इस वर्ष का विशिष्ट शक्ति−साधना पर्व

October 2001

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परम सत्ता को माँ के रूप में देखने और उस रूप में उसकी आराधना करने का प्रचलन भारतीय संस्कृति की एक मौलिक विशेषता है, जिसकी मिसाल विश्व के अन्य धर्मों या आस्था-परम्पराओं में खोज पाना दुर्लभ है। वहाँ ईश्वर को पिता या जगत् के स्वामी के रूप में ही देखा और पूजा जाता है, माँ के रूप में नहीं। नवरात्रि के रूप में इसी की आराधना का विशिष्ट पर्व मनाया जाता है। उसे शक्ति पर्व भी कहा जाता है। भारत में आदिकाल से चला आ रहा शक्ति पूजा का यह पर्व आज भी अगम्य आस्था के साथ जारी है। हमारी संस्कृति का प्रत्येक कालप्रवाह उसकी चर्चा, विवेचन एवं साधना से भरा पड़ा है।

भारतीय संस्कृति के आदि ग्रंथ ऋग्वेद के दशम मंडल में एक पूरा सूक्त शक्ति उपासना पर है, जिसमें शक्ति की व्यापकता का सुन्दर विवेचन किया गया है-”मैं ही ब्रह्म के दोषियों को मारने के लिए रुद्र का धनुष चढ़ाती हूँ। मैं ही सेनाओं को मैदान में लाकर खड़ा करती हूँ। मैं ही आकाश और पृथ्वी में सर्वत्र व्याप्त हूँ, मैं ही संपूर्ण जगत् की आधीश्वरी हूँ। मैं परमब्रह्म को अपने से अभिन्न रूप में जानने वाले पूजनीय देवताओं में प्रधान हूँ। संपूर्ण भूतों में मेरा प्रवेश है।’ इसी तरह ऋग्वेद के देवी सूक्त, ऊषा सूक्त और रात्रि सूक्त तथा सामवेद के रात्रि सूक्त सभी शक्ति साधना की परम्परा के निदेशक हैं।

कुरुक्षेत्र में महाभारत आरम्भ होने से पूर्व भगवान् श्रीकृष्ण ने आदि शक्ति की ही उपासना की थी, ताकि युद्ध में अर्जुन विजयी हो। भगवान राम द्वारा इसकी उपासना का उल्लेख अनेक राम कथाओं में मिलता है। बौद्ध धर्म में मातृ शक्ति की पूजा विविध रूप में प्रचलित रही है। बौद्ध तंत्रों में तो शक्ति को शीर्ष स्थान प्राप्त रहा है। शाक्त पुराणों में देवी के स्वरूप, महिमा एवं उपासना विधि का विस्तार से वर्णन किया गया है। वस्तुतः पौराणिक युग को शक्ति उपासना का यौवन काल कह सकते हैं। पुराणों के व्यापक प्रचार से शक्ति की उपासना को इतना बल मिला था कि वह घर-घर में पूजी जाने लगी।

दैवी भागवत में शक्ति के लिए अनन्य शक्ति भाव प्रदर्शित किया गया है। मार्कण्डेय पुराण में शक्ति की व्यापकता का उल्लेख तीन रूपों में किया गया है-महाकाली, महालक्ष्मी और महासरस्वती। महाकाली आसुरी शक्तियों का संहारक है, अहंकार का नाश करती हैं और ज्ञान की खड्ग से अज्ञान को नष्ट करती हैं। महासरस्वती विवेक की देवी है। विद्या, साहित्य, संगीत, विवेक और ज्ञान की अधिष्ठात्री है। महालक्ष्मी ऐश्वर्य की देवी है। मार्कण्डेय पुराण में दैवी माहात्म्य की विशद् विवेचना को ‘दुर्गा सप्तशती’ नाम दिया गया है। स्कन्द पुराण में देवी के आविर्भाव का वर्णन है। ब्रह्मपुराण, ब्रह्म वैवर्त पुराण आदि में भी देवी के अवतरण का उल्लेख मिलता है। मार्कण्डेय पुराण के अनुसार ब्रह्माजी मार्कण्डेय ऋषि को कहते हैं कि देवी का पहला रूप शैल पुत्री है। इस क्रम में अन्य रूप ब्रह्मचारिणी, चन्द्रघण्टा, कुष्माण्डा, स्कंदमाता, कात्यायनी, कालरात्रि, महागौरी और सिद्धिदात्री हैं। इन रूपों को नौ दुर्गा के रूप में पूजा जाता है। दुर्गा की उत्पत्ति के संदर्भ में शिवपुराण में रुद्र संहिता के पंचम अध्याय में सुँदर आख्यान मिलता है।

