसी से सुखी होना ‘संतोष’ कहलाता है। शाँडिल्योपनिषद् का भी ऐसा ही कथन है, ‘संतोषो नाम यद्रच्छालाभ संतुष्टिः’ संतोष से परम सुख की प्राप्ति होती है। असंतोष ही अशाँति और दुःख का कारण है। इसलिए साधकों को स्वल्प में संतोष का निर्देश किया गया है, ताकि वे साधना संक्राति को भलीभाँति पार कर सिद्धि−लाभ कर सकें। पातंजल योगसूत्र इस विषय में लिखता है, ‘संतोषादनुत्तम−सुखलाभः। (2/42) अर्थात् संतोष की पूर्ण उपलब्धि होने पर अनुपम सुख प्राप्त होता है।
कष्ट−सहन को ‘तप’ कहते हैं। जो व्यक्ति स्वेच्छा से सीमित साधनों में निर्वाह करे और प्रसन्न रहे, वह तपस्वी कहलाता है। दीन−दरिद्र स्वल्प साधनों में जीवनयापन करते हैं, फिर भी वे तपस्वी नहीं, कारण कि ऐसा वे निजी इच्छा से नहीं मजबूरीवश करते हैं। शास्त्रवचन है, ‘तपः द्वंद्व−सहननम् द्वंद्वश्च जिघत्सापिपासे, शीतोष्णे स्थानासने काष्ठमौनाकारमौने च व्रतानि चैव यथायोगं कृच्छूचाँद्रायणसाँतपनादीनि।’ (योगसूत्र व्यासभाष्य) अर्थात् द्वंद्व−सहन तपस्या है। भूख−प्यास, शीत−उष्ण, उठना−बैठना, काष्ठ मौन (अर्थात् इशारों से भी अपना अभिप्राय प्रकट न करना), आकार मौन (बात न करना), चाँद्रायण और साँतपनादि व्रत का अनुष्ठान इन्हें तपस्या कहा गया है। इनके सधने पर नानाप्रकार की सिद्धियाँ प्रकट होती हैं। इस संबंध में पतंजलि अपने योगसूत्र ग्रंथ में लिखते हैं, ‘कायेन्द्रियसिद्धिरशुद्धिक्षयात्तपसः।’ (2/43) अर्थात् तप सिद्ध होने से अशुद्धियों का क्षय होकर देह संबंधी अणिमादि और इंद्रिय संबंधी दूरदर्शन, दूरश्रवण आदि सिद्धियाँ प्रकट होती हैं।
श्रेष्ठ ग्रंथों के अध्ययन और श्रवण को स्वाध्याय कहते हैं। इसकी पूर्णता से इष्ट देवता की उपलब्धि और साक्षात्कार होता है, ऐसा भगवान पतंजलि का कथन है, ‘स्वाध्यायादिष्टदेवतासंप्रयोगः।’ (2/44)।
परमात्मा में समस्त कर्म अर्पित कर देने को ईश्वर प्रणिधान कहा गया है। जिसे इसकी उपलब्धि होती हैं, वह समाधि सुख का आनंद लूटता है। उसे सब अवस्थाओं में सर्वत्र ईश्वर−दर्शन होते हैं। कहा भी गया है,
‘समाधिसिद्धिरीश्वरप्रणिधानात्’ (पातं योग सू. 2/45)
यम−नियम के इन आरंभिक सोपानों को जो सरलता−पूर्वक पार कर लेता है, उसके लिए आगे की सफलता सुगम और सुनिश्चित हो जाती है एवं वह आत्मोपलब्धि को प्राप्त करता है, ऐसा योगशास्त्र के आचार्यों का कथन है।