मनुष्य ही है निज का भाग्य विधाता

October 2001

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भाग्य के नाम पर दीन−हीन एवं निकृष्ट स्तर का जीवन जीना एक ऐसी विडंबना है, जो हमारे समाज में सब ओर बिखरी है। भाग्य के नाम पर अकर्मण्य व बेगार−सा जीवन जीने वाले इन व्यक्तियों के लिए भाग्य एक सर्वसमर्थ तत्त्व है, जिसके आगे किसी तरह के पुरुषार्थ का महत्त्व वे समझ नहीं पाते। जन्म कुँडली, हस्तरेखाएँ, ग्रह−नक्षत्र जीवन का निर्धारण एवं संचालन करने वाले अटल तत्त्व बन जाते हैं। व्यक्ति तब किन्हीं अज्ञात शक्तियों के हाथ में एक खिलौना मात्र रह जाता है। उसकी स्वतंत्र इच्छा, प्रयास और पुरुषार्थ का कोई महत्व नहीं रह जाता। जबकि कष्ट, पीड़ा एवं घोर पतन की स्थिति में भी मनुष्य अपने पुरुषार्थ एवं विवेक के सहारे उबर जाता है व भविष्य का उचित निर्धारण कर सकता है। लेकिन भाग्य−प्रारब्ध को सर्वोच्च शक्ति घोषित कर पुरुषार्थ को नकारते हुए व्यक्ति अकर्मण्य और पलायनवादी जीवन का वरण करता है और अपने लिए नारकीय व पतनकारी स्थितियों का सृजन करता है।

इस तरह यह भाग्य नाम की अदृश्य शक्ति एक भ्रामक एवं घातक धारणा है। इसका स्वयं में कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है। भाग्य का अस्तित्व यदि है तो वह कर्म से जुड़ा है। यहाँ कर्म के सूक्ष्म भेद का जानना आवश्यक है। कर्म तीन प्रकार के होते हैं, क्रियमाण, संचित और प्रारब्ध कर्म। क्रियमाण अर्थात् वर्तमान में हो रहे कर्म। संचित कर्म अर्थात् इस जन्म के पूर्व में किए गए कर्मों का समुच्चय, प्रारब्ध कर्म अर्थात् पूर्व जन्म के कर्मों का समुच्चय। इस तरह क्रियमाण कर्म ही संचित कर्म बनते हैं। संचित कर्म ही प्रारब्ध है। जब ये प्रारब्ध कर्म फलित होते हैं, तो इनके कारण उत्पन्न दृश्य एवं परिस्थितियों को समझ न पाने के कारण इसे भाग्यरूपी अदृश्य शक्ति का नाम देते हैं व इसका अस्तित्व मानने लगते हैं, जबकि यह कर्म से जुड़ा है। मनुष्य अपनी इच्छा व पुरुषार्थ द्वारा कर्म की गति को दिशा दे सकता है।

प्रारब्ध यदि कष्टकर हो तो भी उसे भोगना तो पड़ता है, लेकिन उसको हलका किया जा सकता है। ‘मंत्र तंत्रोषधी बलात्’ से उसको हलका किया जा सकता है। शूल की पीड़ा को सुई में बदला जा सकता है। दरिद्र व्यक्ति संचित कर्म का नाश तपस्या से कर सकता है। निःसंतान किसी तपस्वी के आशीर्वाद व अनुग्रह से पुत्र प्राप्त कर सकता है। अल्पायु तप आदि से दीर्घायु में परिवर्तित हो सकता है। अर्थात् मनुष्य अपने भाग्य (अर्थात् प्रारब्ध) को परिवर्तित, संशोधित एवं संवर्द्धित कर सकता है।

भविष्यदर्शन की विधाओं में निष्णात विद्वानों एवं ज्योतिषियों का भी यह मत है कि भाग्य को बदला जा सकता है। भविष्य के गर्भ में झाँककर आगत घटनाओं की पूर्व से सूचना देने वाले सुप्रसिद्ध फ्राँसीसी भविष्यवक्ता नास्त्रेदामस का कहना भी था कि भविष्य बदला जा सकता है। शेक्सपियर का मत था कि मनुष्य अपने भाग्य का स्वामी हो सकता है।

भविष्य पर शोध करने वाले प्रख्यात डॉ. एडमर मिटहेल का मत है कि मस्तिष्कीय वैचारिक तरंगों के बदलने से भविष्य की क्रियाओं को बदला जा सकता है।

हस्तरेखा के प्रसिद्ध अमेरिकी विद्वान् विलियम जार्ज वेनहम का भी यह मत था कि भाग्य बदला जा सकता है। रेखाएँ बदली जा सकती हैं।

इसी मत की पुष्टि विश्वविख्यात भविष्यद्रष्टा कीरो हाथ की रेखाओं के संदर्भ में अपने इन विचारों द्वारा करते हैं, “हाथ की रेखाएँ एक इंजन चालक के समान हैं, जिसे इस बात की सूचना मिल चुकी है कि उससे कुछ ही मील की दूरी पर पटरी टूटी हुई है, जो उसके तथा समस्त रेलगाड़ी के यात्रियों के लिए घातक सिद्ध हो सकती है। यदि चालक थोड़ा−सा भी निपुण है, तो वह चेतावनी से समझौता करके पटरी के ठीक होने तक की प्रतीक्षा करेगा व अपनी तथा सभी यात्रियों के जीवन की रक्षा कर लेगा। इसके अतिरिक्त यदि सूचना को अनदेखा कर गाड़ी बढ़ाता जाएगा, तो होने वाली दुर्घटना की कल्पना स्वयं ही की जा सकती है।”