वस्तुतः शक्ति का विस्तार, वैभव एवं लीला जगत् अनन्त है। सृष्टि की तमाम व्यापकता एवं विविधता के मूल में एक ही शक्ति विद्यमान है, इसे ब्रह्म की क्रिया शक्ति के रूप में आदि शक्ति के रूप में जाना जाता है। यही विविध अवसरों पर, विविध प्रयोजनों के लिए अलग-अलग नाम, रूप एवं शक्ति धारण करके प्रकट होती है। प्रकृति की जितनी भी शक्तियाँ हैं वे सब इसी की अभिव्यक्ति हैं। इनका स्फुरण, उद्भव एवं जन्म इसी आदि शक्ति के गर्भ से होता है। सृष्टि का पोषण एवं संवर्धन इसी के बल पर होता है। यही इसकी रक्षा करती है। यही ब्रह्म, विष्णु एवं महेश की जननी है। सृष्टिकर्त्ता इस सृजनकारिणी शक्ति से हीन होने पर सृष्टिकर्ता नहीं रह जाता है। स्कंदपुराण में उल्लेख आता है कि शक्ति से विहीन शिव शव के समान है, शिव का शिवत्व महाशाँति के सान्निध्य से ही जाग्रत् होता है।

दैवी के रूप को सर्वत्र व्याप्त देखा जा सकता है। समस्त प्राणियों में यही चेतना, बुद्धि, स्मृति, धृति, शक्ति, श्रद्धा, काँति, तुष्टि, दया और लक्ष्मी आदि रूपों में स्थित हैं। प्रत्येक प्राणी के भीतर मातृ शक्ति एवं मातृ प्रवृत्ति के रूप में वे ही प्रवाहित और प्रकाशित हैं। वह विविध रूप धारिणी है। सत्, रज एवं तम गुणों के आधार पर यह क्रमशः महा सरस्वती, महालक्ष्मी एवं महाकाली के रूप में अभिव्यक्त होती है। वस्तुतः विविध नाम रूपों में देवी के स्वरूप मूलतः एक ब्राह्मी शक्ति में सिमट जाते हैं जिसे प्रचलित रूप में गायत्री नाम से जाना जाता है। इस रूप में शक्ति साधना की आदि परम्परा गायत्री उपासना की ही रही है। नवरात्रि के पावन पर्व पर प्राचीन काल में गायत्री उपासना का ही एकमात्र प्रसंग मिलता है। विभिन्नताएँ मध्यकाल के अंधेरे युग की उपज हैं। जिसमें शक्ति-देवियों के नाम पर अनेकों रूप सामने आए। फिर भी प्रधानता गायत्री की ही रही है।

वैदिक संस्कृति में तो पूरी तरह एकरूपता, एकनिष्ठ, एक दिशा, एक लक्ष्य का ही निर्धारण था। ज्ञान और विज्ञान का आधार वेद और उपासना का समूचा विधि विधान गायत्री की धुरी पर परिभ्रमण करता था। उन दिनों सर्वसाधारण के लिए दैनिक सन्ध्या वंदन में गायत्री मंत्र ही उपासना का मेरुदण्ड था। योगी, तपस्वी इसी के सहारे अपना महालक्ष्य प्राप्त करते थे। देवताओं और अवतारों के लिए भी शक्ति का स्रोत यही थी। नवरात्रि के अवसर पर गायत्री मंत्र को केन्द्र मानकर विशिष्ट शक्ति साधना अनुष्ठान संपन्न किए जाते थे।