अन्य स्थान पर कीरो कहते हैं कि व्यक्ति रूप में मनुष्य को ईश्वर ने अपने प्रतिरूप की भाँति सिरजा है। इसीलिए मनुष्य में ब्रह्मास्मि होने की शक्ति है। ज्ञानप्राप्ति की अदम्य कामना ही आत्मा को विद्यमानता का प्रमाण है और यही वह विभाजन रेखा है, जो मनुष्य को पशुजगत से अलग करती है। इसी ज्ञान के द्वारा मनुष्य होनी पर विजय पा सकता है, जो उसे ज्ञान के अभाव में भुगतनी पड़ती है।

पुरुषार्थ की भाग्य के ऊपर विजय का सशक्त प्रतिपादन योगवासिष्ठ में किया गया है। महर्षि वशिष्ठ जी इसके मुमुक्ष प्रकरण के षष्ठ सर्ग में कहते हैं—

द्वौ हुडाविव युध्येते पुरुषार्थों परस्परम्। य एव बलवाँस्तत्रस स एव जयति क्षणात्॥

अर्थात् पूर्वजन्म और इस जन्म के कर्मरूपी दो भेड़ें आपस में लड़ते हैं, उनमें जो बलवान होता है वह विजयी होता है। उदार स्वभाव और सदाचार वाले, इस जगत् मोहक दैव से (भाग्य के चक्र से) वैसे ही निकल जाते हैं जैसे पिंजरे से सिंह। पौरुष का फल हाथ में रखे गए आँवले के समान स्पष्ट है। प्रत्यक्ष को छोड़कर दैव के मोह में निमग्न लोग मूढ़ हैं।

स्वामी विवेकानंद कहा करते थे कि मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता आप है। भाग्य पर आश्रित रहने वाले लोग मूर्ख हैं या कायर। संस्कृत सूक्तियाँ भी दैव की बातें करती हैं। लेकिन पुरुषार्थी लोग भाग्य के भरोसे नहीं जीते, वे भाग्य का निर्माण स्वयं करते हैं। मनोवैज्ञानिकों का मत है कि बूढ़े लोग प्रायः भाग्य की बातें किया करते हैं, जबकि पुरुषार्थपरायण लोग ज्योतिष में अधिक विश्वास नहीं रखते।

वैज्ञानिक भी कहते हैं कि मनुष्य स्वतंत्र इच्छाशक्ति लेकर जन्म लेता है। महर्षि अरविंद भारतीय दृष्टिकोण के अनुरूप प्रकाश डालते हुए कहते हैं कि भाग्य का कारण कर्म है। अपने कर्मों के द्वारा स्वयं हम ही अपने भाग्य निर्माता है, पर हमारे द्वारा सृष्ट भाग्य हमें बाँधता है, क्योंकि हमने जो कुछ बोया है, उसे इस जीवन या दूसरे जीवन में हमें अवश्य काटना होगा। फिर भी हम लोग वर्तमान में भूतकाल से प्राप्त प्राचीन भाग्य को भोगते हुए ही भविष्य के लिए अपने भाग्य का निर्माण कर रहे हैं। यह बात हमारे संकल्प और कर्म को एक अर्थ प्रदान करती है।

अथर्ववेद में कहा गया है,

अयं में हस्तो भगवानयं में भगवत्तरः।

अर्थात् यह हाथ ही भगवान् है, यह भगवान् से भी बलवान है। कर्म ही भाग्य है। कर्म का कारण और फल दोनों ही हाथ में हैं।

अँगरेजी में कहावत है कि ईश्वर उसकी सहायता करता है, जो अपनी सहायता स्वयं करते हैं। अर्थात् जो क्रियाशील व पुरुषार्थी हैं, ईश्वर का वरद्हस्त उनके साथ है। लोग तर्क देते हैं कि भगवद् अनुग्रह से फलप्राप्ति बिना कर्म के भी हो जाती है। वे भूल जाते हैं कि भगवद् भक्ति, स्मरण, कीर्तन, चिंतन आदि भी तो कर्म हैं, कर्म नहीं बल्कि विशिष्ट कर्म हैं।

इस तरह भाग्य या प्रारब्ध कोई ऐसी शक्ति नहीं कि जिसके आगे मनुष्य घुटने टेक दे, उसके हाथों की कठपुतली बनकर दीन हीन, दरिद्र व निकृष्ट स्तर का जीवन जिए। बल्कि यह तो उसी के कर्मों की रचना है, जिसे मनुष्य अपने प्रयास−पुरुषार्थ अर्थात् नवीन कर्म द्वारा परिमार्जित कर सकता है। श्रेष्ठ कर्म करता हुआ वह अपने लौकिक एवं पारलौकिक जीवन का सफल और सार्थक बना सकता है, आखिर मनुष्य अपना भाग्यविधाता आप ही तो है।


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