नवरात्रि की संधि (सर्दी-गर्मी) की वेला स्वयं में विशिष्टता लिए होती है। इसी समय कार्तिकी फसल पकती है। समूची प्रकृति अपने चरम उत्कर्ष पर होती है। इन्हीं दिनों कायातंत्र इकट्ठे विजातीय तत्त्व को बाहर फेंकने के लिए जोर मारता है। आयुर्वेद की शरीर शोधन की कल्प चिकित्सा इन्हीं दिनों संपन्न की जाती है। इसी तरह आध्यात्मिक साधनाओं के लिए नवरात्रि से बढ़कर और कोई अवसर नहीं हो सकता। यदि इसके साथ युग संधि का दुर्लभ सुयोग भी जुड़ा हो तो इसका महत्त्व शतगुणित हो जाता है। इसलिए नवरात्रि के इस पुण्य पर्व को हाथ से न जाने दिया जाए व समूची तैयारी के साथ इसकी आत्म शोधन एवं आत्मोत्कर्ष साधना में भागीदार हुआ जाए तो यह समझदारी भरा कदम होगा।

नवरात्रि साधना में 24 हजार मंत्र जप वाले लघु अनुष्ठान के नियमों का पालन करना होता है। इसमें 27 माला नियमित जपनी पड़ती है जो सामान्य गति के अनुरूप 3 घण्टे में पूरी हो जाती है। इस अवधि में उपवास के नियम का पालन कड़ाई से किया जाए तो अच्छा है अन्यथा ब्रह्मचर्य रहने वाला अनिवार्य नियम टूट सकता है। उपवास कई स्तर का हो सकता है। फल द्वारा, शाकाहार, खिचड़ी, दलिया आदि। मसाला इन दिनों छोड़ देना चाहिए। बिना नमक एवं शक्कर का भोजन भी एक प्रकार का उपवास ही है। अपनी शारीरिक एवं मानसिक स्थिति के अनुरूप उपवास का क्रम बनाना चाहिए। नियम के क्रम में नौ दिवस तक पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन किया जाए, यदि स्वप्नदोष हो जाए तो दस माला प्रायश्चित की अतिरिक्त की जाए। इसके अतिरिक्त तीन अन्य नियम हैं-1.कोमल शैय्या का त्याग अर्थात् भूमि शयन या तखत पर सोना 2. अपनी शारीरिक सेवाएँ अपने हाथों करना 3. हिंसक पदार्थों का त्याग, चमड़े की वस्तुओं का त्याग।

इन पाँच नियमों के अतिरिक्त जप का शताँश हवन किया जाना चाहिए। पूर्णाहुति के बाद प्रसाद वितरण, कन्या भोज आदि अपनी सामर्थ्य अनुरूप उत्तम हैं। जो उपरोक्त अनुष्ठान न कर सकते हों वे 24 गायत्री चालीसा पाठ करके 2400 गायत्री मंत्र लिखकर भी सरल अनुष्ठान कर सकते हैं। इसके साथ पाँच प्रतिबन्ध अनिवार्य नहीं है। परन्तु ब्रह्मचर्य आदि नियम जितने कुछ पालन किए जा सके उतना ही लाभ अधिक होगा।

शक्ति पर्व के इस पावन अवसर पर किया गया साधनात्मक पुरुषार्थ, हमारे आत्मोत्कर्ष की दिशा में मील का पत्थर साबित हो सकता है। अवतरित शक्ति का एक अंश उस ज्ञान को सक्रियता में बदल सकता है जो शक्ति के अभाव में भारी बोझ बना रहता है। इस शक्ति का एक अंश उस भात्ति के लिए ईंधन का काम कर सकता है जो शक्ति के अभाव में कोरी भावुकता बनकर रह जाती है। इस शक्ति का एक अंश उस श्रद्धा को निष्ठा में बदलकर इसकी सार्थकता सिद्ध कर सकता है जो शक्ति के अभाव में कुँठित होकर दम तोड़ती रहती है।


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